।। श्रीश चौधरी।।
‘नेता चरित्रहीन है, सिद्धांतहीन है, अवसरवादी है’ आदि-आदि. कहते हुए हम नहीं थकते हैं. परंतु उन्हें ऐसा बनने पर हमने मजबूर किया है. हमने दल बदलने वालों को, संधि एवं संगठन बदलने, तोड़ने वाले को, संदिग्ध चरित्र वालों को अवसरवादियों आदि को इसीलिए वोट दिया है कि या तो वे हमारी जाति के हैं, या उन्होंने मेरा कोई व्यक्तिगत उपकार किया है, या करने का आश्वासन दिया है, आदि-आदि. संस्कृत में कहा है ‘यथा प्रजा तथा राजा’. अंगरेजी में भी कहा है, आपको वैसी ही सरकार मिलती है जैसी आपकी योग्यता है (You get the government you deserve). देश की जो आज स्थिति है – अराजकता, अनेक अंचलों में सरकार की अनुपस्थिति, आतंकवाद, भ्रष्टाचार,आदि की जड़ में हमारा ही अनुचित निर्णय है जो हमने जानबूझ कर किया है. परंतु प्रजातंत्र में इस भूल को सुधारने का, एवं सही निर्णय को दुहराने का मौका मिलता रहता है. यही मौका एक बार फिर हमारे सामने है.
सबसे पहले हमें अपने नेता का चरित्र और व्यक्तित्व देखना चाहिए. मनुष्य मात्र में इतिहास में किसी भी युग, किसी भी देश में यदि किसी राजा-सेनापति-व्यापारी-नेता-ऋषि-महात्मा ने कुछ भी किया है तो उनमें और कुछ रहा हो या नहीं, चरित्र एवं व्यक्तित्व के धनी वे अवश्य थे. यह बात भगवान राम से लेकर महात्मा गांधी तक, एवं दलाई लामा से लेकर बराक ओबामा तक समान रूप से लागू होती है. वे शिक्षित रहे हों – डॉ विधान चंद राय की तरह, या अशिक्षित रहे हों, कामराज या अकबर की तरह, लंबा रहा हो खान अब्दुल गफ्फार खान की तरह, या छोटे कद का रहा हो लाल बहादुर शास्त्री की तरह, मजहरुल हक जैसा मुसलमान हो या डॉ राजेंद्र प्रसाद जैसा हिंदू इत्यादि. ऐसा नहीं है कि ऐसे लोग अब नहीं होते हैं, ईश्वर ने अच्छे लोग बनाने बंद नहीं किये हैं.
हमें उन्हें ढूंढ़ना एवं उनका समर्थन करना चाहिए, और यदि ऐसा कोई उम्मीदवार आपके क्षेत्र में नहीं है तो आप ‘इनमें से कोई नहीं’ पर वोट दें. क्योंकि जब सारे ‘नागनाथ’ या ‘सांपनाथ’ हो तो आप किसे चुनेंगे? आवश्यकता ‘विश्वनाथ’ की है, जो स्वयं से पहले औरों के लिए सोचें. पार्टियों में फर्क नहीं रह गया है, कहने को भी नहीं. सिर्फ उनके झंडे एवं चुनाव चिह्न् भिन्न रह गये हैं. जिस सुगमता से हर पार्टी दूसरी पार्टी के नेता को स्वीकार कर लेती है, वह तो अमेरिका की शादी और तलाक से अधिक सिद्धांतहीन है. आश्चर्य की बात यह है कि जो कल तक एक-दूसरे को गालियां दे रहे ते आज कैसे गले मिल रहे हैं एवं जो कल तक गले मिल रहे ते वे कैसे एक-दूसरे को गालियां दे रहे हैं. दोनों ही स्थितियों का एक ही उत्तर है – वे सत्ता के लोभ में साथ थे, आज भी सत्ता के लिए ही साथी हैं. ये तो आपके वोट के हकदार बिल्कुल ही नहीं हैं. कम्युनिस्टों ने बंगाल, त्रिपुरा एवं केरल का क्या हाल किया है, यह तो हम देख ही रहे हैं. बीजेपी एक-दो नहीं कई कदम आगे है, सत्ता के अंध खोज में जो पतन इसका हुआ है, और यह जितनी तेजी से हुआ है उसे स्वीकार करना दुखद है. ये देश तो क्या, किसी के भी प्रति वफादार नहीं रहे. 1971 में बांग्लादेश बनने के बाद अटल बिहारी वाजपेयी जी ने लहेरियासराय के पोलो मैदान की एक सार्वजनिक सभा में कहा था कि एक दिन के लिए भी उनकी सरकार बनी, तो पाकिस्तान के आतंकवादी ठिकानों को वे समाप्त कर देंगे. वे छह वर्षो तक इस अभागे देश के प्रधानमंत्री रहे और जिस तरह आतंकवाद के सामने उन्होंने घुटने टेके, वैसा न तो पहले हुआ था और ईश्वर न करे दुबारा फिर हो. कैद आतंकी सरगना को हवाई जहाज में बैठा कर उन्हीं के मंत्री ले गये और बंधक भारतीय यात्रियों को छुड़ा कर काबुल से लाये.
मान लेते हैं राजनीतिक मजबूरियां थीं, जैसा अमेरिका के राष्ट्रपति केनेडी ने कहा था, राष्ट्रपति-भवन से दृश्य कुछ भिन्न होता है. जिस तरह से कल्याण सिंह जी को हटाया गया और उमा भारती जी को निकाला गया वैसी ओछी राजनीति तो इंदिरा गांधी के भी कांग्रेस में नहीं होती थी. जितने सिनेमा, क्रिकेट, सरकस, तमाशेवालों को बीजेपी लायी उतनी शायद ही कोई और पार्टी लायी हो. इस दल के पास समर्थकों एवं कार्यकर्ताओं का मजबूत संगठन था. परंतु जैसा अपमान इस दल ने अपने कार्यकर्ताओं का किया है, वैसा किसी और ने नहीं. बिना उनकी राय के उनके सर पर जिसे चाहा दिल्ली से भेज दिया. यह वही पार्टी कदापि नहीं है जो सिद्धांतों के नाम पर वोट मांगती थी, वाजपेयी जी अपनी सभा में स्थानीय उम्मीदवार का नाम और चेहरा भाषण के अंत में ही दिखाते थे. परंतु आज यहां ‘प्रधानमंत्री’ का चुनाव पहले हो जाता है. शेष चुनाव बाद में होगा. सिद्धांत बाद में ढूंढ़े जायेंगे. यह अमेरिका के ‘राष्ट्रपति’ के चुनाव से अधिक व्यक्तिपरक, व्ययसाध्य एवं प्रचार-केंद्रित हो गया है. जो कपरूरी ठाकुर नेहरू जी का विरोध ङोल गये थे, वे आज प्राय: राहुल जी का भी नहीं ङोल बाते. इनसे तो कम्युनिस्ट ही अच्छे हैं, कम से कम अपने कार्यकर्ता की इज्जत करते हैं. राजनीति में ऐसी ओछी अवसरवादिता को बढ़ावा देने के लिए हम मतदाता ही जिम्मेवार हैं.
कम्युनिस्ट भी सत्ता के लोभ में कुछ ऐसे ही फंसे. नहीं तो वे कम से कम जाति के आधार पर आरक्षण को अपना समर्थन नहीं देते. उनका सिद्धांत साम्यवाद समाज को वर्ग के रूप में देखता है, जाति के रूप में नहीं. उनका तो विश्वास है कि मनुष्य मात्र में सिर्फ दो जातियां हैं – धनी एवं गरीब, या शोषक एवं शोषित. पंरतु इन्होंने भी जिस-तिस के साथ जैसे भी सीटें मिली समझौते किये और अपने सिद्धांतों को सुविधानुसार भूलते-भुलाते रहे.
कांग्रेस की दशा या महादशा, औरंगजेब के बाद वाली मुगल फौज की है. इसे चलानेवाला ही कोई नहीं है. सोनिया गांधी तथा राहुल गांधी शक्तिशाली नेता हैं, परंतु भारत के ठोस धरातल से उनका परिचय सीमित प्रतीत होता है. यद्यपि भारत की आधुनिक राजनीति में यही दो नेता ऐसे हैं, जिन्हें पद का प्रस्ताव दिया गया है एवं जिन्होंने उसे जिस किसी भी कारण से हो अस्वीकार किया है. परंतु ये सीमित दृष्टिवाले मुगल बादशाहों की तरह अपने निर्णयों-नीतियों के लिए अपने सूबेदारों के परामर्श पर निर्भर करते हैं और इनके सूबेदार इन्हें वही ‘सत्य’ दिखाते हैं, जो स्वयं इन सूबेदारों के संकीर्ण स्वार्थ की रक्षा करता है, पार्टी का भले ही जो भी हो. नहीं तो कांग्रेस के पास युवा एवं अनुभवी, शिक्षित एवं ताकतवर नेताओं की आज भी कमी नहीं है. ज्योतिरादित्य सिंधिया हार्वर्ड के स्नातक हैं, ऐसे ही सचिन पायलट हैं और भी अनेक हैं. क्या ये नहीं समझते हैं कि आज के भारत का ग्रामीण व शहरी गरीब आपसे पांच किलो महीना चावल की भीख नहीं मांग रहा है. वह अपने तथा अपने बच्चों के लिए शिक्षा, चिकित्सा तथा रोजगार के नये एवं प्रभावी अवसर मांग रहा है. योग्यता का जितना अच्छा संकलन एवं चरित्र-व्यक्तित्व का जैसा अकाल आज के कांग्रेस में है, उसके समान ऐसा पहले कौरव दरबार में ही था. रथ है, महारथी भी है, बस धर्म मात्र नहीं है. आज की कांग्रेस ऐसे नेताओं से अटी पड़ी है, जो दिन-रात अपने राजा को यह विश्वास दिलाने में लगे हुए हैं. उसका नया वस्त्र कितना सुंदर एवं भव्य है, जबकि वहां भव्य तो दूर वस्त्र ही नहीं है. राहुल जी से कहीं अच्छे सलाहकार तो राजीव जी के साथ थे.