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डबल सेंचुरी का मतलब
तारकेश्वर मिश्र राज्य में छह चरणों के मतदान के प्रतिशत और बाहुबल के प्रयोग पर रोक के लिए चुनाव आयोग की कड़ाई को लेकर प्राय: सभी लोग यह मान कर चल रहे थे कि तृणमूल कांग्रेस की सीटें पिछले चुनाव की तुलना में घटनेवाली हैं. प्राय: सभी एक्जिट पोल के नतीजों में न केवल तृणमूल […]
तारकेश्वर मिश्र
राज्य में छह चरणों के मतदान के प्रतिशत और बाहुबल के प्रयोग पर रोक के लिए चुनाव आयोग की कड़ाई को लेकर प्राय: सभी लोग यह मान कर चल रहे थे कि तृणमूल कांग्रेस की सीटें पिछले चुनाव की तुलना में घटनेवाली हैं. प्राय: सभी एक्जिट पोल के नतीजों में न केवल तृणमूल कांग्रेस की सीटों की संख्या घटने के डाटा दिखाये गये, बल्कि साथ ही यह भी कहा गया कि लगभग 25 से 50 सीटें जोट (जो वाममोरचा और कांग्रेस ने तृणमूल के विकल्प के रूप में बनाया था) की ओर भी जा सकती हैं.
मतगणना के एक दिन पहले तृणमूल कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेताओं के हावभाव और बातचीत को देख और सुन कर भी ऐसा लग रहा था कि तृणमूल कांग्रेस के लिए चुनाव का नतीजा बहुत अच्छा नहीं होने वाला है. परन्तु, मतगणना के बाद तृणमूल कांग्रेस ने सभी को अपने परिणामों से चकित कर दिया. 294 सीटों में से 211 सीटें लेकर तृणमूल कांग्रेस ने राज्य को एक तरह से विपक्ष विहीन बना दिया.
इस डबल सेंचुरी ने राज्य में 34 वर्षों तक सत्ता में वाममोरचा को पूरी तरह से पंगु बना दिया है. वैसे वाममोरचा के प्रत्याशियों ने कुल लगभग 27.4 प्रतिशत वोट हासिल किये हैं, लेकिन सीटों की संख्या घट कर 32 हो चुकी हैं.
यह संख्या इस राज्य से राज्यसभा में किसी प्रत्याशी को भेजने के लिए जरूरी विधायकों की संख्या से भी कम है. दूसरी तरफ ममता बनर्जी के खिलाफ इस चुनाव में वाम मोरचा के साथ जोट बना कर चुनाव लड़नेवाली कांग्रेस को जबरदस्त फायदा हुआ है. पार्टी को कुल वोटों का केवल 12.3 प्रतिशत ही मिला है, लेकिन उसके 44 प्रत्याशी चुनाव जीतने में सफल रहे. इस विधानसभा में कांग्रेस दूसरी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में रहेगी. पांच राज्यों में हुए इस बार के चुनाव में पश्चिम बंगाल को छोड़ अन्य सभी जगह कांग्रेस को फजीहत का सामना करना पड़ा है. राज्य में कांग्रेस की तुलना में थोड़ा कम यानी 10.2 प्रतिशत वोट हासिल करनेवाली भारतीय जनता पार्टी को केवल तीन सीटों पर जीत मिल सकी है.
चुनाव विश्लेषकों की राय में पश्चिम बंगाल में भारतीय जनता पार्टी की वजह से तृणमूल कांग्रेस को 45 से 50 सीटों का फायदा हुआ है. अर्थात् लगभग 50 सीटों पर सत्ता विरोधी वोटों का बंटवारा जोट के प्रत्याशी और भाजपा के प्रत्याशी के बीच हुआ और वे 50 सीटें तृणमूल की झोली में गयीं. अब अगर हम उन 50 सीटों को भी तृणमूल कांग्रेस को मिली कुल सीटें 211 में से अलग कर लें, तो भी जो संख्या बचती है, उससे तृणमूल कांग्रेस ही दोबारा राज्य की सत्ता की दावेदार बनती है. अर्थात् 2016 का विधानसभा चुनाव पूरी तरह से तृणमूल कांग्रेस के पक्ष में था. तृणमूल सरकार के खिलाफ सारधा घोटाला, नारदा स्टिंग, बड़ाबाजार फ्लाई ओवर हादसा, सिंडिकेट राज और भी ना जाने कितने मुद्दे पिछले कई महीनों के दौरान उठे. उन मुद्दों का शोर बंगाल से लेकर देश के अन्य कोने तक पहुंचा, लेकिन पश्चिम बंगाल के वोटरों का विश्वास तृणमूल कांग्रेस और ममता बनर्जी के साथ जमा रहा.
अब विपक्ष के पास रिगिंग का बहाना भी नहीं रहा. पिछले हर चुनाव में साइंटिफिक रिगिंग और बूथ लूटने का रोना रोने वाले विपक्षी दल के प्राय: हर नेता ने इस बार चुनाव आयोग की व्यवस्था को सराहा था. अगर किसी प्रकार की शिकायत रही भी तो उन शिकायतों पर आयोग ने कड़ी से कड़ी कार्रवाई की. और साफ-सुथरे चुनाव के माहौल का नतीजा भी सभी के सामने है. इस चुनाव परिणाम और तृणमूल कांग्रेस की डबल सेंचुरी से कई साफ संकेत मिले हैं, जो पश्चिम बंगाल के राजनीतिक भविष्य से जुड़े हुए हैं. राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो पश्चिम बंगाल में अब वाम राजनीति के दिन लद चुके हैं.
यही वजह है कि जोट करने के बावजूद जनता ने वामपंथी उम्मीदवारों को चुनाव जीतने लायक समर्थन नहीं दिया. इस चुनाव परिणाम के आधार पर यह भी कहा जा सकता है कि कई ज्वलंत और गंभीर मुद्दों को नकार कर जनता ने जो प्रचंड बहुमत तृणमूल कांग्रेस को दिया वो इसका स्पष्ट प्रमाण है कि राज्य में किसी भी अन्य राजनीतिक दल ने अभी तक अपने को बेहतर विकल्प के रूप में जनता के सामने पेश नहीं किया है. उदाहरण असम का चुनाव है. वहां बेहतर विकल्प को ही जनता ने चुना है.
जनता बदलाव चाहती थी और वहां उन्हें एक बेहतर विकल्प का भरोसा मिला और जनता ने चुन लिया. यह कार्य पश्चिम बंगाल में नहीं हो सका. परिणाम देखें तो स्पष्ट हो जाता है कि यहां की जनता अब शायद वाममोरचा को विकल्प मानने को तैयार नहीं है.
अगर कांग्रेस की बात करें तो वह उत्तर बंगाल के कुछ जिलों में जनता के बीच खुद को विकल्प के रूप में साबित करने में सफल रही है, लेकिन दक्षिण बंगाल में वह भी अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करती दिख रही है. भारतीय जनता पार्टी ने पांच राज्यों के चुनाव में बंगाल को छोड़ अन्य सभी जगह काफी बेहतर किया है. बंगाल में 2014 के लोकसभा चुनाव में पार्टी को लेकर आम जनता में सकारात्मक बदलाव के संकेत मिले थे, लेकिन 2016 के विधानसभा चुनाव में पार्टी फिर राज्य में अपने एक वर्ष पुराने स्थान पर लौट गयी है. 1998 के आम चुनाव में पार्टी को पश्चिम बंगाल में 10.27 प्रतिशत वोट मिले थे, जबिक इससे दो वर्ष पहले विधानसभा चुनाव में पार्टी को सिर्फ 6.9 प्रतिशत ही वोट मिले थे.
अर्थात् इस पार्टी को राज्य की जनता पहले भी केंद्र में एक विकल्प के रूप में कुछ समर्थन देती थी और अब भी देती है, लेकिन राज्य सत्ता के विकल्प के रूप में इस पार्टी को राज्य की जनता के बीच अपने आपको एक विकल्प के रूप में पेश करने के लिए काफी प्रयास करने की जरूरत है. कुल मिला कर ये डबल सेंचुरी राज्य के विपक्षी दलों के लिए बहुत गंभीर संदेश है. मान-न-मान मैं तेरा मेहमान बनने की कोशिश सफल होने वाली नहीं है. खुद को एक बेहतर विकल्प के रूप में साबित करने के अथक प्रयास के अलावा कोई विकल्प नहीं है.
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