राहुल सिंह
वे अखबार नहीं पढ़ सकते. दो-चार पांच पंक्तियां लिख नहीं सकते. अगर कोई सामान्य बात भी लिखवाना हो तो किसी दूसरे की मदद लेते हैं. किसी तरह अपना हस्ताक्षर कर लेते हैं या एकाध टूटी-फूटी पंक्ति लिख लेते हैं. लेकिन उन पर दुनिया के प्रख्यात विश्वविद्यालय कैंब्रिज के छात्र भी शोध करते हैं. अपनी पीएचडी की थिसिस में उनके कार्यो व पर्यावरण संरक्षण के साथ ग्रामीण विकास के लिए उनके द्वारा किये गये प्रयासों की चर्चा करते हैं.
इस शख्स का नाम है : सिमोन उरांव. सिमोन बाबा व राजा साहब के नाम में मशहूर इस शख्स ने सात-आठ महीने से ज्यादा स्कूली पढ़ाई नहीं की. रांची के बेड़ो प्रखंड के हरिहरपुर गांव का किशोर सिमोन गरीबी व अपने घर वालों व गांव वालों की रोजी-रोटी की दिक्कतों से परेशान रहता था. वह हमेशा किसी ऐसे उपाय के बारे में सोचा करता था, जिससे उसके घर वालों व गांवों वालों की तकलीफ दूर हो और लोगों को भरपेट अनाज मिले और वे आर्थिक उन्नति कर सकें. जब सिमोन युवा हुए तो उस समय देश को नयी-नयी आजादी मिली थी. अंगरेज चले गये और अपनों का शासन आया. लेकिन अपनों का वह शासन अंगरेजों से कई मायनों में कम पीड़ादायक नहीं था. गांव के जंगल पर वन विभाग ने दावा कर दिया. ठेकेदार को वन कटाई के ठेके दिये जाने लगे और यह तर्क दिया गया कि जब पुराने पेड़ कटेंगे तो उस जगह नये पौधे जन्म लेंगे. सिमोन उरांव को यह बात नहीं जंची. उनका स्पष्ट मानना था कि गांव के जंगल पर गांव के लोगों का अधिकार है. उन्होंने ग्रामीणों के समर्थन के साथ एलान किया कि वे लोग इस कानून को नहीं मानेंगे. जमीन पर गांव वालों का अधिकार है. बरखा, पानी, जंगल-झाड़ भगवान देते हैं. तीन-धनुष लेकर भी उन्होंने जंगल की कटाई का विरोध किया. इस कारण 1952-53 में उन पर केस भी हो गया था. सिमोन उरांव को दो बार जेल भी जाना पड़ा है, लेकिन जैसा वे बताते हैं कि अदालत ने सामाजिक आदमी बता कर उन्हें मुक्त कर दिया.
गांव के लोगों को संगठित कर शुरू की वन रक्षा
सिमोन उरांव ने वन रक्षा के लिए हरिहरपुर के जामटोली, खकसी टोली, बैरटोली के ग्रामीणों को इकट्ठा किया. इन तीन टोलों के लोग बैठे. सिमोन उरांव के शब्दों में उन्होंने लोगों से कहा कि सरकार इस जंगल को बरबाद करने के लिए पैदा हुई है. इस बैठक में आसपास के गांवों के 10-10 लोगों को तैयार किया और उन्हें जंगल रक्षा की जिम्मेवारी दी. रक्षा करने वालों को 20 पैला सालाना चावल देने का फैसला लिया गया. जलावन के लिए, घर बनाने के लिए लकड़ी की कटाई पर 50 पैसे का शुल्क तय किया गया. अब वह शुल्क बढ़ा कर दो रुपये कर दिया गया है. सालों से आज भी हर हफ्ते गुरुवार को सुबह छह बजे गांव में बैठक होती है, जिसमें वन रक्षा, जल संचय सहित कई दूसरे विषयों पर चर्चा होती है. सिमोन बाबा ने गांव वालों के लिए नियम बनाया है कि एक पेड़ काटो तो पांच से दस पेड़ लगाओ.
तालाब और बांध बनाने का अभियान
सिमोन उरांव ने 1955 से 1970 के बीच बांध बनाने का अभियान जोरदार ढंग से चलाया. इसके बाद भी यह काम जारी रहा. उन्होंने सबसे पहले नरपतरा में बांध बनाया. दूसरा बांध अंतबलु में और तीसरा बांध खरवागढ़ा में बनाया. इन बांधों के कारण यहां दो फसलों की खेती हो रही है. सिमोन बताते हैं कि जब उन्होंने बांध व नहर बनाने का काम शुरू किया तो पहले उसमें 500 लोग जुड़े. फिर जब लोगों ने यह महसूस किया कि बांध बनने से फायदा है तो इसमें एक हजार लोग जुड़ गये. बांध व नहर बनाने का काम भी आसान नहीं था. आरंभ में कई बार खुदाई करते तो बारिश का मौसम आने पर पूरा बांध बह जाता. माघ में शुरू कर आषाढ़ तक नहर के लिए खुदाई की जाती. पर, उसके बहाव से परेशान सिमोन उरांव ने क्षेत्र में घूम कर यह आकलन किया कि आखिर कैसे बांध खोदा जाये कि वह बहे नहीं. उन्होंने अनुमान लगाया कि यदि बांध को 45 फीट पर बांधेंगे और नाले की गहराई 10 फीट होगी तो फिर वह बरसात के पानी को वह ङोल लेगा व बहाव से प्रभावित नहीं होगा. उन्होंने इसी सोच को मूर्त रूप दिया और 5500 फीट लंबा नहर तैयार कर दिया. इनमें जमा होने वाले पानी से खेती के साथ आसपास के जंगल में लगे पौधों की भी सिंचाई की जाती थी. उनकी कोशिशों से तीन बांध तैयार हुए व पांच तालाब तैयार हुए. उन्होंने अपनी जमीन पर 10 कुआं खुदवाया है. उन्होंने इन कार्यो को करने के लिए कभी सरकारी मदद नहीं ली. वे कहते हैं कि अगर सरकार से मदद लेते तो सरकार हमें (वन भूमि का हवाला देकर) नहर नहीं काटने देती.
अन्न का कारखाना तैयार करो
सिमोन बाबा कहते हैं कि आज कारखाने तैयार हो गये हैं, जिसमें तीन रुपये का भी और तीन करोड़ रुपये का भी सामान तैयार होता है. लेकिन अन्न का कारखाना कितना तैयार हुआ? वे बताते हैं कि एक बार दिल्ली में एक बड़े मंच पर उन्हें बोलने के लिए बुलाया गया तो, उन्होंने सवाल उठाया कि अन्न का कारखाना कितना है और किसान की पूंजी क्या है, यह बता दें? इस पर कोई भी जवाब नहीं दे सका. वे मानते हैं कि तमाम विकास के बावजूद आदमी को पेट भरने के लिए अन्न ही चाहिए. इसलिए अन्न का कारखाना (यानी उर्वर खेती योग्य जमीन) तैयार करना जरूरी है. वे बताते हैं कि जब उन्होंने इलाके में नहर व तालाब की खुदाई करवा दी तो इसके बाद कभी वहां सूखा नहीं पड़ा. सिमोन के अनुसार 1967 में जब सूखा पड़ा था, तो उस साल भी उन्होंने अच्छा खासा धान उपजाया था. सिमोन ने बुआई के लिए उस वर्ष कई किसानों को खुद के तैयार किये बीज भी बांटा.
आदमी से नहीं, जमीन से लड़ो
सिमोन बाबा कहते हैं अगर विकास करना है तो आदमी से नहीं, जमीन से लड़ो. अगर विनाश करना है तो आदमी से लड़ो. वे कहते हैं कि देखो, सीखो, करो, खाओ और दूसरों को खिलाओ. वे 1952 से अपने क्षेत्र के पड़हा राजा (जनजातीय परंपरा के अनुसार) हैं. वे कहते हैं जिसने ढाई आखर प्रेम का पढ़ा है, वह घर भी चलायेगा और परिवार भी चलायेगा.
कई सम्मान भी मिले
सिमोन बाबा को पर्यावरण संरक्षण की दिशा में किये गये उल्लेखनीय कार्यो के लिए कई सम्मान मिले हैं. उन्हें अमेरिकन मेडल ऑफ ऑनर लिमिटेड स्ट्राकिंग 2002 पुरस्कार के लिए चुना गया. अमेरिका के बायोग्राफिक इंस्टीटय़ूट के अध्यक्ष जेएम हवांस ने इनके काम को सराहा. विकास भारती, विशुनपुर से जल मित्र सम्मान व झारखंड सरकार की ओर से भी 2008 में स्थापना दिवस के अवसर पर सम्मान मिला. इसके अलावा भी उन्हें कई दूसरे कृषि व पर्यावरण सम्मान मिले हैं. पद्मश्री के लिए भी उनके नाम की सिफारिश हुई थी. ग्रेट ब्रिटेन के नाटिंघम विश्वविद्यालय में वर्तमान में लेरर के रूप में काम कर रही सारा जेविट ने अपने पीएचडी के दौरान लंबा समय उनके साथ उनके गांव में गुजारा. उन्होंने उनके बारे में लिखा था कि मैं पूरे बिहार (एकीकृत बिहार) में घूमी, लेकिन आपके जैसा इनसान नहीं देखा. कुछ वर्ष पूर्व उनके भेजे एक संदेश में उन्होंने फिर से झारखंड आने और उनसे मिलने की इच्छा जतायी है.