भारत की आज़ादी के बाद सरकार का ज़ोर हिंदी को राजभाषा के रूप में स्थापित करने पर था. और इसके लिए पहल की थी बिहार सरकार ने.
बिहार सरकार के राजभाषा विभाग ने इस दिशा में जो काम शुरू किया था, उसमें कार्यालयों के नाम, अधिकारियों के पदनाम और नेमप्लेट की सूची हिंदी में तैयार करनी थी.
इसके लिए लगभग हर कार्यालय के अधिकारियों की सूची तैयार की गई और तय किया गया कि किसे हिंदी में किस नाम से पुकारा जाएगा. डिस्ट्रिक्ट मैजिस्ट्रेट हिंदी में ज़िला दंडाधिकारी बना तो सेक्रिटेरियट को सचिवालय का नाम दिया गया.
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हिंदी नाम समझ नहीं पा रहे थे डाकिए
राजभाषा विभाग के उपनिदेशक पद से रिटायर होने वाले पंडित गोविंद झा 1950 के दशक में इस काम में शामिल रहे हैं. तब उन्होंने शब्दकोष सहायक के रूप में काम करना शुरू किया था.
झा बताते हैं, ”सूची तैयार करने के लिए हिंदी के जानकारों की एक समिति बनी और इसके द्वारा तैयार शब्दावली को स्वीकार करने के बाद ये पदनाम वगैरह प्रयोग में लाए जाने लगे.”
लेकिन इस्तेमाल शुरू होने के बाद कुछ मुश्किलें भी आने लगीं. नए शब्द तो बना दिए गए थे, लेकिन लोग इन्हें समझ नहीं पा रहे थे. यह समस्या डाकियों के सामने भी आई. उन्हें हिंदी में पते और सरकारी अधिकारियों के पदनाम लिखी चिट्ठियां पहुंचाने में परेशानी होने लगी.
उदाहरण के लिए डिस्ट्रिक्ट मैजिस्ट्रेट को डाकिए समझते थे, मगर ज़िला दंडाधिकारी वे समझ नहीं पा रहे थे. नतीजा यह हुआ कि कई बार ख़त डाकघर वापस लौटने लगे.
हिंदी नामों के लिए छपी ख़ास पुस्तिका
यह समस्या क़रीब छह महीने तक बनी रही. तब डाकियों से हुई बातचीत को गोविंद कुछ इस तरह याद करते हैं, ”डाकिए बताते थे कि हम लोग पूछकर, अंदाज़ा लगाकर ख़त पहुंचा देते हैं. जो समझ में नहीं आता, उसे वापस डाकघऱ लेकर चले जाते हैं.”
यह समस्या पोस्ट मास्टर जनरल तक पहुंची तो उन्होंने बिहार सरकार को लिखा कि आप इस समस्या का समाधान कैसे करेंगे.
जो समाधान निकाला गया, उसके बारे में गोविंद ने बताया, ”राजभाषा विभाग ने पदों, पदाधिकारियों और कार्यालयों की एक सूची तैयार की, जिसमें हिंदी और अंग्रेज़ी में पदों के नाम आमने-सामने लिखे थे. इसे गुलजारबाग स्थित सरकारी प्रेस ने एक पुस्तिका के रूप में छापा. इसके बाद इसे डाक विभाग समेत दूसरे सरकारी विभागों को भेजा गया. इससे समस्या कम होनी शुरू हो गई.”
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अख़बारों की भी रही भूमिका
इस परेशानी को दूर करने में पत्रकारों की भी बड़ी भूमिका रही. गोविंद बताते हैं, "हम ज्यों-ज्यों शब्द बनाते गए, वे अखबारों में उन्हें इस्तेमाल कर लोगों को उनसे परिचित कराते गए. उस समय के सबसे लोकप्रिय अख़बार आर्यावर्त की इसमें सबसे अहम भूमिका रही थी."
गोविंद बताते हैं कि अख़बार वालों ने न सिर्फ़ नए शब्दों को चलन में लाने में अहम भूमिका निभाई, बल्कि ख़ुद भी कुछ नए शब्द गढ़े. जैसे कि सरकार ने डिस्ट्रिक्ट मैजिस्ट्रेट को हिंदी में जिला दंडाधिकारी बनाया था मगर अख़बारों ने इसे सरल करते हुए ‘ज़िलाधिकारी’ शब्द को इस्तेमाल करके चलन मे लाया.
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