भारतीयों को चुनाव पसंद हैं और मेरी तरह जिसने भी वहां की भीड़ और शोर-शराबे से भरी चुनावी रैलियां देखी है, वह इस बात की गवाही देगा. इस बार का चुनाव कई सालों में सर्वाधिक दिलचस्प चुनाव है, क्योंकि ब्रिटेन के 1979 के चुनाव की तरह गरीबों की हमदर्द होने का दावा करने वाली सत्तारूढ़ कांग्रेस और उद्योगों का अपेक्षाकृत अधिक समर्थक होने का थैचरनुमा चेहरा पेश करती भाजपा में से भारत को किसी एक को चुनना है.
मनमोहन सरकार के आलोचक कहते हैं कि इस सरकार ने विकास की जगह धन के पुनर्वितरण को प्राथमिकता दी है. चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों में गरीबों को मदद करने से लेकर महंगाई रोकने जैसे मुद्दों पर भाजपा की क्षमता को मिल रहे समर्थन से लगता है कि मनमोहन सरकार की नीतियां असफल हुई हैं.
शेयर बाजार ने मई में व्यापार-समर्थक सरकार की उम्मीद में अपना पक्ष स्पष्ट कर दिया है. बाजार का सूचकांक 22,000 से ऊपर है. इंडोनेशिया की तरह भारतीय स्टॉक बाजार में पिछले कुछ महीने से सकारात्मक निवेश हो रहा है, जबकि थाइलैंड और जापान जैसे एशिया के अन्य बाजारों में ऐसा नहीं हो रहा है. आगामी कुछ हफ्ते में सेंसेक्स चुनावी सर्वेक्षणों से प्रभावित होगा. विदेशी निवेशक इस उम्मीद में धन लगा रहे हैं कि इस चुनाव से मोदी के गुजरात की तरह देश आर्थिक विकास और बुनियादी निवेश की ओर अग्रसर होगा. इस तरह मोदी पर बहुत कुछ दांव पर लगा है.
टॉम स्टीवेंसन के लेख का संपादित अंश.