<p>क़रीब 40 साल पहले कानपुर के अनाथालय से अमरीका पहुंची दो महिलाएं अपने असली मां-बाप की तलाश में कुछ दिनों पहले एक बार फिर भारत लौटीं.</p><p>स्टेफ़नी कृपा कूपर और रेबेका निर्मला पीकॉक की कहानी किसी फ़िल्म की स्क्रिप्ट से कम नहीं है.</p><p>क़रीब 40 साल पहले लावारिस हालत में मिली दो लड़कियों को कानपुर स्थित अनाथालय लाया गया और वो काफ़ी समय तक वहीं रहीं. बाद में दो अलग-अलग अमरीकी परिवारों ने उन्हें गोद लिया. स्टेफ़नी को साल 1975 में मेरिलिन बैकस्ट्रॉम नाम की एक अमरीकी महिला ने गोद लिया, जबकि रेबेका को साल 1976 में लियोनार्ड जेनसेन और जूडी जेनसेन नाम के अमरीकी दंपति ने गोद लिया. </p><p>स्टेफ़नी बताती हैं कि अमरीका ले जाने से पहले उन्हें क़रीब तीन महीने तक दिल्ली में किसी और महिला के पास रखा गया. </p><p><a href="http://www.bbc.co.uk/hindi/india-43100464">’गुजरात में अब वाकई बेटी बचाने की नौबत आ गई है'</a></p><p><a href="http://www.bbc.com/hindi/magazine-42857106">स्टालिन से इतनी नफ़रत क्यों करती थी उनकी बेटी?</a></p><h1>10 साल पहले दोनों अमरीका में मिलीं</h1><p>स्टे़फनी और रेबेका भारत से अमरीका गईं, लेकिन उनके नाम के साथ भारतीय शब्द जुड़े रहे. अमरीका में अपनी पहली मुलाक़ात के बारे में बताते हुए स्टेफ़नी भावुक हो जाती हैं. वो कहती हैं, ”मुझे बचपन से पता था कि मुझे गोद लिया गया है और मैं भारत से हूं. मैं अक्सर ऑनलाइन कम्युनिटी ग्रुप्स में उन भारतीयों से संपर्क करती रहती थी जिन्हें गोद लिया गया है और वो अमरीका में रहते हैं.”</p><p>”एक दिन मैंने रेबेका के बारे में जाना. मैं खुशी से पागल हो रही थी क्योंकि पहली बार ऐसा था कि मुझे कोई ऐसी लड़की मिली थी जो उसी शहर और उसी अनाथालय से थी जहां मैं पली थी.”</p><p>स्टेफ़नी बताती हैं, ”साल 2007 में मैंने रेबेका के बारे में जाना और उसे ईमेल लिखा. जवाब आया तो मैं काफ़ी खुश थी. हम मिले. बातें की. ऐसा लगा जैसे कोई अपना मिल गया है.”</p><p>अपने बारे में बताते हुए रेबेका कहती हैं, ”मैं हमेशा से जानती थी कि मुझे गोद लिया गया है क्योंकि मैं अपने माता-पिता के जैसी नहीं दिखती थी. उन्होंने ही मुझे सब सच बताया. तब से मेरे मन में ये बात थी कि मुझे अपने असली माता पिता को ढूंढना है.”</p><p>भारत आने के बारे में वो कहती हैं, ”मैं यहां अपनी जड़ें तलाशने, अपने परिवार को ढूंढने आई हूं जिनसे मेरा डीएनए जुड़ा है. मैं उन्हें ढूंढकर रहूंगी.” </p><p><a href="http://www.bbc.com/hindi/sport-42845816">पिता की रणनीति ने बेटी को दिलाया पहला ग्रैंड स्लैम</a></p><p><a href="http://www.bbc.com/hindi/india-42718575">वीरप्पन, जिसने बचने के लिए बेटी की बलि चढ़ा दी</a></p><h1>’लॉस्ट सारीज़’ की मुहिम</h1><p>रेबेका और स्टेफ़नी अमरीका में ‘लॉस्ट सारीज़’ नाम का एक एनजीओ चलाती हैं. इसके ज़रिए वो उन सभी भारतीय लोगों को वहां एकजुट करती हैं जिन्हें गोद लिया गया है. </p><p>वो कहती हैं, ”हम लोगों को बताना चाहते हैं कि हमें भले ही गोद लिया गया है, लेकिन हमारा दिल अब भी भारत की चाह रखता है. इसके अलावा हम उन तमाम लोगों की मदद करना चाहते हैं जो असली मां-बाप के न होने के चलते परेशान हैं.”</p><h1>अमरीका में परिवार</h1><p>स्टेफ़नी अमरीका में अपने पति निकोलस के साथ रहती हैं. वो पेशे से सोशल वर्कर हैं. उनकी एक बेटी और एक बेटा है. </p><p>वहीं, रेबेका के पति डेविड पीकॉक पेशे से वेब डिज़ाइनर हैं. उन्होंने पांच साल पहले बेंगलुरु के ‘आश्रय’ चिल्ड्रेन होम से ढाई साल की एक बच्ची को गोद लिया. अब उनकी बेटी त्रिशा साढ़े आठ साल की है.</p><p>दोनों महिलाएं घर-परिवार से अपने असली मां-बाप को खोजने फ़रवरी महीने में भारत आईं. अमरीका से दिल्ली आकर वो पहले लखनऊ गईं और फिर वहां से कानपुर गईं. दोनों कानपुर स्थित उस अनाथालय पहुंचीं जहां उन्हें पाला गया था और अपने मां-बाप को लेकर जानकारी जुटानी चाही, हालांकि उन्हें मायूसी ही मिली. </p><p>स्टेफ़नी ने कहा कि वो भारत में जिन लोगों से मिलीं वो बेहद ज़िंदादिल और खुशमिज़ाज थे. सबने उनका ख़्याल रखा, उन्हें सांत्वना दी और सहयोग का वादा भी किया. वो कहती हैं, ”मुझे महसूस होता है कि मैं भारतीय पहले हूं, अमरीकी बाद में.”</p><p><strong>’हार नहीं मान</strong><strong>नी</strong><strong>'</strong></p><p>स्टेफ़नी और रेबेका अपने असली मां-बाप को ढूंढने को लेकर कहती हैं, ”हम चाहते हैं वो हमें मिलें. हम उनसे पूछें कि उनकी क्या मजबूरियां थीं. उन्होंने ऐसा क्यों किया.”</p><p>क्या उन्होंने ये खोज शुरू करने में देर नहीं कर दी? इस सवाल के जवाब में स्टेफ़नी कहती हैं, ”हमने कोशिश शुरू की है. देर होने जैसा कुछ नहीं है. अगर हमें अपने असली माता-पिता नहीं मिलते तो कोई बात नहीं, लेकिन शायद इसी बहाने कोई और माता-पिता सामने आएं, जिन्होंने कभी ऐसे ही किसी को छोड़ दिया हो, वो अपनी कहानी साझा करना चाहें.”</p><p>बीते सप्ताह अमरीका वापस लौट चुकी रेबेका और स्टेफ़नी कहती हैं, ”जब तक हिम्मत है हम ये खोज जारी रखेंगी. हार नहीं माननी है.”</p><h1>पहली बार सामने आया ऐसा मामला</h1><p>इस बारे में कानपुर स्थित अनाथालय की इंचार्ज मारिया ने बीबीसी को बताया कि दोनों महिलाएं वहां अपने माता-पिता के बारे में जानकारी जुटाने आई थीं, हालांकि अनाथालय में उनसे जुड़ा कोई रिकॉर्ड अब तक उन्हें दिया नहीं गया. </p><p>उन्होंने कहा, ”हमने उनसे हलफ़नामा मांगा है और अडॉप्शन से जुड़े बाकी दस्तावेज़ दिखाने के लिए कहा है. जब तक हमें वो दस्तावेज़ नहीं मिलते तब तक कोई भी फ़ाइल खोलना हमारे लिए संभव नहीं है. इस बारे में कानपुर की मेयर ने उनकी मदद करने को कहा है.”</p><p>मारिया ने यह भी कहा कि उनके 20 साल के करियर में ये इस तरह का पहला मामला है जब कोई अपने असली माता-पिता की तलाश में अनाथालय पहुंचा हो. वो तीन साल पहले ही कानपुर स्थित अनाथालय आई हैं.</p><p><strong>(बीबीसी हिन्दी के एंड्रॉएड ऐप के लिए आप यहां </strong><a href="https://play.google.com/store/apps/details?id=uk.co.bbc.hindi">क्लिक</a><strong> कर सकते हैं. आप हमें </strong><a href="https://www.facebook.com/BBCnewsHindi">फ़ेसबुक</a><strong> और </strong><a href="https://twitter.com/BBCHindi">ट्विटर</a><strong> पर फ़ॉलो भी कर सकते हैं.)</strong></p>
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कानपुर की गलियों में क्यों भटक रही हैं दो अमरीकी महिलाएं
<p>क़रीब 40 साल पहले कानपुर के अनाथालय से अमरीका पहुंची दो महिलाएं अपने असली मां-बाप की तलाश में कुछ दिनों पहले एक बार फिर भारत लौटीं.</p><p>स्टेफ़नी कृपा कूपर और रेबेका निर्मला पीकॉक की कहानी किसी फ़िल्म की स्क्रिप्ट से कम नहीं है.</p><p>क़रीब 40 साल पहले लावारिस हालत में मिली दो लड़कियों को कानपुर स्थित अनाथालय […]
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