परेश दावड्रा अपने दोस्त के गैराज में इंतज़ार कर रही नई हार्ले डेविडसन मोटरसाइकिल को लेकर रोमांचित हैं.
वो कहते हैं कि ये मिड-लाइफ़-क्राइसिस का संकेत नहीं है बल्कि उनकी पत्नी की ओर से तोहफ़ा है. उनकी शादी अगस्त में हुई है.
मोटरसाइकिल चलाने का लाइसेंस प्राप्त करने के लिए उन्हें बस एक और टेस्ट पास करना है और उसके बाद वो लंदन में अपनी व्यापारिक बैठकों के लिए इस मोटरसाइकिल से आ जा सकेंगे.
पिछले साल एक अरब डॉलर से अधिक का कारोबार करने वाली मनी एक्सचेंज फ़र्म रेशनल एफ़एक्स के मालिक और सह-संस्थापक जो जीवन जी रहे हैं वो उनके पिता और दादा के जीवन से बहुत अलग है.
अफ़्रीका से भागा परिवार
1972 में जब युगांडा के तानाशाह इदी अमीन ने एशियाई मूल के लोगों को देश छोड़ने के लिए सिर्फ़ 90 दिनों का समय दिया था तब वो अपनी जान बचाकर वहां से भागे थे.
आवाज़ में नरमी के साथ दावड्रा कहते हैं, "वो जब ब्रिटेन आए थे तब उनके पास सिर्फ़ 50 पाउंड थे. वहां मेरे दादा कि अपनी कपड़े सिलने की दुकान थी लेकिन उन्हें सबकुछ छोड़कर आना पड़ा था."
उनके पिता ने क्लर्क की नौकरी पा ली और बाद में वो एक फॉरेन एक्सचेंज ब्रोकर के यहां वित्तीय नियंत्रक बन गए. उनके परिवार ने उत्तरी लंदन के हैरो इलाक़े में मकान ले लिया.
मां-बेटे के झगड़े से निकला अनूठा बिज़नेस आइडिया
हर चीज़ पाने के लिए संघर्ष करने की भावना युवा दावड्रा को परिवार से विरासत में ही मिली. दावड्रा कहते हैं, "हमें कुछ भी मिलता नहीं था. अगर मुझे कुछ चाहिए होता था तो वह मुझे हासिल करना होता था."
बचपन में नौकरी
16 साल की उम्र के बाद से उन्होंने स्कूल की छुट्टियां मोबाइल फ़ोन की दुकान पर काम करते हुए या टेली कॉलर की नौकरी करते हुए बिताई. मिडिलसेक्स यूनिवर्सिटी में पढ़ाई के दौरान उन्होंने अपने पिता की फर्म में भी छोटे-छोटे काम किए.
उन्होंने यूनिवर्सिटी में मार्केटिंग और कंप्यूटर साइंस की पढ़ाई की लेकिन वो मानते हैं कि टेक्नोलॉजी प्राकृतिक रूप से उनका हिस्सा नहीं बनी पाई थी.
वो हंसते हुए कहते हैं, "अगर आप मेरी टीम को बताएंगे कि मेरे पास ये डिग्री है तो कोई आप पर यक़ीन नहीं करेगा. मुझे आज भी लैपटॉप भी प्रिंटर से जोड़ना होता है तो मैं आईटी टीम की मदद लेता हूं."
2003 में डिग्री हासिल करने के तुरंत बाद दावड्रा अपने पिता की कंपनी में फॉरेन एक्सचेंज डीलर बन गए. वो ग्राहकों को बड़ी तादाद में विदेशी मुद्रा ख़रीदने और बेचने में मदद करते थे.
छोड़ दी नौकरी
उन्होंने नौकरी में एक साल ही पूरा किया था. वो अपने पिता के दोस्त और भारतीय मूल के राजेश अग्रवाल के साथ काम कर रहे थे. राजेश अग्रवाल 2001 में ही ब्रिटेन आए थे. लेकिन दो कारणों की वजह से उन्होंने नौकरी छोड़ दी.
"मैंने अपने पिता के साथ मिलकर एक घर ख़रीदना चाहा लेकिन बैंक ने क़र्ज़ लेने के आवेदन ख़ारिज कर दिया. मुझे इससे झटका लगा."
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ठीक उसी समय राजेश अग्रवाल ने उनके आईटी मैनेजर के पद से इस्तीफ़ा दे दिया. दावड्रा कहते हैं, "जब उन्होंने नौकरी छोड़ने का फ़ैसला लिया तो मैंने उनसे बार-बार पूछा कि वो ऐसा क्यों कर रहे हैं."
दोनों कॉफी पीने के लिए मिले और तुरंत तय कर लिया कि वो साथ में अपनी कंपनी खोलेंगे. उस समय उनका आइडिया था विदेश में संपत्ति ख़रीदने वाले ग्राहकों की पैसे की ज़रूरत को पूरा करना.
दावड्रा कहते हैं, "हम पुरानी कंपनी में जो कुछ भी कर रहे थे वो सब हाथों से किया जाता था. हमें लगे का ऐसी ही सेवाएं ऑनलाइन दे सकते हैं. "
हालांकि दोनों के सामने काम शुरू करने के लिए पैसों की गंभीर समस्या थी. दावड्रा को कॉलेज से निकले एक साल ही हुआ था और बीएमडब्ल्यू कार ख़रीदने के लिए वो पर्सनल लोन ले चुके थे.
क़र्ज़ से शुरू किया कारोबार
अग्रवाल जब अपने बिज़नेस प्लान के साथ बैंक में 10 हज़ार पाउंड का क़र्ज़ मांगने पहुंचे तो उन्हें तुरंत ना कर दिया गया. लेकिन वो कुछ दिन बाद फिर गए और इस बार कार ख़रीदने के लिए बीस हज़ार पाउंड का क़र्ज़ मांगा. इस बार बैंक राज़ी हो गया.
37 वर्षीय दावड्रा कहते हैं, "मैंने अपनी बीएमडब्ल्यू कार बेची दी और हमारा काम शुरू हो गया." किराया बचाने के लिए दावड्रा अग्रवाल के साथ ही रहने लगे थे.
32 हज़ार पाउंड के निवेश के साथ दोनों ने साल 2005 में अपनी फॉरेन एक्सचेंज ब्रॉक्रेज फ़र्म रेशनल एफ़एक्स शुरू कर दी.
हर स्टार्टअप की तरह ही उनके सामने भी शुरू में ग्राहक मिलने की समस्या थी.
दावड्रा याद करते हैं, "हम रियल एस्टेट क्षेत्र में काम कर रहे एजेंटों को फ़ोन किया करते थे. प्रॉपर्ट्री इंडस्ट्री से जुड़े हर इवेंट में हम पहुंचा करते थे. हम सुबह 8 बजे दफ़्तर पहुंच जाते थे और देर शाम तक भी वहीं होते थे."
उनकी कंपनी को बड़ा ब्रेक तब मिला जब दुबई में संपत्तियां बेच रहे रियल एस्टेट एजेंटों के साथ उन्होंने क़रार किया.
आर्थिक मंदी की मार
हालांकि कंपनी शुरू करने के दो साल बाद ही दुनिया में आर्थिक संकट आ गया था. दावड्रा याद करते हैं कि किस तरह उस मंदी का उनके युवा मन पर असर हुआ था.
"मैं उस समय 27 साल का था और हमारा काम बहुत अच्छा चल रहा था. मैं अमीर होने के रास्ते पर चल रहा था. उस समय मैं यही सोचता था."
"मैं उस समय बिज़नेस स्थापित करने के बारे में नहीं सोच रहा था. ये सोच समय और परिपक्वता के साथ आती है. लेकिन आर्थिक संकट मेरे अंदर ये परिपक्वता ले आया. वो अच्छी सीख था."
आर्थिक मंदी का असर रेशनल एफ़एक्स पर भी हुआ था. उसकी तरक्क़ी की रफ़्तार मंद हो गई थी. लेकिन कंपनी ने उस तूफ़ान का सामना कर लिया और आगे चलकर और विस्तृत हो गई.
आज कंपनी के ग्राहकों में अमीर लोग भी शामिल हैं जो संपत्तियां ख़रीदना या बड़ा निवेश करना चाहते हैं. कार या टेक्सटाइल निर्यात करने वाली मध्य आकार के व्यवसायी भी उनके ग्राहक हैं.
साल 2016 में कंपनी की आय 1.3 अरब पाउंड थी जो 2015 में 1.1 अरब पाउंड पहुंच गई. दावड्रा कहते हैं कि कंपनी ने अपने व्यापारों में भारी निवेश किया जिसकी वजह से कर पूर्व लाभ 23 लाख पाउंड रहा.
रेशनल एफ़एक्स की कामयाबी के बाद कंपनी के संस्थापकों को एक और शाखा शुरू करने का विचार आया. विदेशों से घर छोटी-छोटी रक़म भेजने वाले लोगों के लिए एक ऑनलाइन प्लेटफार्म शुरू करना.
एक और कंपनी की शुरुआत
दावड्रा कहते हैं, "हमें महसूस हुआ कि रेशनल एफ़एक्स से अच्छी कमाई हो रही है, लेकिन हमें समाज को कुछ वापस देना चाहिए. नई कंपनी ज़ेंडपे (xendpay) से हम उन लोगों के लिए घर पैसे भेजने का ख़र्च कम करना चाहते हैं जो अपने परिवारों को ग़रीबी से बाहर निकालने के लिए संघर्ष कर रहे हैं."
जेंडपे ग्राहकों से अपनी पसंद से कमिशन देने के लिए कहती है. हालांकि ये सेवा ग्राहकों को कुल रक़म का 0.3-0.4 प्रतिशत तक कमीशन के तौर पर देने का सुझाव देती है.
दावड्रा कहते हैं कि 70 प्रतिशत से अधिक ग्राहक सुझाया गया कमिशन चुका देते हैं. दस प्रतिशत इससे अधिक देते हैं और बाक़ी कुछ भी नहीं देते हैं.
अभी इस नए प्लेटफॉर्म से उन्हें कोई कमाई नहीं होती है लेकिन दावड्रा को उम्मीद है कि अगले साल तक ये नई कंपनी अपने ख़र्चे निकालने लगेगी.
वो कहते हैं, "ये एक जुए जैसा है लेकिन हम ये ख़तरा उठाना चाहते थे."
पिछले साल लंदन के बिज़नेस के लिए डिप्टी मेयर बनाए जाने के बाद राजेश अग्रवाल ने कंपनी में अपना पद छोड़ दिया. हालांकि वो अभी भी कंपनी के 70 प्रतिशत शेयर के मालिक हैं और ग़ैर कार्यकारी निदेशक भी हैं. दावड्रा के पास बची हुई हिस्सेदारी है.
दावड्रा कहते हैं कि उन्हें राजेश अग्रवाल की कमी महसूस होती है.
"व्यापार के साथ-साथ पिछले 12 सालों में हमने बेहद क़रीबी रिश्ता भी बनाया है. वो मेरे बहुत क़रीबी दोस्त हैं."
अभी नहीं बेचेंगे अपनी कंपनी
फ़िलहाल उनका कंपनी को बेचने का कोई इरादा नहीं है. ये अलग बात है कि दिन में कम से कम दो बार निजी इक्विटी फ़र्म उनसे कंपनी ख़रीदने की इच्छा ज़ाहिर करती हैं.
लंदन के कैनेरी वार्फ़ से चलने वाली रेशनल एफ़एक्स और जेंडपे में 110 कर्मचारी काम करते हैं.
महंगी कारों और मोटरसाइकिलों के शौक़ीन होने के बावजूद अभी भी हैरो इलाक़े में रहने वाले दावड्रा के पैर ज़मीन पर ही हैं.
"मुझे लगता है कि हम काफ़ी विनम्र हैं. हम श्रमिक वर्ग के लोग हैं और सामान्य काम ही करते हैं. हम इसी तरह से बड़े हुए हैं."
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