<p>पहाड़ के ख़ूबसूरत रंगभरे नज़ारों को धुंध की एक दूधिया परत ने धुंधला दिया है.</p><p>सूखी गर्मी के बीच, अपनी पीठ पर आग के छल्लों का बोझ ढो रहे पहाड़, आसमान में उमड़ते-घुमड़ते बादलों की ओर, एक झमाझम बारिश की उम्मीद में ताक रहे हैं.</p><p>बादल कुछ देर तो घिरते हैं, मगर तेज़ हवाएं उन्हें दूर धकेल देती हैं. कहीं-कहीं कुछ बूंदा-बादी होती है, मगर वह आग बुझाना शुरू भी नहीं कर पाती कि तब तक तेज़ हवाएं आग को पहाड़-दर-पहाड़ फैलाती चली जाती हैं.</p><p>पिछले हफ़्ते भर से उत्तराखंड के पहाड़ों का यही नज़ारा है.</p><p><strong>हज़ारों </strong><strong>हेक्टेयर </strong><strong>जंगल में आग</strong></p><p>मॉनसून की शुरुआत में अभी तक़रीबन एक महीना बाकी है, लेकिन उत्तराखंड में अब तक 3,427 हेक्टेयर से अधिक जंगल आग की चपेट में हैं.</p><p>जबकि पिछले पूरे साल भर में यह आंकड़ा 1,244 हेक्टेयर था. नैनीताल ज़िले के ओखलकांडा ब्लॉक में भी कई जंगल इस वनाग्नि की चपेट में है.</p><p>’ब्लॉक के नाई’ गाँव के चंदन नयाल बताते हैं, ”हमारे आस-पास जंगलों में भयानक आग लगी हुई है. दिन रात हम कोशिश में हैं कि आग बुझाएं लेकिन चीड़ के जंगलों में लगी आग को बुझाना आसान नहीं. पिरूल (चीड़ के पत्ते) तेज़ी से आग पकड़ते हैं और उनमें लगी आग बुझती भी नहीं.”</p><p>चंदन नयाल, आग को रोकने की वन विभाग की तैयारी से खुश नहीं हैं.</p><p>वे कहते हैं, ”हमने कई बार वन विभाग के लोगों को संपर्क किया, लेकिन मदद करने कोई नहीं आता. हमने कहा है कि फ़ायर वॉचर रखे जाएं लेकिन हमारी कोई नहीं सुनता.”</p><h1>जंगलों की आग के कारण</h1><p>उत्तराखंड के मुख्य वन संरक्षक और वनाग्नि नोडल अधिकारी बीपी गुप्ता बताते हैं कि आग रोकने के भरपूर प्रयास किए गए हैं, लेकिन प्राकृतिक स्थितियां प्रतिकूल हैं.</p><p>उन्होंने कहा, ”हमारे 40 मास्टर कंट्रोल रूम बने हैं और 1,437 क्रू स्टेशंस बने हैं. हर एक क्रू स्टेशन पर हमारे 3-4 रेगुलर स्टाफ़ हैं और 3-4 फ़ायर वॉचर्स हैं. जैसे ही हमें फ़ायर अलर्ट मिलता है, हम क्रू स्टेशंस को जानकारी भेजते हैं और वहाँ से हमारी क्रू मूव करती है. साइट पर जाकर आग बुझाती है और हमें सूचना देती है.”</p><p>मुख्य वन संरक्षक के दफ़्तर से जारी आंकड़ों के मुताबिक़, अब तक जले 3,427 हेक्टेयर वन क्षेत्र में लगभग 1,741 हेक्टेयर आरक्षित वन क्षेत्र हैं और लगभग 1,490 हेक्टेयर सामुदायिक वन क्षेत्र है.</p><p>जंगलों का इस तरह दहकना अक्सर प्राकृतिक होता है, लेकिन कई बार मानवीय भूल से भी आग लगती है.</p><p>पिथौरागढ़ के मुनस्यारी क़स्बे में रहने वाली पर्यावरण कार्यकर्ता मल्लिका विर्दी स्थानीय वन पंचायत की अध्यक्ष भी हैं.</p><p>वे कहती हैं, ”प्राकृतिक वजहों के अलावा अगर आप पड़ताल करें कि जंगलों में लोग क्यों आग लगाते हैं, तो दरअसल घास में से ख़रपतवार और गैरज़रूरी पौंधों को नष्ट करने के लिए भी लोग अपने जंगलों में आग लगाते हैं. उनका मानना है कि उसके बाद पैदा हुई घास जानवरों के लिए अच्छी होती है. कई बार यह आग फैलती हुई आसपास के जंगलों में भी चली जाती है और तबाही मचाती है.”</p><p>मल्लिका विर्दी कहती हैं कि मुनस्यारी क्षेत्र में आगजनी की घटनाएं नहीं हुई हैं क्योंकि यहाँ लोग अपने जंगलों से जुड़े हैं और उनके प्रति जागरूक हैं.</p><h1>स्थानीय समुदायों का साथ</h1><p>हिमालयी समाजों और पर्यावरण के अद्येता डॉ. शेखर पाठक लगातार बढ़ रही वनाग्नि की घटनाओं पर हो रही लापरवाही पर चिंता जताते हैं.</p><p>वो कहते हैं, ”हमने इस साल एक लंबी सूखी सर्दी झेली है. बर्फ़ बहुत कम गिरी और बरसात भी बेहद कम रही है. ऐसे में इस साल जंगलों में आग अप्रत्याशित नहीं थी. सवाल है कि इसके फ़ैलने को रोकने के लिए जो कोशिशें होनी चाहिए थी वो पर्याप्त नहीं हैं.”</p><p>डॉ. पाठक आगे कहते हैं, ”जनवरी-फरवरी में जंगलों में जो फ़ायर लाइन बनाई जानी चाहिए थी, चीड़ के पत्तों को उठाया जाना चाहिए था और दूसरी सावधानियां बरती जानी चाहिए, यह सब पर्याप्त मात्रा में नहीं किया गया और परिणाम सामने है.”</p><p>डॉ. पाठक कहते हैं कि आग रोकने के प्रयासों में वन विभाग को स्थानीय समुदायों को साथ लेना चाहिए, लेकिन विभाग स्थानीय लोगों को विश्वास में नहीं ले पाता.</p><p>हालांकि मुख्य वन संरक्षक बीपी गुप्ता कहते हैं विभाग ने स्थानीय समुदाय को भी साथ लेकर वनाग्नि को काबू करने की कोशिश की है.</p><p>उन्होंने बताया, ”हम लोगों ने फ़ायर सीज़न से पहले ही स्थानीय लोगों की ट्रेनिंग कराई थी और उनसे कहा था कि जंगल आपका है और आप ही आग लगाते हैं तो आप ही इसको बुझाओ भी. बहुत जगह हमें सहयोग मिलता है लेकिन बहुत जगह नहीं भी मिलता है.”</p><h1>पहाड़ के सामाजिक जीवन में बदलाव</h1><p>क्लाइमेट चेंज और आग से निपटने की तैयारियों में कमी के अलावा, साल दर साल बढ़ रहे इस दावानल के पीछे पहाड़ के सामाजिक जीवन में आया बदलाव भी अहम है.</p><p>नेचर फ़ोटोग्राफ़र विनीता यशस्वी का मानना है कि पलायन भी इसकी एक अहम वजह है. उन्होंने कहा, ”क्योंकि पहले ग्रामीण जीवन जंगलों पर सीधे तौर पर निर्भर था, इसलिए उसे जंगलों की परवाह थी. आग लगती थी तो गाँव वाले आगे बुझाने दौड़ पड़ते थे. लेकिन पलायन इतना ज्यादा हुआ है और पहाड़ के हज़ारों गाँव जनसंख्या शून्य हो गए हैं. ऐसे में जब जंगलों में आग लगती है तो ना उसे कोई देखने वाला होता है और ना ही उसे कोई बुझाने की सोचता है.”</p><p>जंगल की आग पर काबू पाने के लिए वन विभाग के अपने दावे हैं. साथ ही स्थानीय लोगों की अपनी कोशिशें भी.</p><p>मुख्यमंत्री ने भी पिछले दिनों वन विभाग के अधिकारियों और सभी ज़िलाधिकारियों के साथ एक वीडियो कॉंफ्रेंस कर बिगड़ रही स्थितियों का जायज़ा लिया था और ठोस क़दम उठाने के आदेश दिए थे.</p><p>लेकिन उधर पहाड़ हर शाम बादलों से घिरते आसमान को ताक रहे हैं. पर मॉनसून अभी दूर है.</p><p><strong>(बीबीसी हिन्दी के एंड्रॉएड ऐप के लिए </strong><a 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उत्तराखंड के जंगलों में किन वजहों से फैली आग?
<p>पहाड़ के ख़ूबसूरत रंगभरे नज़ारों को धुंध की एक दूधिया परत ने धुंधला दिया है.</p><p>सूखी गर्मी के बीच, अपनी पीठ पर आग के छल्लों का बोझ ढो रहे पहाड़, आसमान में उमड़ते-घुमड़ते बादलों की ओर, एक झमाझम बारिश की उम्मीद में ताक रहे हैं.</p><p>बादल कुछ देर तो घिरते हैं, मगर तेज़ हवाएं उन्हें दूर धकेल […]
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