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बगैर बछड़े के नहीं बचेगा देहात

ऊर्जा विशेषज्ञ मानते हैं कि हमारे देश में गोबर के जरिये 2000 मेगावाट ऊर्जा उत्पन्न की जा सकती है. भारत में मवेशियों की संख्या कोई तीस करोड़ है. इनसे लगभग 30 लाख टन गोबर हर रोज मिलता है. इसमें से तीस प्रतिशत को कंडा/उपला बना कर जला दिया जाता है. यह ग्रामीण ऊर्जा की कुल जरूरत का 10 फीसदी भी नहीं है.

पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के एक चित्र की काफी प्रशंसा हुई, जिसमें वे देशी नस्ल की गायों को चारा खिला रहे हैं. उस चित्र में सफेद गायों के साथ काले रंग का एक बैल भी था. बहुत अहम संदेश छुपा है इस चित्र में– गाय के साथ बैल भी महत्वपूर्ण है धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक सशक्तीकरण के लिए. उत्तर प्रदेश, जहां अर्थव्यवस्था का मूल आधार खेती है, के 2019 के बजट में एक अजब प्रावधान था- ऐसी सरकारी योजना लागू की जा रही है कि गाय के बछड़े पैदा हो ही नहीं, बस बछिया ही हो. इसके पीछे कारण बताया गया है कि इससे आवारा पशुओं की समस्या से निजात मिलेगी. भारत में एक पुरानी योजना है, जिसके तहत गाय का गर्भाधान ऐसे सीरम से करवाया जाता है, जिससे केवल मादा ही पैदा हो. लेकिन इसे ज्यादा सफलता नहीं मिली है क्योंकि यह देशी गाय पर कारगर नहीं है. महज संकर गाय ही इस प्रयोग से गाभिन हो रही हैं. एक ही लिंग के जानवर पैदा करने की योजना बनाने वालों को प्रकृति का संतुलन बिगाड़ने और बीटी कॉटन बीजों की असफलता को भी याद कर लेना चाहिए.

तीन दशक पहले तक गांव में बछड़ा होना शुभ माना जाता था. घर के दरवाजे पर बंधी सुंदर बैल की जोड़ी ही किसान की संपन्नता का प्रमाण होती थी. एक महीने का बछड़ा भी हजार रुपये में बिक जाता था, जबकि बछिया को दान करना पड़ता था. फिर खेती के मशीनीकरण का प्रपंच चला. आबादी के लिहाज से खाद्यान्न की कमी, पहले की तुलना में ज्यादा भंडारण की सुविधा, विपणन के कई विकल्प होने के बावजूद किसान के लिए खेती का घाटे का सौदा बन जाना और उसकी लागत बढ़ना जैसे दुष्परिणाम सामने हैं. इस समय उत्तर प्रदेश में आवारा गौवंश आफत बना हुआ है. इन आवारा पशुओं में अधिकांश गाय ही हैं. असल में हम यह मानने को तैयार नहीं हैं कि हमने गौवंश का निरादर कर एक तो अपनी खेती की लागत बढ़ायी, दूसरा घर के दरवाजे बंधे लक्ष्मी-कुबेर को कूड़ा खाने को छोड़ दिया.

यह एक भ्रम है कि भारत की गायें कम दूध देती हैं. बरेली के पशु चिकित्सा अनुसंधान संस्थान में चार किस्म की भारतीय गायों- सिंघी, थारपारकर, वृंदावनी, साहीवाल पर शोध कर सिद्ध कर दिया है कि इन नस्लों की गायें न केवल हर दिन 22 से 35 लीटर दूध देती हैं, बल्कि ये संकर या विदेशी गायों से अधिक काल तक यानी आठ से 10 साल तक दूध देती हैं. करनाल के एनडीआरआई के वैज्ञानिकों की एक ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण ज्यादा तपने वाले भारत जैसे देशों में अमेरिकी नस्ल की गायें न तो ज्यादा जी पायेंगी और न ही ज्यादा दूध दे पायेंगी. चमड़े की मोटाई के चलते देशी गायों में ज्यादा गर्मी सहने, कम भोजन व रखरखाव में भी जीने की क्षमता है. कुछ ही सालों में हमें इन्हीं देशी गायों की शरण में जाना होगा, लेकिन तब तक हम पूरी तरह विदेशी सीमेन पर निर्भर होंगे.

पूरे देश में एक हेक्टेयर से कम जोत वाले किसानों की तादाद 61.1 फीसदी है. देश में 1950-51 में सकल घरेलू उत्पादन में कृषि का योगदान 53.1 फीसदी हुआ करता था. आर्थिक समीक्षा के अनुसार अब यह 13.9 फीसदी है. नेशनल सैंपल सर्वे की रिपोर्ट के अनुसार, देश के 40 फीसदी किसानों का कहना है कि वे केवल इसलिए खेती कर रहे हैं क्योंकि उनके पास कोई दूसरा विकल्प नहीं है. जब एक हेक्टेयर से कम रकबे के अधिकतर किसान हैं, तो उन्हें ट्रैक्टर, बिजली से चलने वाले पंप या गहरे ट्यूब वेल की क्या जरूरत थी? उनकी थोड़ी सी फसल के परिवहन के लिए वाहन की जरूरत क्या थी? ट्रैक्टर ने किसान को उधार में डुबोया, बिजली के पंप ने किसान को पानी की बर्बादी की और लागत बढ़ाया. कंपोस्ट की जगह नकली खाद की फिराक में किसान बर्बाद हुआ. खेत मजदूर का रोजगार छिना, तो वह शहरों की और दौड़ा.

ऊर्जा विशेषज्ञ मानते हैं कि हमारे देश में गोबर के जरिये 2000 मेगावाट ऊर्जा उत्पन्न की जा सकती है. भारत में मवेशियों की संख्या कोई तीस करोड़ है. इनसे लगभग 30 लाख टन गोबर हर रोज मिलता है. इसमें से तीस प्रतिशत को कंडा/उपला बना कर जला दिया जाता है. यह ग्रामीण ऊर्जा की कुल जरूरत का 10 फीसदी भी नहीं है. ब्रिटेन में गोबर गैस से हर साल सोलह लाख यूनिट बिजली का उत्पादन होता है. चीन में डेढ़ करोड़ परिवारों को घरेलू ऊर्जा के लिए गोबर गैस की आपूर्ति होती है. यदि गोबर का सही इस्तेमाल हो, तो हर साल छह करोड़ टन के लगभग लकड़ी और साढ़े तीन करोड़ टन कोयला बच सकता है. बैल को बेकार कहने वालों के लिए ये आंकड़े विचारणीय है.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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