उत्तर प्रदेश सरकार ने मौजूदा बजट में किसानों की कर्ज़माफ़ी के लिए 36 हज़ार करोड़ रुपये का प्रावधान किया और बताया कि इस धनराशि का इंतज़ाम सरकारी ख़र्चों में कटौती और अपव्यय को कम करके किया जाएगा.
वहीं शिक्षा के मद में पिछले बजट की तुलना में नब्बे फ़ीसद तक कटौती करके ये सवाल भी खड़ा कर दिया है कि क्या शिक्षा पर ख़र्च करना ही सबसे बड़ी फ़िज़ूलख़र्ची है?
योगी सरकार ने 2017-18 के बजट में माध्यमिक शिक्षा के लिए 576 करोड़ रुपये और उच्च शिक्षा के लिए 272 करोड़ रुपये निर्धारित किए हैं जबकि प्राथमिक शिक्षा के लिए क़रीब 22 हज़ार करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है.
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पिछले साल यानी वित्त वर्ष 2016-17 के बजट को देखा जाए तो उसमें माध्यमिक शिक्षा के लिए साढ़े नौ हज़ार करोड़ रुपये और उच्च शिक्षा के लिए 2742 करोड़ रुपये निर्धारित किए गए थे.
यानी दोनों ही क्षेत्रों के लिए बजट में नब्बे फ़ीसद तक की कमी कर दी गई है. ये अलग बात है कि प्राथमिक शिक्षा के लिए पिछले साल की तुलना में बजट में 5,867 करोड़ रुपये की बढ़ोत्तरी की गई है.
नहीं मानते कि बजट में कटौती हुई
हालांकि यदि कुल बजट की बात की जाए तो ये पिछले साल के मुक़ाबले दस फ़ीसद ज़्यादा है लेकिन शिक्षा के मद में इतनी बड़ी कटौती क्यों है, ये समझ से परे है.
राज्य के उप मुख्यमंत्री डॉक्टर दिनेश शर्मा शिक्षा मंत्री भी हैं और उनके पास उच्च, माध्यमिक और प्राथमिक तीनों ही विभाग हैं. डॉक्टर दिनेश शर्मा ये नहीं मानते कि बजट में कटौती की गई है.
बीबीसी से ख़ास बातचीत में वो कहते हैं, "कोई कटौती नहीं की गई है, सिर्फ़ अपव्यय को रोका गया है. अभी तक बजट का एक बड़ा हिस्सा इंफ्रास्ट्रक्चर और दूसरी ऐसी जगहों पर ख़र्च होता था जिनकी ज़रूरत नहीं थी, लेकिन अब शिक्षा की गुणवत्ता और शिक्षकों पर ख़र्च होगा. बड़ी बड़ी इमारतें बना देने से क्या होगा यदि वहां शिक्षक ही नहीं होंगे?"
शिक्षा को निजी हाथों में देने की मंशा
जानकारों का कहना है कि शिक्षा के लिए जितने रुपये इस बजट में निर्धारित किए गए हैं, उतने से तो शायद अध्यापकों के वेतन भी पूरे नहीं होंगे.
लखनऊ विश्वविद्यालय की पूर्व कुलपति और शिक्षाविद प्रोफ़ेसर रूपरेखा वर्मा सीधे तौर पर कहती हैं कि इसके ज़रिए सरकार माध्यमिक और उच्च शिक्षा को निजी हाथों में पूरी तरह सौंप देना चाहती है.
प्रोफ़ेसर रूपरेखा वर्मा कहती हैं, "पांच सौ करोड़ और दो सौ-तीन सौ करोड़ रुपये शिक्षा पर ख़र्च करना तो किसी भी तरह से समझ में ही नहीं आता. इससे कई गुना ज़्यादा तो तीर्थ स्थलों के विकास के लिए आवंटित कर दिया गया है. साफ़ है कि प्राथमिक स्कूलों के निजीकरण के बाद अब सरकार माध्यमिक और उच्च शिक्षा का भी पूर्णतया निजीकरण कर देना चाहती है. जिनके पास पैसा होगा वो पढ़ेंगे, जिनके पास नहीं होगा, नहीं पढ़ेंगे."
जानकारों का कहना है कि इतनी कम धनराशि में तो इन विभागों का सामान्य ख़र्च चल जाए, वही बड़ी बात है, शोध और सेमिनारों की बात तो दूर की कौड़ी है.
अपव्यय रोकने की बात
हालांकि डॉक्टर दिनेश शर्मा कहते हैं कि शोध के लिए, गुणवत्ता के लिए कोई कटौती नहीं की गई है, सिर्फ़ अपव्यय रोका गया है. लेकिन 272 करोड़ और 576 करोड़ रुपये में कितना शोध हो सकेगा और कितनी गुणवत्ता बनी रहेगी, समझ से परे है.
लेकिन सवाल उठता है कि इतनी बड़ी कटौती कैसे की गई है, वो भी तब जबकि माध्यमिक और उच्च शिक्षा में कर्मचारियों की ही एक बड़ी संख्या है. क्या सरकार सच में शिक्षा पर व्यय को फ़िज़ूलख़र्ची मानती है?
पैसा कहां से आए
वरिष्ठ पत्रकार योगेश मिश्र कहते हैं, "बीजेपी सरकार के एजेंडे में वैसे तो शिक्षा का मुद्दा सबसे ऊपर रहता है लेकिन किसानों की कर्ज़माफ़ी का इतना बड़ा ‘हाथी पालने’ जैसा उसने जो वादा कर लिया और दबाव में घोषणा भी करनी पड़ी, उसके लिए पैसा कहां से आए, ये बड़ी समस्या है. उन्हें लगता है कि सबसे ज़्यादा फ़िज़ूलख़र्ची शिक्षा पर ही हो रही है, सो सारी कटौती यहीं कर दी. उन्हें पता नहीं है कि इसकी प्रतिक्रिया कितनी बड़ी होगी और ये क़दम कितना आत्मघाती होगा?"
बहरहाल, सरकार आश्वस्त है कि बजट में जितनी धनराशि का निर्धारण किया गया है, वो शिक्षा विभाग के लिए पर्याप्त है और वो फ़िज़ूलख़र्ची रोककर सब ठीक कर लेगी. लेकिन सवाल उठता है कि क्या अब तक इतनी बड़ी धनराशि सिर्फ़ अपव्यय के लिए निर्धारित की जाती थी या फिर नई सरकार शिक्षा पर ख़र्च को अपव्यय समझती है?
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