सिलीगुड़ी: जीएनएलएफ सुप्रीमो सुभाष घीसिंग लाल कोठी के मसनद पर आसीन तो हो गये, लेकिन पहाड़ की जनता के हालात में अपेक्षित सुधार नहीं आया. गरीब व अमीर की खाई पहले की तरह की कायम रही. यह जरूर हुआ कि आंदोलन के साथ जो लोग सक्रिय रूप से जुड़े थे उन्हें ठेका के रूप में सौगात मिली. लेकिन आमजन या पहाड़ की ढांचागत स्थिति में कोई बुनियादी बदलाव नहीं आया.
एक तरफ घीसिंग राज्य सरकार पर अनुदान देने में कंजूसी का आरोप लगाते रहे, वहीं राज्य सरकार उन पर आवंटित राशि का दुरुपयोग करने का आक्षेप लगाती रही. हालांकि इस दुरुपयोग की कभी आधिकारिक जांच नहीं कराई गई जिसके चलते सुभाष घीसिंग सरकारी कोष के साथ मनमानी करते रहे. उन्हीं के कार्यकाल में सर्वशिक्षा मिशन के 5.5 करोड़ रुपयों की हेराफेरी का आरोप लगा था, जिसकी जांच नहीं कराई गई. उस राशि का आज तक पता नहीं चला.
बुनियादी मुद्दों से जनता का ध्यान बंटाने के लिये घीसिंग तरह तरह के मुद्दे तलाशने लगे. 1992 में उन्होंने सार्वजनिक रूप से घोषणा की कि दार्जिलिंग जिले का पूरा पर्वतीय क्षेत्र और डुआर्स ‘नोमेंस लैंड’ है. कहने का अर्थ कि इस क्षेत्र की वैधानिकता पर ही उन्होंने सवाल उठाये. दरअसल, यह मुद्दा उन्होंने उत्तर बंगाल के इतिहास से उठाया था जिसमें ब्रिटिशकाल में कूचबिहार, भूटान और सिक्किम के शासकों ने इस क्षेत्र को नोमेंस लैंड बताया था. हालांकि सुभाष घीसिंग द्वारा इसे नोमेंस लैंड कहने का आशय क्या था? इसे लेकर तरह-तरह की राजनैतिक अटकलबाजी लगनी शुरू हो गई थी. दरअसल, घीसिंग इस तरह के मसले उठाकर राज्य व केंद्र सरकार पर दबाव बनाना चाहते थे, ताकि वे अपनी सत्ता के लिए और अधिक अधिकार हासिल कर सकें. तब तक उनकी पहाड़ में जनप्रियता कम होने लगी थी. वे काउंसिल के चुनाव का सामना करने के लिए तैयार नहीं थे. इसी तरह का शिगूफा छोड़कर वे डीजीएचसी के कार्यकाल को बढ़ाना चाहते थे. इस तरह से उनका कार्यकाल छह-छह माह बढ़ता चला गया.
जीटीए का घीसिंग ने किया था विरोध
उल्लेखनीय है कि जब 2011 में जीटीए को लेकर त्रिपक्षीय समझौता हुआ उसके बाद सुभाष घीसिंग ने इस पर अपनी आपत्ति दर्ज कराई थी यह कहते हुए कि जीटीए असंवैधानिक है. उन्होंने तर्क दिया कि जब तक गोरखा हिल काउंसिल का समझौता अदालत से रद नहीं होता तब तक दूसरा कोई समझौता उसकी जगह नहीं ले सकता है. काफी समय तक इसको लेकर उन्होंने अपनी मुहिम जीटीए के खिलाफ चलाई. दरअसल, इसी मुद्दे पर घीसिंग का अपने सहयोगी रह चुके विमल गुरुंग से, जोकि गोजमुमो के अध्यक्ष बनने के बाद जीटीए के प्रथम कार्यकारी अधिकारी चुने गये थे, विरोध शुरु हो गया. उसके बाद का हश्र पहले बताया जा चुका है और जो हम सभी के सामने प्रत्यक्ष भी घट चुका है.
कहने का मतलब, पहाड़ में एक सूर्य का अस्त हो चुका था और दूसरे सूर्य यानी विमल गुरुंग का उदय हो चुका था. लेकिन विमल गुरुंग का राजनैतिक क्षितिज पर उदय भी अचानक नहीं हुआ. इसके लिये उन्हें और उनके गोरखा जनमुक्ति मोरर्चा यानी गोजमुमो को एक लंबा संघर्ष तत्कालीन वाम मोर्चा सरकार से करना पड़ा था. अगली कड़ी में उसी पर चर्चा होगी.
धर्मगुरु की मानिंद फतवा किया जारी
इस बीच सुभाष घीसिंग को एक विचार सूझा. उन्होंने एलान किया कि गोरखा एक जनजातीय समूह है जिसकी अपनी अलग सांस्कृतिक व धार्मिक पहचान है जो उसे पारंपरिक हिंदू धर्म से अलग करती है. उन्होंने एक धर्मगुरु की मानिंद फतवा जारी किया कि पहाड़ के लोग अब से किसी मूर्ति की पूजा नहीं करेंगे. वे लोग अब चट्टानों से निकले हुए पत्थरों के साथ पेड़ पौधों के अलावा कुत्तों और बंदरों की पूजा करेंगे. दरअसल, घीसिंग येन-केन-प्रकारेण किसी तरह गोरखा समुदाय को भारत की आदिम जनजाति साबित करना चाहते थे. उनकी असली मंशा भी सामने आ गई.
छठी अनुसूची के लिए थी सारी कवायद
इतिहासकार शिव चटर्जी के अनुसार घीसिंग का मानना था कि जिस तरह से मेघालय, मिजोराम, मणिपुर और त्रिपुरा को संविधान की छठी अनुसूची के आधार पर राज्य का दर्जा मिला था उसी तरह दार्जिलिंग के पार्वत्य क्षेत्र को भी राज्य का दर्जा मिल सकता है. इसी रणनीति के तहत उन्होंने यह नई मुहिम छेड़ी. गोरखा समुदाय स्वभाव से अनुशासनप्रिय और उच्च पदों पर आसीन लोगों के प्रति विशेष सम्मान का भाव रखते हैं. सत्ता से मिलकर सुभाष घीसिंग का रुतबा एक धर्मगुरु का हो गया और पहाड़ की जनता ने इस फतवा को सर आंखों पर लिया. पहाड़ पर मूर्ति पूजा पर रोक लग गई और लोग पत्थरों, पेड़ों, बंदरों और कुत्तों की पूजा करने लगे. शिव चटर्जी बताते हैं कि यह दर्शन विरोधाभासी है. चूंकि गोरखा समुदाय में जाति व्यवस्था भी है जिसके तहत ब्राह्मण (बाहुन) और क्षत्रिय (छेत्री) जाति के लोग हैं. इनके अलावा अन्य जनजातीय समूह जैसे राई, लिम्बू, मंगर आदि भी हिंदू देवी-देवताओं की पूजा करते हैं. लेकिन अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए घीसिंग ने पहाड़ के लोगों की धर्म दृष्टि ही बदलनी चाही. सिलीगुड़ी संलग्न इलाकों जैसे सेवक और सुकना आदि में कुछ लोगों ने जब इस फतवा का विरोध किया तो उनकी पिटाई भी की गई. आखिर में घीसिंग अपना राजनीतिक लक्ष्य हासिल करने में सफल हुए. उन्होंने केंद्र व राज्य सरकार को इस बात के लिये राजी किया कि गोरखा एक जनजातीय समूह है जिनकी अपनी जीवन शैली और रहन-सहन है. उसी के आधार पर छठी अनुसूची की ओर बढ़ते हुए डीजीएचसी की जगह स्वायत्तशासी गोरखा हिल काउंसिल के गठन पर सहमति बनी.
2005 में स्वायत्तशासी काउंसिल पर बनी सहमति
7 दिसंबर 2005 को नई दिल्ली में त्रिपक्षीय वार्ता के जरिये गोरखा हिल काउंसिल पर सहमति बनी. उस वार्ता में मौजूद रहे तत्कालीन मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य, केंद्रीय गृह मंत्री शिवराज पाटिल और डीजीएचसी के प्रशासक सुभाष घीसिंग के अलावा केंद्रीय गृह सचिव, राज्य के मुख्य सचिव और गृह सचिव. नए समझौते के तहत हिल काउंसिल के क्षेत्राधिकार में शामिल मौजा की तादाद 16 हो गई. इसमें लोहागढ़ चाय बागान, लोहागढ़ फॉरेस्ट, रंगमोहन, बड़ाचेंगा, पानीघाटा, पान्तापानी फॉरेस्ट, सिटोंग फॉरेस्ट, चंपासारी, फॉरेस्ट, महानदी फॉरेस्ट,सालबाड़ीहाट फॉरेस्ट, सुकना प्रथम खंड, सुकना फॉरेस्ट, पहारु और छोटो अदलपुर. समझौते का मकसद बताया गया, पार्वत्य क्षेत्र के लोगों की आर्थिक, भाषाई, शैक्षणिक आकांक्षाओं को पूरा करना, भूमि अधिकारों को सुनिश्चित करना, गोरखा लोगों के सामाजिक-सांस्कृतिक-जनजातीय पहचान को कायम रखना, बुनियादी ढांचे में सुधार. इस तरह से सुभाष घीसिंग अपने लक्ष्य की ओर एक कदम और आगे बढ़े. हालांकि यह बहस का विषय हो सकता है कि इस व्यवस्था में गोरखा जाति का कहां तक कल्याण निहित होता.