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रंग बदलते कुछ बुद्धिजीवी

तारकेश्वर मिश्र पश्चिम बंगाल िवधानसभा के इस चुनाव में बुद्धिजीवी वर्ग के कुछ दर्जनभर लोगों का ममता बनर्जी आैर खास कर तृणमूल कांग्रेस के पक्ष में खुल कर उतरना चर्चा का िवषय बना हुआ है. चुनाव आयोग ने 14 अप्रैल को तृणमूल सुप्रीमो आैर राज्य की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को, उनके एक चुनावी भाषण के […]

तारकेश्वर मिश्र
पश्चिम बंगाल िवधानसभा के इस चुनाव में बुद्धिजीवी वर्ग के कुछ दर्जनभर लोगों का ममता बनर्जी आैर खास कर तृणमूल कांग्रेस के पक्ष में खुल कर उतरना चर्चा का िवषय बना हुआ है. चुनाव आयोग ने 14 अप्रैल को तृणमूल सुप्रीमो आैर राज्य की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को, उनके एक चुनावी भाषण के सिलसिले मंे नोटिस जारी किया. इस नोटिस मेें आयोग ने यह स्पष्ट करने को कहा कि उनके चुनावी भाषण में चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन हुआ है कि नहीं आैर अगर उल्लंघन हुआ है तो क्यों हुआ है.
नोटिस जारी होने के दूसरे िदन पश्चिम बंगाल के लगभग दर्जन भर बुद्धिजीवी मुख्य चुनाव आयुक्त नसीम जैदी को एक ज्ञापन देने पहुंचे. ज्ञापन मेें लिखा था- ‘हमारी मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को नोटिस जारी िकये जाने से हम आहत हैं. आयोग को नोटिस जारी करने से पहले ठीक से होमवर्क करने की जरूरत थी. आसनसोल को जिला बनाने की प्रक्रिया गत दिसंबर में ही शुरू हो गयी थी, एेसे में चुनाव आयोग का यह कदम अवांक्षित है.’ मुख्य चुनाव अधिकारी सुनील गुप्ता ने अति व्यस्तता के बावजूद इस दल के लोगों को पर्याप्त समय दिया आैर ज्ञापन पर गौर करने का आश्वासन भीदिया. परंतु, इस घटना को लेकर राज्य के बुद्धिजीवी वर्ग मेें काफी हलचल है.
चुनाव के मैदान मेें किसी खास दल के पक्ष में सीधे मैदान में उतर जाना आैर िकसी खास दल के पक्ष में चुनाव आयोग से िभड़ जाना यह पहली बार हुआ है. आमतौर पर पूरे देश मेें आैर संसार के बुद्धिजीवी वर्ग में पश्चिम बंगाल के बुद्धिजीवी वर्ग का नाम बड़े सम्मान के साथ लिया जाता रहा है. आजादी के बाद से ही अगर मुंबई को आर्थिक राजधानी कहा जाता रहा है तो कोलकाता को सांस्कृतिक राजधानी कहा जाता है. देश आैर दुनिया के लोग पश्चिम बंगाल के साहित्य, कला आैर संस्कृति से जुड़े लोगों को बड़े ही सम्मान की नजर से देखते आ रहे हैं. वाममोरचा के 34 वर्षों के शासनकाल के दौरान भी सरकार की गलत नीतियों का िवरोध करने के लिए प्राय बुद्धिजीवी वर्ग के लोग मौन जुलूस िनकालकर सड़कों पर उतरते थे आैर तत्कालीन सरकार भी ‍उनके इस कदम को जनता के हित में मानती थी. कई बार राज्य सरकार को बुद्धिजीवी वर्ग के िवरोध के कारण अपनी नीतियों में बदलाव करने के लिए भी बाध्य होना पड़ा. लेकिन तब प्राय: बुद्धिजीवी वर्ग के लोग िकसी खास राजनीतिक दल अथवा दलगत िहत के लिए इस प्रकार खुल कर मैदान में ‍उतरते नहीं देखे गये थे.
इस चर्चा के क्रम में यह भी कहा जा रहा है कि राज्य सरकार की आेर से पोषित होने के कारण कुछ बुद्धिजीवी वर्ग के लोगों के िलए इस प्रकार के कार्यों को करने की मजबूरी हो गयी है. लेकिन, अगर हम वाममोरचा के शासनकाल की बात करें तो आर्थिक रूप से िवपन्न सैकड़ों बुद्धिजीवी वर्ग के लोग सरकारी सहायता लेने के बावजूद अपने सम्मान से कोई भी समझौता करते नहीं देखे गए थे.
इस परंपरा का ही प्रभाव रहा है कि तृणमूल कांग्रेस का सांसद रहते हुए भी सुप्रसिद्ध गीतकार आैर संगीतकार कबीर सुमन, ममता बनर्जी सरकार आैर तृणमूल कांग्रेस की गलतियों पर बाेलने मेंं कभी नहीं हिचकते थे. उन्हांेंने एक तरह से राजनीति से संन्यास ले लिया, लेकिन एक कलाकार के तौर पर अपने आत्म सम्मान से समझौता नहीं किया. इतने सारे उदाहरणों के बावजूद बुद्धिजीवी वर्ग के कुछ लोगों का तृणमूल कांग्रेस के पक्ष में खुल कर मैदान में आना सामान्य लाेगों को भी कुछ अजीब ही लग रहा है.
यह भी कहा जा रहा है कि यह घटना भविष्य में कलाकारों का आैर बुद्धिजीवियों का राजनीतिक दलों में बंट जाने का संकेत तो नहीं है. वैसे राज्य के लब्ध प्रतिष्ठित बुद्धिजीवियों का एक बहुत बड़ा वर्ग आज भी यही मान कर चल रहा है कि समाज के हर वर्ग में कुछ लोग अपवाद होते हैं आैर उन्हें वर्ग िवशेष से जोड़ कर नहीं देखा जाना चाहिए. अर्थात जब कोई बुद्धिजीवी वर्ग का व्यक्ति किसी भी कारण से परंपराआें से हट जाता है तो आम जनता भी उसे उसके व्यक्तिगत कृत्यों के अनुसार ही देखती है.

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