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कन्फर्म टिकट नहीं चाहिए

सुरेश कुमार सैनी भारतीय रेल के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ है कि यात्री आरक्षण क्लर्क से अनुरोध कर रहे हैं- “ भइया, जरा गौर से देख लेना, प्रतीक्षा सूची में ही टिकट चाहिए. कन्फर्म मत दे देना”. रेल गदगद है. ऐसे चाहनेवाले पहले कभी नहीं मिले. पहले आरक्षित टिकट पाने के लिए लोग […]

सुरेश कुमार सैनी

भारतीय रेल के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ है कि यात्री आरक्षण क्लर्क से अनुरोध कर रहे हैं- “ भइया, जरा गौर से देख लेना, प्रतीक्षा सूची में ही टिकट चाहिए. कन्फर्म मत दे देना”. रेल गदगद है. ऐसे चाहनेवाले पहले कभी नहीं मिले. पहले आरक्षित टिकट पाने के लिए लोग घंटों कतार में खड़े रहते थे. मज़ाल है कोई कतार में बीच में घुस जाये. मारपीट हो जाती थी. बात-बहस तो बहुत आम थी. तत्काल टिकट पानेवालों की भी यही हालत थी.

लोग रेल के अफसरों से मित्रता बढ़ाते थे कि उनका प्रतीक्षा सूची का टिकट ‘वीआइपी कोटे’ में डलवा कर कन्फर्म करवा दें. आरक्षण दलाल व्यथित हैं. उन्हें कोई पूछ नहीं रहा है. मन मार कर अपनी भूमिका व सेवाएं बदल ली हैं. वे अब कह रहे हैं, “भइया प्रतीक्षा सूचीवाला टिकट चाहिए क्या?” और पूरी पार्टी का टिकट निकाल दें, पूरे बारातियों के नाम दे दो जो अगले महीने में शादी में जाने वाले हैं, जो नहीं जा रहे हैं उनके भी नाम दे दो. क्‍या फर्क पड़ता है, बाद में निरस्त करा लेंगे. बड़े-बड़े व्यापारियों व उद्योगपतियों ने अपने कारिंदे दौड़ा दिये. ये जन हनुमान आदेश पाते ही दौड़ पड़े.

फर्क इतना है कि हनुमान संजीवनी के चक्कर में पूरा पहाड़ ही उठा लाये थे. ये जन हनुमान नोटों का पहाड़ ले जा रहे हैं और बदले में 10-12 टिकट लेकर आ रहे हैं. बाजारों में बैठे वाणिज्यिक प्रतिष्ठानों के मालिक स्वयं तो आरक्षण कराने जा नहीं सकते सो उन्‍होंने अपने गुमाश्तो को इस काम के लिए भेज दिया. ज्यादा से ज्यादा आरक्षण कैसे कराया जाये इसके लिए भांति-भांति के छद्मनामों से भी आरक्षण करा लिया गया. उनका यह सोचना था कि टिकट को निरस्त तो कराना ही है, टिकट जमा करायेंगे और जैसे नकद वापस वसूल लेंगे. कोई झंझट की बात नहीं. सीधा-सीधा गणित था और हड़बड़ी भी थी. जिसको जितनी बुद्धि से समझ में आया, धड़ाधड़ काम में लग गये. ट्रेन टाइम टेबल को दस बार देखा गया. भारत की सबसे लंबी दूरी की गाड़ियों के नंबर नोट किये गये.

आरक्षण पर्चियों को धड़ाधड़ भरा गया. एक प्रतिष्ठान के आठ दस कर्मचारी आरक्षण कराने हेतु कतार में लग गये. ऐसा समां लग रहा था कि पूरा देश ही काम-धाम छोड़ कर रेल यात्रा करने को आतुर है. रेल का वाणिज्‍य विभाग भी अति प्रसन्न, इतनी बिक्री कभी नहीं हुई. कुछ लोगों ने उक्‍त आंकड़ों को गिनीज बुक आॅफ वर्ल्‍ड रिकार्ड में भी भेजने की सोची. रेल कर्मचारी-अधिकारी मुस्कुरा रहे हैं. रेल में एक दिन में पूरे भारत में आरक्षण करानेवाले कभी नहीं आये. सभी को प्रतीक्षा सूची का टिकट चाहिए, आरक्षित टिकट नहीं.

रेल का खजाना भर रहा है, तीन-चार दिनों तक खजाना भरने के बाद लोगों को चिंता हुई कि कहीं जिस गति से खजाना भर रहा है उसी गति से खाली न हो जाये, मंथन हुआ. लक्ष्मी का निकास रोकना ही होगा. निर्णय हुआ कि यदि टिकट निरस्त कराया जाता है तो पैसा नकद वापस नहीं मिलेगा वह यात्री के खाते में जमा हो जायेगा. अब इस फैसले से हड़बड़ी में आरक्षण करानेवाले भौचक्के हैं. उन्होंने तो जल्दबाजी में रामलाल, श्यामलाल, कन्हैयालाल, रुक्मणी, गीता, सीता, नामों से टिकट बुक करवा लिये अब कहां से इनके खातों को लाये. मुझे बैंक वाले भी बिना पैन कार्ड के खाता नहीं खोल रहे हैं.

ऐसे में लगता है कि टिकट निरस्‍त कराने से भी कोई फायदा नहीं है. वह एक नयी उलझनवाली प्रक्रिया है. एक डाल-डाल तो दूसरा पात-पात. भारतीय रेल तिजोरी भरने से मुस्कुरा रही है. जल्दबाजी में छद्म नामों से आरक्षण करानेवाले भौचक्के हैं, हैरान हैं, परेशान हैं. उन्‍होंने सरकार को बेवकूफ समझा था अब खुद को ठगे-ठगे से महसूस कर रहे हैं.

(लेखक अपर सुरक्षा आयुक्त व पूर्व रेलवे के डीआइजी हैं.)

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