कोलकाता: गंभीर स्वास्थ्य खतरों से खुद को बचाने में लगे सुंदरवन के रुढ़िवादी वैष्णव परिवार धार्मिक प्रतिबंधों के खिलाफ भी संघर्ष कर रहे हैं, जिसके चलते उन्हें मजबूरी में नलकूपों के बजाय दूषित जलाशयों से पानी पीने को मजबूर होना पड़ रहा है. दुरबाछती ग्राम पंचायत में रहनेवाली गृहिणी पार्वती दास कहती हैं कि नलकूप का पिस्टन चमड़े का बना होता है.
आप हमारे जैसे एक कट्टर वैष्णव परिवार से यह उम्मीद नहीं कर सकते कि वह उस नलकूप का पानी पीयेगा, जिसमें चमड़ा लगा है, क्योंकि हमें हमारा धर्म ऐसी किसी भी चीज का सेवन करने से रोकता है, जो जानवरों के अवशेषों से बनी है. सुंदरवन के दूरदराज के इलाकों में रहनेवाले अन्य वैष्णव परिवारों की तरह ही वह अपने घर के जलाशय से पीने का पानी लाती हैं, उसी में खाना पकाती हैं और घर के अन्य कामों में भी उसी पानी का इस्तेमाल करती हैं.
इनमें से कई परिवारों ने स्वास्थ्यकर्मियों के अथक प्रयासों के बाद इन धार्मिक प्रतिबंधों के खिलाफ संघर्ष शुरू कर दिया है. एनजीओ ‘सेव द चिल्ड्रेन’ की परियोजना प्रबंधक चित्त प्रिय साधु बताती हैं कि गांव के रुढ़िवादी लोगों को अपनी पुरानी परंपराओं को छोड़ने के लिए राजी करना बेहद मुश्किल काम है, जिसका वे पीढ़ियों से पालन करते आये हैं. विभिन्न असुरक्षित स्नेतों से पानी के सेवन के खतरों को लेकर उनमें कुछ जागरूकता आयी है और उन्होंने अपनी विचारधारा में बदलाव शुरू किया है. जलाशयों के पानी के सेवन को भले ही धार्मिक मंजूरी प्राप्त हो, लेकिन इसमें कीटनाशकों, उर्वरकों और मल आदि की मौजूदगी के कारण यह पानी पीना खतरे से खाली नहीं है.
और खासतौर से मानसून के दिनों में यह पानी बहुत अधिक दूषित हो जाता है. ऐसा अनुमान है कि करीब 3.77 करोड़ भारतीय प्रतिवर्ष जल जनित बीमारियों से प्रभावित होते हैं और करीब साढ़े 10 लाख बच्चे अकेले डायरिया की भेंट चढ़ जाते हैं. भारतीय स्वास्थ्य प्रबंधन शोध संस्थान जयपुर द्वारा तैयार की गयी रिपोर्ट ‘द सुंदरवन हेल्थ वाच ’ में पाया गया है कि इस क्षेत्र में दूषित जल का सेवन सबसे बड़ा स्वास्थ्य से जुड़ा मुद्दा है. संस्थान के वरुण कांजीलाल कहते हैं कि पेट का संक्रमण और डायरिया यहां आम बात है, क्योंकि लोग सुंदरवन में अधिकतर स्थानों पर दूषित पानी का सेवन करते हैं. सुरक्षित पेयजल तक उनकी पहुंच नहीं है. कट्टर शाकाहारी वैष्णव परिवार अब दूषित जल पीने के खतरों को समझने लगे हैं और धीरे-धीरे अपनी पारंपरिक मान्यताओं में बदलाव कर रहे हैं. अब सामुदायिक नलकूप से लिये गये पानी का इस्तेमाल शुरू करनेवाली दास कहती हैं कि समय बदल गया है और हमें भी बदलना होगा. स्वास्थ्य जीवन जीना धार्मिक मान्यताओं के पालन से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है.