समाज, संस्कृति और इतिहास में रुचि रखनेवालों के लिए प्रमोद रंजन के संपादन में आयी पुस्तक ‘महिषासुर: मिथक और परंपराएं’ एक बेहद जरूरी पुस्तक है.
म हिषासुर आंदोलन से संबंधित अनेक प्रश्नों और पाठकों की उत्सुकताओं को केंद्र में रखनेवाली किताब ‘महिषासुर: मिथक और परंपराएं’ हाल ही में फाॅरवर्ड बुक्स एवं दि मार्जिनलाइज्ड पब्लिकेशन, दिल्ली से प्रकाशित हुई है. प्रमोद रंजन के संपादन में आयी यह किताब पुराणों के वाग्जाल में फंसी हुई असुरों की महान परंपरा और प्रतिरोध का जीवंत दस्तावेज है, जो इस सत्य को प्रमाणिक तरीके से प्रस्तुत करती है कि असुर, नाग, यक्ष, द्रविड़, आर्य आदि अनेक प्रजातियों वाले इस देश में कोई एक सांस्कृतिक परंपरा नहीं रही है.
समय के साथ आर्य-द्विज संस्कृति ने अपने को एक श्रेष्ठ सर्वमान्य वर्चस्वशाली संस्कृति के रूप में प्रस्तुत किया और अन्य संस्कृतियों को हेय ठहराने की कोशिश की. इस किताब के विभिन्न लेख वर्चस्वशाली संस्कृति के श्रेष्ठता के दावे का पर्दाफाश करते हैं.
यह पुस्तक छह खंडों में है. पहले खंड ‘यात्रा वृतांत’ में प्रमोद रंजन और अन्य लेखक ‘महोबा में महिषासुर’, ‘छोटानागपुर में असुर’ और ‘राजस्थान से कर्नाटक वाया महाराष्ट्र-तलाश महिषासुर की’ शीर्षक यात्रा वृत्तांतों में महिषासुर के पुरातात्विक साक्ष्यों और जन परंपरा में उनकी उपस्थिति की खोज करते हैं.
दूसरा ‘मिथक एवं परंपराएं’ में ‘गोंडी पुनेम दर्शन और महिषासुर’, ‘हमारा महिषासुर दिवस’, ‘दुर्गा सप्तशती का असुरपाठ’, ‘महिषासुर: एक पुनर्खोज’, ‘कर्नाटक की बौद्ध परंपरा और महिष’, ‘आदिवासी देवी चामुंडा और महिषासुर’, ‘बिहार में असुर परंपराएं’, ‘छक कर शराब पीते थे देवी-देवता’, ‘डॉ आंबेडकर और असुर’ शीर्षक से लेख हैं.
खंड चार में ‘असुर: संस्कृति व समकाल में असुरों का जीवनोत्सव’, ‘शापित असुर: शोषण का राजनीतिक अर्थशास्त्र’ व ‘कौन हैं वेदों के असुर?’ शीर्षक से रचनाएं हैं. पांचवां साहित्य पर केंद्रित है, इसमें जोतिराव फुले की प्रार्थना, संभाजी भगत का गीत, छज्जूलाल सिलाणा की रागिणी, कंवल भारती की कविताएं, रमणिका गुप्ता की कविताएं, विनोद कुमार की कविता और संजीव चंदन का नाटक ‘असुरप्रिया’ शामिल है.
परिशिष्ट में महिषासुर आंदोलन की झलकियों को जीवंतता के साथ प्रस्तुत किया गया है. समाज, संस्कृति और इतिहास में रुचि रखनेवालों के लिए यह एक बेहद जरूरी पुस्तक है. –
डॉ कर्मानंद आर्य-