अपने समय के बेहद लोकप्रिय शायर इब्ने इंशा की ख्याति यात्र लेखक,स्तंभकार तथा व्यंग्यकार के रूप में भी है. कोई उन्हें मीर तकी मीर और नजीर अकबराबादी की रवायत को आगे बढ़ाने वाला कवि कहता है, बहुतों को उनकी काव्य शैली पर अमीर खुसरो तथा विचारों पर कबीर का गहरा प्रभाव दिखता है. आज इब्ने इंशा को याद कर रहे हैं हम उनके जन्म दिवस के बहाने.
उम्र से ज्यादा दे गये वो
उर्दू के मशहूर शायर,व्यंग्यकार इब्ने इंशा जी की याद उनके ही लफ्जों में-
हम भूल सके हैं, न तुङो भूल सकेंगे.
तू याद रहेगा हमें, हां याद रहेगा.
इब्ने इंशा याद हैं, बहुतों को ‘उर्दू की आखिरी’ किताब की मार्फत और लगभग हर किसी को ‘कल चौदहवीं की रात थी शब भर रहा चरचा तेरा’ गजल के जरिये नक्शेदिल होकर. महज पचास की उम्र में कैंसर इब्ने इंशा को इस जहान से ले गया. इस सिमटे हुए उम्र-ए-दराज में भी वह आईना दिखानेवाले तंज कस गये, दिल की गहराइयों को छूती गजलें कह गये, यात्र वृत्तांत लिखने का एक नया लहजा दे गये. इस तरह बरसों का काम कुछ दिनों में कर के उर्दू को अपनी उम्र से ज्यादा दे गये. आज 15 जून को इन्हीं इंशा जी की सालगिरह है. और हम उन्हें याद कर रहे हैं.
हसरत का अधूरा रह जाना
यह जानते हुए कि न सरकार, न सरहद , न सेहत इजाजत देगी, वह हिंदुस्तान आने की बेसाख्ता हसरत रखते थे. वही हिंदुस्तान, जहां पंजाब के जालंधर स्थित फिल्लौर में 1927 की जून में वह जन्मे थे. लुधियाना के एक स्कूल में पढ़े थे और जहां के पंजाब विश्वविद्यालय से 1946 में उन्होंने बीए किया था. और जहां से बंटवारे के बाद 1949 में उन्हें मजबूरन परिवार के साथ पाकिस्तान जाना पड़ा. लेकिन हिंदुस्तान आने, यहां रह गये दोस्तों से एक बार फिर मिल सकने की हसरत का अधूरा रह जाना लिए हुए वह भारत-पाकिस्तान से दूर लंदन में आखिरी सांस ले दुनिया से अलविदा कह गये. कहते हैं कि इब्ने इंशा एक बेचैन से शख्स हुआ करते थे. इस बेचैनी के पीछे शायद देश को बांटने की राजनीति, मिडिल ईस्ट की उथल-पुथल और इस सब में छलनी होती जिंदगियां थीं. इसलिए वह तंज कसते हैं-
‘यह कौन-सा मुल्क है?/ यह पाकिस्तान है!/ इसमें पाकिस्तानी कौम रहती होगी?/ नहीं! इसमें पाकिस्तानी कौम नहीं रहती/ इसमें सिंधी कौम रहती है/ इसमें पंजाबी कौम रहती है/ इसमें बंगाली कौम रहती है/ इसमें यह कौम रहती है/ इसमें वह कौम रहती हैं/ लेकिन पंजाबी तो हिंदुस्तान में भी रहते हैं!/ सिंधी तो हिंदुस्तान में भी रहते हैं!/ बंगाली तो हिंदुस्तान में भी रहते हैं!/ फिर यह अलग देश क्यों बनाया था?/ गलती हुई. माफ कर दीजिए. अब कभी नहीं बनायेंगे.’
इब्ने इंशा कुछ यूं हुए
इब्ने इंशा की जिंदगी से गुजरें तो वह शेर मोहम्मद खान नाम से मिलते हैं और अदबी जिंदगी में दाखिल होते ही इब्ने इंशा हो जाते हैं. वही इब्ने इंशा, जिसके लिए वह खुद लिखते हैं-‘तुम इंशा जी का नाम न लो.’ लेकिन उनकी लेखनी के कायल उनकी ही नज्म ‘शब भर रहा चर्चा तेरा’ की मानिंद बार-बार उनका नाम लेते हैं. अपने शेर मोहम्मद खान से इब्ने इंशा हो जाने के सवाल पर वह पाकिस्तान रेडियो में कहते हैं-‘शेर मोहम्मद खान मैं कभी रहा ही नहीं. लिखने और प्रकाशित होने की हद तक इब्ने इंशा ही रहा. स्कूली कागजों में बेशक शेर मोहम्मद खान नाम दर्ज रहा, अब तो वो भी नहीं, लेकिन इस नाम से पुकारा कभी नहीं गया. छठीं जमात से ही 11 साल की उम्र में लिखना शुरू कर दिया. गांव से दूर लुधियाना के एक स्कूल में पढ़ने आया. जैसा कि होता है छोटी जगह से बड़ी या नयी जगह आने पर तनहाई घेर लेती है, सो हम भी उससे घिरे और ‘मायूस आबादाबादी’ होकर लिखने लगे. स्कूल के एक शिक्षक ने कहा ‘मायूस होना गुनाह है, तुम अपना कोई और नाम रखो.’ फिर हमने कैसर तख्ल्लुस रखा. इस नाम से एक दीवान भी प्रकाशित हुआ और बंटवारे के बाद मची तबाही में खो भी गया.
इसके बाद इब्ने इंशा हुए और यही होकर रह गये. लिखते तो बचपन से थे, पर बचकाना रूमानियत का असर ये था कि छपवाना बुरी बात है. हालांकि उस जमाने में छपना इतना आसान भी नहीं था. पहली नज्म ‘साहकार’ में प्रकाशित हुई. फिर ‘अदबी दुनिया’ और ‘हुमायूं’ में भी एक-एक नज्म प्रकाशित हुई, तब लगा कि अब हम छप सकते हैं.’
पहली नज्म
उर्दू कॉलेज कराची (अब यह ‘फेडरल उर्दू यूनिवर्सिटी बन चुका है) से एम करने के बाद इब्ने इंशा रेडियो पाकिस्तान से जुड़े. फिर पाकिस्तान के संस्कृति मंत्रलय और नेशनल बुक ट्रस्ट में में काम किया. संयुक्त राष्ट्र (यूएन) में भी सेवारत रहे. इस दौरान जापान, फिलीपींस, फ्रांस, अफगानिस्तान, चाइना, ईरान, तुर्की, इंडोनेशिया, अमेरिका आदि देशों की यात्रएं कीं और इन जगहों के यात्र वृतांत को बाकायदा दर्ज करते गये. लिखने का अंदाज अलहदा था, इसलिए इस लिखे गये को पाठकों की नजर में आना ही था. अपनी अदबी जिंदगी के शुरुआती दिनों में इब्ने इंशा चीनी कविताओं का उर्दू अनुवाद किया करते थे. पहली नज्म जिसने लोगों को इनकी कविताई का मुरीद बना दिया- ‘बगदाद की एक रात’ थी, जो 1949 में प्रकाशित हुई थी. नज्मों का पहला संग्रह ‘चांद नगर’1955 में प्रकाशित हुआ और एक सिलसिला चल पड़ा.
महफिलों में गजलें
एक सी एक खूबसूरत नज्में लिखने के बाद भी इंशा साहब मुशायरों से परहेज बरतते थे. लेकिन उनकी गजलों को कई प्रसिद्ध गायकों ने आवाज दी, जो आज भी कल की तरह बेकरारी से सुनी जाती हैं. पाकिस्तान हो या भारत इब्ने इंशा की गजलों को दोनों मुल्कों के गजल गायकों ने अपने-अपने ढंग से गाया है. गुलाम अली और जगजीत सिंह की गायकी में ‘कल चौदहवीं की रात थी’ गजल खास जगह रखती है. गुलाम अली साहब से हर महफिल में ‘ये बातें झूठी बाते हैं’ सुनने की फरमाइशें अब तक जारी हैं. पाकिस्तान की नाइरा नूर की आवाज में ‘पीत करना तो हमसे निभाना सजन’ और भारत की छाया गांगुली की आवाज में ‘फर्ज करो अहले वफा हों’ गजलें सुनी जा सकती हैं.
इंशा साहब की गजलों की प्रसिद्धि को देखते हुए अकसर उनसे सवाल किया जाता था कि आप फिल्मों के लिए गीत क्यों नहीं लिखते. इस पर वह कहते थे,‘फरमाइश पर जब मैं शेर नहीं कह सकता तो फिल्मों के लिए गीत लिखना तो मुशिकल है. फिल्मवाले चाहें तो मेरे लिखे हुए का फिल्मों में इस्तेमाल कर सकते हैं. फिल्मी दुनिया मेरे मिजाज के मुताबिक नहीं.’
प्रीति सिंह परिहार