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मंटो की अफसानानिगारी

आज अफसानानिगार सआदत हसन मंटो की सालगिरह है. मंटो ने ताउम्र, जो महज 42 साल ही थी, दुनियावी हकीकत को अल्फाज देने का जोखिम उठाया. एक बदनाम लेखक होकर जिये और अश्लीलता के मुकदमे ङोले. बार-बार कहते रहे, मैं जो देखता हूं, वही लिखता हूं. अपने होने को भी उन्होंने अपना हमजाद बन कर लिखा. […]

आज अफसानानिगार सआदत हसन मंटो की सालगिरह है. मंटो ने ताउम्र, जो महज 42 साल ही थी, दुनियावी हकीकत को अल्फाज देने का जोखिम उठाया. एक बदनाम लेखक होकर जिये और अश्लीलता के मुकदमे ङोले. बार-बार कहते रहे, मैं जो देखता हूं, वही लिखता हूं. अपने होने को भी उन्होंने अपना हमजाद बन कर लिखा. सआदत हसन मंटो की याद में उनके ही अल्फाज..

मंटो के मुताल्लिक अब तक बहुत कुछ लिखा और कहा जा चुका है, उसके हक में कम और खिलाफ ज्यादा. यह तहरीरें अगर पेशे-नजर रखी जाएं तो कोई साहबे-अक्ल मंटो के मुताल्लिक कोई सही राय कायम नहीं कर सकता. मैं यह मजमून लिखने बैठा हूं और समझता हूं कि मंटो के मुताल्लिक अपने ख्यालात का इजहार करना बड़ा कठिन काम है. लेकिन एक लिहाज से आसान भी है, इसलिए कि मंटो से मुङो सामीप्य का सौभाग्य हासिल रहा है. सच पूछिये तो मैं मंटो का हमजाद हूं.

अब तक उस शख्स के बारे में जो कुछ लिखा गया है, मुङो उस पर कोई एतराज नहीं, लेकिन मैं इतना समझता हूं कि जो कुछ उन मजामीन में पेश किया गया है, हकीकत से बालातर है. कुछ लोग उसे शैतान कहते हैं, कुछ गंजा फरिश्ता.. जरा ठहरिये, मैं देख लूं कहीं वह कमबख्त सुन तो नहीं रहा.. नहीं-नहीं, ठीक है, मुङो याद आ गया कि यह वह वक्त है जब वह पिया करता है.. उसको शाम छह बजे के बाद कड़वा शर्बत पीने की आदत है.

हम इकट्ठे ही पैदा हुए और ख्याल है कि इकट्ठे ही मरेंगे, लेकिन यह भी हो सकता है कि सआदत हसन मर जाये और मंटो न मरे, और हमेशा मुङो यह अंदेशा बहुत दुख देता है इसलिए कि मैंने उसके साथ अपनी दोस्ती निभाने में कोई कसर उठा नहीं रखी.. अगर वह जिंदा रहा और मैं मर गया तो ऐसा होगा कि अंडे का खोल तो सलामत है और अंदर की जर्दी और सफेदी गायब हो गयी है.

अब मैं ज्यादा भूमिका में जाना नहीं चाहता, आपसे साफ कह देता हूं कि मंटो-जैसा वन टू आदमी मैंने अपनी जिंदगी में कभी नहीं देखा, जिसे अगर जमा किया जाये तो वह तीन बन जाये.. मुसल्लस (तिकोने) के बारे में उसकी मालूमात काफी हैं. लेकिन मैं जानता हूं कि अभी उसकी तस्लीस (त्रयी) नहीं हुई है.. यह इशारे ऐसे हैं जो सिर्फ बाफहम श्रोतागण ही समझ सकते हैं.

यूं तो मंटो को मैं उसकी पैदाइश ही से जानता हूं.. हम दोनों इकट्ठे एक ही वक्त ग्यारह मई सन् 1912 ईसवी को पैदा हुए.. लेकिन उसने हमेशा यह कोशिश की है कि खुद को कछुआ बनाये रखे, जो एक दफा अपना सिर और गर्दन छुपा ले तो आप लाख ढूढ़ते रहें, उसका सुराग न मिले.. लेकिन मैं भी आखिर उसका हमजाद हूं, मैंने उसकी हर जुंबिश का मुताला कर ही लिया है.

लीजिए, अब मैं आपको बताता हूं कि यह खरजात अफसानानिगार कैसे बना.. तंकीदनिगार (समीक्षक) बड़े लंबे-चौड़े मजामीन लिखते हैं, अपनी विद्वता का सबूत दे देते हैं.. शोपेनहावर, फ्रायड, हीगल, नीत्शे, मार्क्‍स के हवाले देते हैं, मगर हकीकत से कोसों दूर रहते हैं.

मंटो की अफसानानिगारी दो परस्पर विरोधी स्वभाव वाले व्यक्तियों के विरोधाभास का नतीजा है.. उसके वालिद, खुदा उन्हें बख्शे, बड़े सख्तगीर थे और उसकी वालिदा बेहद नर्मदिल .. इन दो पाटों के अंदर पिस कर यह दाना-ए-गंदुम किस शक्ल में बाहर निकला होगा, इसका अंदाजा आप कर सकते हैं.

अब मैं उसकी स्कूल की जिंदगी की तरफ आता हूं.. बहुत जहीन लड़का था और बेहद शरीर. उस जमाने में उसका कद ज्यादा से ज्यादा साढ़े तीन फुट होगा. वह अपने बाप का आखिरी बच्च था. उसको अपने मां-बाप की मोहब्बत तो मयस्सर थी, लेकिन उसके तीन बड़े भाई जो उम्र में उससे बहुत बड़े थे और विलायत में तालीम पा रहे थे, उनसे उसको कभी मुलाकात का मौका नहीं मिला था, इसलिए कि वह उसके सौतेले भाई थे.. वह चाहता था कि वह उससे मिलें, उससे बड़े भाइयों जैसो सुलूक करें, लेकिन यह सुलूक उसे उस वक्त नसीब हुआ जब दुनिया-ए-अदब उसे बहुत बड़ा अफसानानिगार तस्लीम कर चुकी थी.

अच्छा अब उसकी अफसानानिगारी के मुताल्लिक सुनिये.. वह अव्वल दज्रे का फ्रॉड है.. पहला अफसाना उसने बउनवान ‘तमाशा’ लिखा जो जलियांवाले बाग के खूनी हादसे से मुताल्लिक था. यह अफसाना उसने अपने नाम से न छपवाया. यही वजह है कि वह पुलिस के हत्थे चढ़ने से बच गया.

इसके बाद उसके चंचल मिजाज में एक लहर पैदा हुई कि वह मजीद तालीम हासिल करे.. यहां इसका जिक्र दिलचस्पी से खाली नहीं होगा कि उसने इंट्रेस का इम्तिहान दो बार फेल होकर पास किया था, वह भी थर्ड डिवीजन में.. और आपको यह सुन कर हैरत होगी कि वह उर्दू के परचे में नाकाम रहा था.

अब लोग कहते हैं कि वह उर्दू का बहुत बड़ा अदीब है और मैं यह सुनकर हंसता हूं. इसलिए कि उूर्द अब भी उसे नहीं आती.. वह लफ्जों के पीछे यूं भागता है जैसे कोई जालीवाला शिकारी तितलियों के पीछे. वह उसके हाथ नहीं आतीं. यही वजह है कि उसकी तहरीरों में खूबसूरत अल्फाज की कमी है. वह लट्ठमार है, लेकिन जितने लट्ठ उसकी गर्दन पर पड़े हैं, उसने बड़ी खुशी से बर्दाश्त किये हैं.

उसकी लट्ठबाजी आम मुहावरे के मुताबिक जाटों की लट्ठबाजी नहीं है. वह बनोट और फकोत (लट्ठबाजी का एक पैंतरा)

है. वह एक ऐसा इंसान है जो साफ और सीधी सड़क पर नहीं चलता, बल्कि तने हुए रस्से पर चलता है. लोग समझते हैं कि अब गिरा, अब गिरा, लेकिन वह कमबख्त आज तक नहीं गिरा.. शायद गिर जाये औंधे मुंह कि फिर न उठे.. लेकिन मैं जानता हूं कि मरते वक्त वह लोगों से कहेगा..‘मैं इसलिए गिरा था कि गिरावट की मायूसी खत्म हो जाये.’

(‘दस्तावेज : मंटो’ पुस्तक के आलेख ‘मंटो’ का संपादित अंश साभार.)

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