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विडंबना: जिस खेत-आंगन से निकलीं 19 अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी, उसी की अनदेखी, स्टिक थामने की जगह कर रहीं झाड़ू-पोंछा

प्राकृतिक संपदा से भरपूर झारखंड का सिमडेगा जिला अपने दो आंकड़ों के कारण याद किया जाता है. पहले से गर्व की अनुभूति होती है, तो दूसरे से जलालत की. झारखंड में सबसे ज्यादा अनुसूचित जनजातियों (71 प्रतिशत) वाले इस जिले में शुरू से ही सुविधाएं कम थीं, बावजूद इसके इस माटी से हॉकी के 35 […]

प्राकृतिक संपदा से भरपूर झारखंड का सिमडेगा जिला अपने दो आंकड़ों के कारण याद किया जाता है. पहले से गर्व की अनुभूति होती है, तो दूसरे से जलालत की. झारखंड में सबसे ज्यादा अनुसूचित जनजातियों (71 प्रतिशत) वाले इस जिले में शुरू से ही सुविधाएं कम थीं, बावजूद इसके इस माटी से हॉकी के 35 अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी निकले. इनमें लड़कियों की संख्या 19 रही. इन्होंने देश-दुनिया में नाम किया. दूसरी ओर जिले का वैज्ञानिक सिद्धार्थ जेनेवा के महाप्रयोग में शामिल हुआ. इसको लेकर सबने अपनी पीठ थपथपायी, वहीं दूसरे आंकड़े से सब पल्ला झाड़ रहे.
सिमडेगा से लौट कर जीवेश
जिला प्रशासन के अनुसार वर्ष 2015 तक जिले से 10,000 लड़कियों ने पलायन किया है और इस वर्ष (2016) कक्षा चार से आठ तक के 5046 बच्चों ने स्कूल जाना छोड़ दिया है. कहां गये ये बच्चे, इसकी चिंता किसी को नहीं.

राजनीतिज्ञों से लेकर अधिकारियों तक की टोली इससे पल्ला झाड़ रही. जवाबदेही लेने की बात तो दूर, कोई सुधार की भी बात नहीं करता. दरअसल जंगली व ग्रामीण परिवेशवाले इस जिले में विकास के लिए कुछ खास नहीं हुआ. 1194.50 वर्ग किलोमीटर में फैले इस जिले का एकमात्र प्रमुख शहर सिमडेगा है. शहरीकरण की स्थिति कुल जनसंख्या का केवल 6.6 प्रतिशत है. ऐसे में यहां विकास का काम गांवों में होना चाहिए था, जो नहीं हुआ. हालत यह है कि जिले में खेती योग्य एक लाख 52 हजार हेक्टेयर भूमि में सिंचित भूमि महज 8 प्रतिशत है. कृषि योग्य होने के बाद भी 18898.35 हेक्टेयर भूमि बेकार है. सिर्फ मौसम के भरोसे खेती होने के कारण साल भर के लिए भी अनाज पैदा नहीं कर पाते लोग. ऐसे में भूख मिटाने के लिए महिलाओं व बच्चों का पलायन जारी है.

माता-पिता अपने कम उम्र बच्चों को दिल पर पत्थर रख बाहर भेज रहे. अनजान शहर, अनजान लोग, आबरू को भी खतरा, और तो अौर पैसे मिलेंगे या नहीं इसकी आशंका के बीच माता-पिता बच्चों को बाहर भेज रहे. ऐसी स्थिति में चांदी है तो सिर्फ दलालों की. जानकारों के अनुसार गांव के ही कुछ लोग दलाली में शामिल हैं. वो तय पैसे भी नहीं देते, साथ ही यौन शोषण भी करते हैं. महिलाओं व बच्चों के लिए काम करनेवाली संस्था सहयोग विलेज के मैनेजर अल्ताफ खान के अनुसार अभी उनके यहां 96 बच्चे हैं, जिनमें से 90 प्रतिशत वैसे हैं, जिनकी मां काम करने गयीं और यौन शोषण का शिकार हो मां बन कर लौटी. ऐसी बिन ब्याही मां (अधिकतर नाबालिग) और उनके परिजन लोकलाज के कारण बच्चे को उनके यहां छोड़ जाते हैं.
क्यों स्कूल में नहीं रुक रहे बच्चे : केंद्र से लेकर राज्य सरकार तक लगातार बच्चों को स्कूल में रोकने के लिए तरह-तरह का अभियान चला रही है. मध्याह्न भोजन, स्कूल ड्रेस, साइकिल के अलावा स्कूल चलें हम, ऊमा स्कूल जायेगी और बेटी बचाओ अभियान पर लाखों रुपये खर्च हो रहे, पर सिमडेगा जिले में इस वर्ष भी कक्षा चार से आठ के 5046 बच्चों ने स्कूल जाना छोड़ दिया है. जानकारों के अनुसार स्कूल में बच्चों को शिक्षित नहीं, साक्षर बनाया जा रहा. पहले स्कूलों में खेल पर ध्यान दिया जाता था, पर अब यह बंद है. यहां के हॉकी के ट्रेनिंग सेंटरों में पहले 30 बच्चों को रखा जाता था, अब यह संख्या घटा कर 25 कर दिया गया है. एस्ट्रोटर्फ मैदान तो बना, पर अन्य सुविधाएं उस तुलना में नहीं बढ़ीं हैं. याद रहे सिमडेगा के स्कूलों से हॉकी के खिलाड़ी निकलते थे, पर अब एकाध प्रखंडों को छोड़ दें, तो इसमें भी जबरदस्त कमी आयी है. दूसरी ओर गांवों में जागरूकता का कोई खास कार्यक्रम नहीं चल रहा. कई गांव और पंचायत तो ऐसे हैं, जहां कभी कोई बड़ा सरकारी अधिकारी नहीं गया. कागजों पर आंकड़ा बनाने से सच से दूर रह रही सरकार.
क्यों हुआ यह : जानकारों के अनुसार जिले के 10 प्रखंड सिमडेगा, कोलेबिरा, बांसजोर, कुरडेग, केरसई, बोलबा, पाकरटांड, ठेठईटांगर, बानो एवं जलडेगा में गरीबी चरम पर है. अधिकतर परिवार ऐसे हैं, जिनके पास सही तरीके से खाने को नहीं है. पटवन के अभाव में खेती भी संभव नहीं. विकास के काम भी कम हैं. मनरेगा की मजदूरी महीनों बाद मिलती है. सरकारी योजनाओं की स्थिति भी अच्छी नहीं है. अभिभावकों में नशे की लत बढ़ती ही जा रही है. ऐसे में दलालों ने उन्हें और उनके परिजनों को सब्जबाग दिखाया. सिनेमा और मोबाइल का भी असर पड़ा. बाहर गयी कुछ लड़कियों के पहनावे और अन्य बदलाव ने भी बच्चों को आकर्षित किया. नतीजतन खुद माता-पिता बच्चों को मुंबई, पूना, बेंगलुरू और अन्य बड़े शहरों की ओर भेजने लगे.
कम उम्र बच्चियां पहली पसंद : सरकारी आंकड़ों के अनुसार पलायन करनेवाले या स्कूल छोड़नेवाले बच्चों में कम उम्र की बच्चियों की संख्या ज्यादा है. जानकारों के अनुसार शहरों में घर के काम के लिए बच्चियों को रखना ज्यादा पसंद करते हैं लोग. अपढ़ अौर कम उम्र होने के कारण बच्चे चीजों व बातचीत को समझते नहीं और उनका शोषण भी आसान होता है. इसका उदाहरण है बोलबा प्रखंड के कुछ टोला. यहां के कसीरा डोंगाजोर से 10, अंबाटोली कसीरा से नौ और कसीरा गोबरीटोली से 19 बच्चे पूना, मुंबई, दिल्ली, बेंगलुरू जैसे शहरों में हैं.
(साथ में सिमडेगा से रविकांत व बोलबा से कालो खलखो)
केस स्टडी
काश मां के साथ रहती
सिमडेगा के बोलबा प्रखंड के डोगाजोर टोला तक जाना आसान नहीं. सड़क के नाम पर कुछ जगह बिखरे पड़े पत्थर और पगडंडियां दिखती हैं. 20 घर का यह टोला कहीं से जीवंत नहीं दिखता. इन्हीं में से एक मिट्टी के जर्जर घर में रहता है मानुएल व करुणा कुलु का परिवार. छह बच्चों के पिता की माली हालत ठीक नहीं. भरण-पोषण के नाम पर कुछ जमीन है, जिसकी ऊपज से कुछ माह की भूख मिटती है. पेट की खातिर दो बच्चे बाहर कमाने चले गये. कुछ दिन पहले छोटी बेटी प्रेमिका कुलु घर आयी है. गांववालों के अनुसार जब से बेटी घर आयी है, सब घर में ही घुसे रहते हैं. बाहर कम ही निकलते हैं. काफी आवाज देने पर एक कमरे से करुणा कुलू अपने बेटे अरुण कुलु और बेटी प्रेमिका कुलु के साथ बाहर निकलीं. अनजान को देख थोड़ा सकपकायीं, पर परिचय देने पर बात करने को तैयार हो गयीं. इस दौरान प्रेमिका अपने भाई और मां से चिपकी रही. पूछने पर पता चला कि वह पुणे में किसी अजय बाबू के यहां काम करती है. इससे ज्यादा वह कुछ नहीं जानती. छोटी सी प्रेमिका पुणे जाना नहीं चाहती. कहती है मां के साथ, भाई के साथ रहना है, पर भूख के आगे किसी का जोर नहीं, वह जल्द चली जायेगी. जितने दिन है सबके साथ अधिक से अधिक समय बिताना चाहती है, खास कर मां के साथ. बताती है कि 8000 रुपये मिलते हैं, पर पैसे साहब ही रखते और बैंक में डालते हैं. मां के अनुसार पैसे बीच-बीच में आते रहते हैं, पर पुख्ता हिसाब किसी के पास नहीं. यह हाल है उस प्रखंड का जहां के खेत-आंगन ने कांति बा, सुमराय टेटे, अमरमणी कुलू, तारिणी कुमारी व अंजलुस बिलुंग जैसे अंतरराष्ट्रीय हॉकी खिलाड़ी दिये हैं. जानकारों के अनुसार जिले में सबसे ज्यादा पलायन बोलबा प्रखंड से ही हुआ है. कभी सिमडेगा का कालापानी कहे जानेवाले बोलबा की सूरत शंख नदी पर पुल बनने से कुछ हद तक बदली है, पर जवाबदेहों की सीरत नहीं बदली. इस कारण हालत आज भी बदतर है.
अकेले रह गयी बेटी
केरसई प्रखंड के किनकेल पंचायत के विजय कुजूर की पत्नी दयामनी कुजूर 2010 में दिल्ली कमाने गयी. 2012 तक वह कुछ पैसे भेजती थी. घरवालों से कभी-कभी बात भी होती थी. फिर वह भी बंद हो गया. विजय कुजूर वर्ष 2014 तक इंतजार करने के बाद दिल्ली पत्नी को खोजने गया, पर वह कहां काम करती है, यह पता नहीं होने के कारण खोज नहीं सका और लौट गया. घर की हालत धीरे-धीरे अौर खराब हो गयी, तो कुछ वर्ष पहले उसकी बड़ी बेटी मुंबई और बेटा अभय दिल्ली चले गये. अब घर में अकेली 11 वर्षीय बेटी निमंति कुजूर रह गयी है. घर की सभी जवाबदेही उसके कंधे पर है. विजय बीमार रहते हैं. निमंति कुछ भी पूछने पर रोने लगती है. कक्षा तीन तक पढ़ने के बाद उसकी पढ़ाई भी छूट गयी.
छह माह में मिलती है मजदूरी : मुखिया
बोलबा प्रखंड के शमसेरा पंचायत की मुखिया रुकमणी देवी लगातार दूसरी बार मुखिया चुनी गयी हैं. उनके अनुसार पलायन बढ़ा है. वो मानती हैं कि बच्चों का बाहर शोषण हो रहा है, खास कर लड़कियों का. इसके पीछे वो गरीबी को बड़ा कारण मानती हैं. उनके अनुसार खेती नहीं होती, विकास के काम नहीं हुए हैं. मनरेगा में कुछ काम भी हुआ, तो महीनों मजदूरी नहीं मिलती. छह माह बाद पैसे मिलते हैं. नशे का प्रचलन भी बढ़ा है. इस कारण सब परेशान रहते हैं. ऐसे में अभिभावकों को लगता है कि बच्चों को बाहर भेज कर उन्हें कुछ फायदा होगा. दूसरी ओर बच्चों को लगता है कि वो घर में रह कर भूखे मर रहे, इससे बेहतर वो बाहर जा कर दुनिया देखें.
भूख व बाहर की दुनिया ने बहकाया : शिक्षक
राजकीय उत्क्रमित मध्य विद्यालय, कच्छुपानी के शिक्षक गोवर्धन नायक भी मानते हैं कि बच्चे स्कूलों में नहीं रुक रहे. इसका कारण वह सुविधाओं की कमी को मानते हैं. कहते हैं कि खेल की सुविधा कम हुई है. इस कारण दलाल हावी हो रहे. उनका मानना है कि सुविधाएं बढ़ानी होगी, तभी बाहरी दुनिया की चमक से प्रभावित नहीं होंगे बच्चे.
सरकार चेते : अशुंता
भारतीय हॉकी टीम की पूर्व कैप्टन सह वर्तमान कोच अशुंता लकड़ा के अनुसार पलायन के पीछे सरकार की नीतियां भी जवाबदेह हैं. महिलाओं के लिए तय सरकारी योजनाओं का लाभ गांवों में नहीं मिल रहा. राज्य में अभी तक खेल अकादमी की स्थापना नहीं हुई. अच्छा खेलनेवालों को प्रोत्साहन भी ठीक से नहीं मिलता. उनके अनुसार जब तक ऊपर से चीजें दुरुस्त नहीं होगी, सुधार असंभव है.
अधिकतर बिन ब्याही मां हैं बच्चियां : अल्ताफ
पहले सिमडेगा अौर अब खूंटी में चल रहे सहयोग विलेज (दत्तक ग्रहण एजेंसी सह बालगृह सह नारी निकेतन) के मैनेजर अल्ताफ खान के अनुसार उनके यहां 0-1 साल के भी बच्चे हैं. वो कहते हैं कि बिन ब्याही मां जब यहां अपने बच्चों को रखने आती हैं, तो उनको देख कर दया आ जाती है. क्योंकि उनमें से अधिकतर खुद बच्चियां हैं. कई तो बाहर गेट पर ही बच्चों को छोड़ कर चली जाती हैं.

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