।। अनुज कुमार सिन्हा।।
आज सांसद बनने के लिए राजनेता-उनके दल करोड़ों रुपये भले खर्च कर रहे हों, हर हाल में सांसद बनना चाह रहे हैं, पर एक जमाना वह भी था, जब कम से कम पैसे खर्च कर लोग संसद में पहुंच जाते थे. पहले और दूसरे लोकसभा (यानी 1952 और 1957) चुनाव के कुछ सांसदों से कुछ साल पहले मिलने का मौका मिला था. इनमें एक सांसद थे शंभू चरण गोडसराय. 1957 में सिंहभूम लोक सभा क्षेत्र से झारखंड पार्टी के टिकट पर चुनाव जीते थे. झारखंड बनने के कुछ समय बाद तक वे जीवित थे. उनसे पैतृक गांव में जाकर मिला था. उस समय गोडसराय ने कहा था कि जयपाल सिंह ने उन्हें टिकट दिया था और सिंहभूम सीट पर सिदिया हेंब्रम को 50 हजार मतों से हरा कर उन्होंने चुनाव जीता था. पूरे क्षेत्र में झारखंड पार्टी की लहर थी.
उन दिनों गोडसराय युवा थे. उसके पहले वे टाटा कंपनी में नौकरी करते थे. गोडसराय ने कहा-जब मैं संसद में पहुंचा तो गोल-गोल भवन देख कर चकरा गया. पहली बार दिल्ली गया था. संसद के अंदर एक से एक दिग्गज थे. नेहरू (जवाहरलाल नेहरू) को भी करीब से देखा था. उन्हें लगातार सुनता भी था. अधिकांश लोग अंगरेजी में बात करते थे. अंगरेजी का बोलबाला था. समझ में नहीं आ रहा था. परेशान हो गया. दो-तीन दिन तक किसी तरह बरदाश्त किया. फिर जयपाल से कह दिया-मुङो कहां फंसा दिया है आपने. यहां कुछ समझ में नहीं आ रहा है. इससे बेहतर तो टाटा कंपनी की नौकरी थी. मैं फिर वही नौकरी करने जा रहा हूं. मुङो सांसद नहीं रहना है. मैं चला अपने इलाके में. गोडसराय ने आगे कहा : मेरी बात सुन कर जयपाल सिंह चिंतित नहीं हुए. हमारे नेता थे. समझाया और कहा कि बहस ध्यान से सुनो और खूब पढ़ो. सब कुछ समझ में आने लगेगा. थोड़ा वक्त लग सकता है. जयपाल सिंह की राय के बाद गोडसराय ने पूरा ध्यान पढ़ने में लगाया. फिर जयपाल सिंह ने कहा कि भाषण भी देना सीखो. उसके बाद उन्होंने भाषण भी देना सीख लिया. अपने कार्यकाल में उन्होंने कोल्हान के कई मुद्दों को भी उठाया था. उनका मन लग चुका था.
जब मैं उनसे मिला था, शंभू चरण (अब दिवंगत) बहुत बुजुर्ग हो चुके थे. उन्होंने बताया था कि द्वितीय महायुद्ध में जब केएमपीएम स्कूल बंद हो गया था. जयपाल सिंह ने ही उनका नामांकन चाईबासा जिला स्कूल में कराया था. उसके बाद संत कोलंबा, हजारीबाग से उन्होंने आगे की पढ़ाई की थी. बाद में जयपाल सिंह ने उन्हें बुलाया और चुनाव लड़ने को कहा था. उनके आदेश को गोडसराय ने माना था.
बड़े सीधे व सरल थे उन दिनों के दक्षिण बिहार (अब का झारखंड) के सांसद. बताया था कि 400 रुपये वेतन मिलते थे. 21 रुपये भत्ता मिलता था. उनके पास कोई गाड़ी नहीं थी. सांसद बनने के बाद भी उनके पास कोई गाड़ी नहीं थी. कोई बॉडी गार्ड नहीं था. प्रचलन भी नहीं था. ईमानदारी थी. खुश रहता था. अपने जीवन का अंतिम दिन उन्होंने मुसाबनी से आगे पारूलिया गांव के सागरटोला में व्यतीत किया था.