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राज्यों के भरोसे पंचायत निकायों का सशक्तीकरण

।।राहुल सिंह।। 1992 में पंचायती राज व्यवस्था को लागू करने के लिए संविधान में 73वां संशोधन किया गया. 24 अप्रैल 1993 को इसे इसी वर्ष के एक जून से लागू करने की अधिकृत घोषणा की गयी. इस संशोधन के तहत अनुच्छेद 243 में पंचायत निकायों के संबंध में प्रावधान किये गये. भारत के संविधान के […]

।।राहुल सिंह।।

1992 में पंचायती राज व्यवस्था को लागू करने के लिए संविधान में 73वां संशोधन किया गया. 24 अप्रैल 1993 को इसे इसी वर्ष के एक जून से लागू करने की अधिकृत घोषणा की गयी. इस संशोधन के तहत अनुच्छेद 243 में पंचायत निकायों के संबंध में प्रावधान किये गये. भारत के संविधान के अनुच्छेद 243 छ के अनुसार, राज्यों द्वारा पंचायतों को ऐसी शक्तियां व प्राधिकार जैसे भी आवश्यक हो प्रदान किया जाना है, जिससे कि वे स्वशासन की संस्थाओं के तौर पर कार्य करने एवं ग्यारहवीं अनुसूची में सूचीबद्ध विषयों समेत आर्थिक विकास व सामाजिक न्याय की योजनाएं तैयार कर उन्हें क्रियान्वित करने में समर्थ बन सकें.

संवैधानिक ढांचे के अंतर्गत स्थानीय सरकार (स्थानीय निकाय) राज्य का विषय है और राज्य विधायिका अपने-अपने संदर्भ में उपयरुक्त कानून को पास करती है. ऐसे में केंद्र सरकार से अधिक महत्वपूर्ण जिम्मेवारी राज्य सरकार की है कि वह पंचायतों को सशक्त बनाये. जिन राज्यों ने पंचायतों को सशक्त बनाने की इच्छाशक्ति प्रदर्शित की, वहां उनकी स्थिति बेहतर है. वैसे राज्यों को विकास में उसका लाभ मिला. केरल, आंध्रप्रदेश, छत्तीसगढ़ जैसे राज्य इसके बेहतर उदाहरण हैं. पंचायत निकायों को सशक्त कर बिल्कुल निचले स्तर पर शासन तंत्र को सक्रिय किया जा सकता है, जिससे गांव, पंचायत के लोग सीधे तौर पर जुड़े होते हैं. जाहिर है इस तरह की कोशिशों का लाभ विकास में मिलता है.

पंचायती राज मंत्री वी किशोर चंद्रद्रेव ने एक बार संसद में अपने जवाब में कहा था : पंचायतें राज्य से संबंधित विषय हैं, पंचायती राज मंत्रालय के पास कर्मी, कोष व कार्य के हस्तांतरण के लिए राज्य व केंद्रशासित प्रदेशों में प्रोत्साहन देने के लिए पंचायत सशक्तीकरण एवं जवाबदेही प्रोत्साहन स्कीम (पीइएआइएस) नाम की एक योजना है. पंचायती राज मंत्रालय एक तरह से राज्य सरकारों के परामर्शदाता के रूप में ही कार्य करता है.

कमजोर पंचायती राज मंत्रालय से कैसे मजबूत होंगी पंचायतें

केंद्रीय पंचायती राज मंत्रालय खुद सशक्त मंत्रालय नहीं है. इसके अस्तित्व में आये बामुश्किल एक दशक हुआ है. इसकी कुल हैसियत केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय के सहायक मंत्रालय की ही है. केंद्र सरकार व ग्रामीण विकास मंत्रालय की भाव भंगिमा भी हमेशा यही अहसास कराती है कि केंद्रीय पंचायती राज मंत्रालय उसका सहायक मंत्रालय है. यह सच्चई भी है कि इसकी उत्पत्ति भी उसी मंत्रालय से हुई है.

पिछले साल एक मार्च 2013 को लोकसभा में सांसद हरिन पाठक व पी करुणाकरन ने केंद्रीय पंचायती राज मंत्री से एक लिखित सवाल पूछा था – पंचायती राज संस्थाओं के माध्यम से कार्यान्वित की जा रही केंद्र प्रायोजित योजनाओं का ब्यौरा क्या है और इस बारे में राज्यवार व संघ राज्य क्षेत्र वार क्या उपलब्धियां अजिर्त की गयी हैं? इस सवाल के जवाब में केंद्रीय मंत्री वी किशोर चंद्र देव ने कहा कि पंचायती राज संस्थाओं के द्वारा प्रत्यक्ष रूप से कार्यान्वित की जा रही कोई भी केंद्र प्रायोजित योजना पंचायती राज मंत्रालय में नहीं है. यह मंत्रालय गैर-बीआरजीएफ जिलों में क्षमता निर्माण एवं अवसंरचना विकास हेतु राष्ट्रीय ग्राम स्वराज योजना तथा पंचायती राज संस्थाओं की ई-सक्षमता के लिए ई-पंचायत का कार्यान्वयन राज्यों/संघ राज्य क्षेत्रों के माध्यम से करता है. मनरेगा जैसे महत्वाकांक्षी कार्यक्रम के तहत चलने वाली योजनाओं पर पंचायतों का नियंत्रण होता है, जो ग्रामीण विकास मंत्रालय के अधीन ही आता है. मनरेगा अधिनियम की धारा धारा 16 (1) में कहा गया है कि इस स्कीम के अंतर्गत ग्रामसभाओं व वार्ड सभाओं की सिफारिशों के अनुसार ग्राम पंचायत क्षेत्र में परियोजनाओं की पहचान एवं ऐसे कार्यो के निष्पादन व पर्यवेक्षण के लिए जवाबदेह ग्राम पंचायतें होती हैं. धारा 13 (1) के अनुसार, जिला, मध्यवर्ती एवं ग्राम स्तरों पर पंचायतें अधिनियम के अंतर्गत बनायी गयी स्कीमों के नियोजन व कार्यान्वयन के मुख्य प्राधिकारी होती हैं. लेकिन इससे इतर सरकार मानती है कि दूसरे कार्यक्रमों में भी पंचायतों की भागीदारी व उसके हस्तक्षेप को बढ़ाने की जरूरत है.

पंचायत चुनाव के पूर्व व बाद की परिस्थितियां

झारखंड में पंचायत चुनाव होना एक सामान्य व स्वाभाविक प्रक्रिया का परिणाम नहीं है. यहां पंचायत चुनाव एक लंबे संघर्ष के बाद ही हुआ. अलग-अलग संगठनों के लंबे संघर्ष के परिणामस्वरूप राज्य में पंचायत चुनाव हुआ. विकास भारती के अगुवा अशोक भगत, शिवशंकर उरांव, मनरेगा से जुड़े लोगों बलराम, गुरजीत सिंह आदि ने अलग-अलग मंच से लंबे समय तक पंचायत निकायों के गठन की वकालत की. कई संगठनों के प्रयास व केंद्र प्रायोजित योजनाओं को लागू करने में दिक्कतें आने के कारण अंतत: सरकार को पंचायत चुनाव कराना पड़ा.

पंचायत चुनाव होने के बाद भी झारखंड में पंचायत निकायों को अधिकार प्राप्त करने के लिए काफी संघर्ष करना पड़ा. पंचायत निकायों के अलग-अलग संगठनों व मंचों ने इसको लेकर काफी लंबा संघर्ष किया. केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय का काम संभालने के बाद से ही जयराम रमेश ने बार-बार झारखंड में पंचायत निकायों का चुनाव कराने की बात कही. उन्होंने राज्य में हर पंचायत में एक पंचायत विकास पदाधिकारी व एक कनीय अभियंता को तैनात करने की बात कही.

दो अक्तूबर 1959 की बात है. पंडित जवाहर लाल नेहरू राजस्थान के नागौर में पंचायती राज व्यवस्था का आधारशिला रख रहे थे. तब उन्होंने कहा था, हम इसके जरिये अपने देश में लोकतंत्र की आधारशिला रख रहे हैं. महात्मा गांधी भीदेश का विकास के लिए गांवों का विकास चाहते थे. बापू तो भारतीय संविधान को ग्रामीण समुदाय पर आधारित बनाने के पक्षधर थे. पंचायती राज संस्थाओं को लोकतांत्रिक सत्ता के विकेंद्रीकरण का आधार बनाना चाहते थे. पिछले छह दशकों में इन संस्थाओं के सशक्तीकरण के प्रयास भी हुए. पंचायतें सशक्त भी हुई. पंचायती राज संस्थाओं को सशक्त करने के लिए दर्जनों समितियां बनीं, आयोग, कार्यदल एवं अध्ययन दल बने. यह सब बहुत आसानी से नहीं हुआ, लेकिन इन सब के बावजूद पंचायती संस्थाओं का सशक्तीकरण पूरी तरह नहीं हो पाया है़ इसके लिए हमारी राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं प्रशासनिक व्यवस्थाएं जिम्मेवार हैं.

पंचायती राज के इतिहास और इसकी वर्तमान स्थिति को देश स्तर पर हम देखें, तो साफ-साफ दिखता है कि पंचायती राज संस्थाओं के कई स्तर, कई मॉडल हैं. इसकी वजह देश के अंदर कई सभ्यताओं एवं संस्कृतियों का पाया जाना है़ पंचायत उन सभ्यताओं एवं संस्कृतियों की पहचान है़ ये व्यवस्था निर्माण के आधार के साथ-साथ स्वावलंबन, आत्मनिर्भरता और स्वतंत्रता के प्रतीक रहे हैं. भारत की लगभग 70 प्रतिशत आबादी गांवों में रहती है. यह आबादी ग्रामसभा की सदस्य है. इसीलिए ग्रामसभा को देश के सबसे ताकतवर सदन का दर्जा दिया गया, लेकिन पंचायत की स्थापना जिस अवधारणा के साथ की गयी थी, उसे पूरी तरह से समावेशित नहीं किया जा सका है.

पंचायत राज स्थापना की अवधारणा

पंचायती राज संस्थाओं को स्थापित करने के बाद संविधान के 73 वें संशोधन के द्वारा उसे कानूनी रूप प्रदान किया गया़ इसकी स्थापना के पीछे यही अवधारणा थी कि स्थानीय स्तर पर लोगों की भागदारी सुनिश्चित होगी़ ग्रामीण जनता के सहयोग से स्थानीय स्तर पर योजनाओं का निर्माण होगा. ग्रामीण लोगों को जिम्मेदारी का अहसास कराया जायेगा. ग्रामीण विकास की तमाम योजनाओं से लोगों को लाभान्वित किया जायेगा. साथ ही शक्तियों का स्थानीय स्तर पर विकेंद्रीकरण होगा.

लेकिन इन अवधारणाओं को सफल बनाने में हमारा देश आज भी सफल नहीं हो पाया है़ द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग की छठी र्पिोट, जो स्थानीय शासन पर आधारित थी, में भी कहा गया है कि किसी भी समुदाय का समग्र विकास उच्च स्तरीय सरकारों द्वारा नहीं, बल्कि स्थानीय सरकारों द्वारा ही हो सकता है़ उल्लेखनीय है कि अमेरिका एवं यूरोपीय संघ में भी यह अवधारणा प्रचलित है कि जो कार्य स्थानीय समुदाय कर सकता है, वह कार्य उच्च स्तरीय शासन से संभव नहीं है.

पंचायत राज के सशक्तीकरण का प्रयास

भारत में 27 मई 2004 को स्वतंत्र रूप से पंचायती राज मंत्रालय की स्थापना की गयी. केंद्र सरकार ने 27 अप्रैल 2009 को सभी राज्यों को निदेशित कर मॉडल पंचायत एंड ग्राम स्वराज एक्ट में पंचायती राज के भविष्य की रूपरेखा निर्धारित की़ इस मॉडल में कुल 24 अध्याय के जरिये पंचायती राज संस्थाओं को सशक्तीकरण का प्रयास किया गया़

न्याय का निरंकुशता पर अंकुश

वर्ष 2009 में न्याय पंचायत विधेयक पास कर भी सशक्तीकरण का एक प्रयास किया गया़ इसके माध्यम से आज हजारों मुकदमों को स्थानीय स्तर पर ही सुलझाने में कामयाबी मिली है़ इससे जाति आधारित पंचायतों पर भी अंकुश लगा है़ खाप पंचायतों की संख्या में गिरावट आयी है़, जिससे परंपरागत निरंकुशता पर अंकुश लगा है़

योजनाओं से भी पंचायती राज संस्थानों को ताकत

सरकार द्वारा पंचायतों को सशक्त करने के लिए कई योजनाएं शुरू की गयीं. जैसे मनरेगा, एसजीएसवाइ, एनआरएलएम, इ-पंचायत योजना आदि़ इन योजनाओं के लागू होने से पंचायतों के अधिकार क्षेत्र में आने वाले संसाधनों का उचित दोहन होने लगा है़ सूचना का अधिकार से पंचायत की विकास यात्र का सफलता की ओर बढ़ रही है़ इससे समाज के पीड़ित, दमित, शोषित तथा कम साधन संपन्न लोग अपने हक की लड़ाई लड़ने में कामयाब हो रहे हैं.

राज्यों में पंचायती राज सशक्तीकरण के प्रयास

कई राज्य सरकारों ने भी पंचायत राज सशक्तीकरण की दिशा में प्रयास किया है. मध्यप्रदेश में जिला सरकार की अवधारणा को अपना कर जिला परिषद और जिला आयोजना समिति को सशक्त किया गया है़ राजस्थान, महाराष्ट्र, हिमाचल प्रदेश, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश तथा हरियाणा में दो से अधिक बच्चे वाले उम्मीदवार चुनाव नहीं लड़ सकते हैं. केरल, ओड़िशा, राजस्थान, कर्नाटक, झारखंड तथा बिहार आदि में ग्रामसभा का प्रावधान वार्ड स्तर पर कराने का है़

इससे निर्णय प्रक्रिया में विकेंद्रीकरण को बल मिला है़ गुजरात में ग्राम सेवक के लिए न्यूनतम योग्यता स्नातक रखी गयी है, जबकि केरल में पंचायत कर्मियों को लोक सेवा आयोग द्वारा चयनित किया जाता है़ केरल में 34 विभागों के कानूनों को परिवर्तित कर पंचायत राज सशक्त बनाया गया है़ इसके लिए शक्तियों का विकेंद्रीकरण अधिनियम 2000 पास किया गया है़

कर्नाटक में जिला पंचायत के मुख्य कार्यकारी अधिकारी को जिलाधिकारी से भी वरिष्ठता की स्थिति प्रदान की गयी है़ तालुका विकास अधिकारी भी एसडीएम स्तर का होता है़ कर्नाटक में 1987 से ही संपूर्ण विकास प्रशासन जिला पंचायत के अधीन कार्य करता है़

गुजरात में पंचायती राज के तीनों स्तर पर सामाजिक न्याय समिति कार्यरत है़ यहां राज्य स्तर पर भी एक पंचायत परिषद बनायी गयी है़ गुजरात में भू-राजस्व जमा करने का काम पंचायत ही करती है. इसके बदले उन्हें एक निश्चित हिस्सा प्रदान किया जाता है़ राजस्थान, महाराष्ट्र समेत कई राज्यों में जिला परिषदों को भी टैक्स लगाने तथा कर वसूलने का अधिकार दिया गया है़ पंचायती राज व्यवस्था के तहत निर्वाचित जन प्रतिनिधियों को बीच अवधि में वापस बुलाने का अधिकार मध्य प्रदेश में प्रदान किया गया है, ताकि उनकी अकर्मण्यता को रोका जा सक़े पंचायती राज संस्थाओं में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण दिया गया है़ कई राज्यों ने पंचायतों में 50 प्रतिशत सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित कर अच्छी पहल की है.

पंचायत राज की बाधाएं

तमाम सरकारी प्रयास के बावजूद पंचायती राज व्यवस्था के रास्ते सहज नहीं बन पाये हैं. इसकी वजहों की पड़ताल करें, तो कई बातें सामने आती हैं. जैसे : वर्तमान में भी जातीय पंचायतें कायम हैं, जो वैधानिक तरीकों से गठित पंचायती राज के समानांतर कार्य रही हैं. कई राज्यों में खाप पंचायत गहरी पैठ बनाती जा रही हैं. राज्य सरकारों की मनोवृत्ति पंचायती व्यवस्था के अनुकूल नहीं है. वे सत्ता का विकेंद्रीकरण के पक्ष में नहीं हैं. राज्य सरकारें पंचायतों को अधिकार देने में कोताही बरतती हैं. देश में पंचायती राज संस्थाओं की संख्या, कार्यप्रणाली तथा कार्य क्षेत्र में एकरूपता नहीं है. पंचायतों की नियमित बैठक नहीं होती है. ग्रामसभा की बैठक के नाम पर खानापूर्ति की जाती है. गांवों में भाई-भतीजावाद एवं सामान्य लोगों की निष्क्रियता अब भी कायम है. पंचायत व्यवस्था के बारे मे लागों में जानकारी का अभाव है. पंचायती राज व्यवस्था का राजनीतिकरण एक बड़ी बाधा है. पंचायती चुनाव में धनबल एवं बाहुबल का प्रयोग भी घातक है.

जनप्रतिनिधित्व को सामाजिक परंपरा एवं रीति रिवाज के आईने में देखा जाता है.

संभव है पंचायती राज की मजबूती

यूं तो 73 वें संविधान संशोधन के द्वारा पंचायती राज संस्थानों को स्थायित्व दिया गया है, लेकिन कई राज्यों में पंचायती राज की संरचनात्मक स्थापना नहीं हो पायी है़ इससे इनकी मजबूती का अभाव दिखता है, लेकिन संभावनाएं भी कम नहीं हैं. जैसे, केरल के पंचायती राज मॉडल ने अन्य राज्यों के लिए एक आदर्श प्रस्तुत किया है. इसी तरह कई राज्यों में पंचायती व्यवस्था के लिए किये गये कार्य अनुकरणीय रहे हैं. इन्हें दूसरे राज्यों में भी आजमाया जाना चाहिए. जातीय समीकरण को तोड़ते हुए एक मजबूत लोकतांत्रिक पंचायती राज व्यवस्था कायम किया जाये. उनके आवंटित कार्य एवं शक्तियों को उपयोग करने का अधिकार मिल़े सशक्तीकरण के लिए गठित समितियों एवं आयोग के सुझाव को अमल में लाने का प्रयास किया जाना चाहिए़ समानांतर सरकार की अवधारणा को समाप्त किया जाए़ तभी सुशासन, पारदर्शिता और ग्रामीण विकास की झलक देश के गांवों में दिखाई दे सकती है़ पंचायत के कार्य, शक्तियां और उत्तरदायित्व की ग्रामीणों को जानकारी मिले, इसके लिए जनजागरूकता की आवश्यकता है़

ग्रामसभा की बैठक नियमित रूप से की जाये. यदि किसी पंचायत में ग्रामसभा की नियमित बैठक नहीं होती है, तो कानूनी कार्रवाई हो. सामाजिक रीति-रिवाज एवं परंपरा से ऊपर उठ कर महिला एवं दलित वर्ग के जनप्रतिनिधियों के नेतृत्व को प्रोत्साहन मिले. पंचायतों को व्यापक दृष्टिकोण अपनाने की जरूरत है़ उन्हें ग्रामीण जीवन के समस्याओं, जैसे नशाबंदी, दहेज प्रथा, शिक्षा, पिछड़े तथा अनुसूचित जाति एवं जनजाति के विकास आदि संबंधी विषयों पर भी कार्य करने की जरूरत है़ सरकारों एवं राजनीतिक दलों को ऐसी राजनीतिक इच्छा का परिचय देना चाहिए, जिससे पंचायती राज व्यवस्था को संवैधानिक भावना के अनुरूप ढाला जा सक़े

पंचायती राज प्रणाली के द्वारा किये जा रहे कार्य में पारदशिर्ता लाने के लिए ई-प्रशासन मॉडल को अपनाया जाये. ग्रामीण समाज में भाई-चारा, एकता और सौहार्द को बढ़ावा देना चाहिए़ ग्रामसभा की सक्रियता को बढ़ायी जाये, क्योंकि ग्रामसभा की सक्रियता ही पंचायती राज की सफलता है, बुनियाद है़ विकास के प्रति सामूहिक उत्तरदायित्व की भावना को विकसित किया जाये, क्योंकि सामूहिक उत्तरदायित्व ही ग्रामीणों की ताकत है.

ई-पंचायत कार्यक्रम के जरिये विभिन्न नागरिक सुविधाओं को दहलीज पर ही उपलब्ध कराने के लिए चलाये जा रहे अभियान से ज्यादा से ज्यादा लोगों को जोड़ा जाय़े निष्कर्ष यह कि पंचायती राज की सशक्तीकरण की दिशा में किये गये प्रयास को बल मिला है़ पंचायती राज संस्थाओं के सशक्त होने से देश सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक रूप से सशक्त हुआ है़ महिला सशक्तीकरण को बल मिला है़ देश में विषमता की खाई कम होती नजर आ रही है़, लेकिन अभी भी पंचायती राज संस्थानों को सशक्तीकरण के लिए समाज में व्याप्त गंभीर सामाजिक और राजनीतिक बाधाओं, सामाजिक असमानता, जाति प्रणाली, सामंती ढांचा, निरक्षरता और असमान विकास को दूर करना होगा़, जिसके लिए नये दृष्टिकोण को अपनाने की जरूरत है़

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