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हाइकोर्ट के आदेश पर भी जांच पूरी नहीं

आदिवासी सहकारिता निगम के घोटाले पर अब भी पर्दा शकील अख्तर रांची : हाइकोर्ट के आदेश के बावजूद पुलिस ने आदिवासी सहकारिता विकास निगम में हुए करीब 170 करोड़ के घोटाले की जांच पूरी नहीं की है. कोर्ट ने इस सिलसिले मे दायर याचिका की सुनवाई के बाद छह माह में जांच पूरा करने का […]

आदिवासी सहकारिता निगम के घोटाले पर अब भी पर्दा
शकील अख्तर
रांची : हाइकोर्ट के आदेश के बावजूद पुलिस ने आदिवासी सहकारिता विकास निगम में हुए करीब 170 करोड़ के घोटाले की जांच पूरी नहीं की है. कोर्ट ने इस सिलसिले मे दायर याचिका की सुनवाई के बाद छह माह में जांच पूरा करने का आदेश दिया था. निगम में हुए इस घोटोले में फर्जी दस्तावेज का इस्तेमाल किया गया है. साथ ही इसमें अधिकारियों और कर्मचारियों का एक दल भी शामिल है. इस घोटाले में जिन लोगों के नाम पर कर्ज दिये गये हैं उनमें से दर्जनों आवेदन एक ही व्यक्ति की लिखावट में है.
आदिवासियों और अनुसूचित जातियों के आर्थिक उत्थान के उद्देश्य से वर्ष 2002 और 2005 के बीच निगम ने कर्ज पर परिसंपत्तियों का वितरण किया था. वितरित परिसंपत्तियों में ट्रैक्टर, आटो रिक्शा सहित अन्य प्रकार की गाड़ियां थीं. इन चार सालों में जिन लोगों के बीच गाड़ियां बांटी गयीं, उनमें से अब किसी का पता नहीं है. निगम की ओर से कर्ज की वसूली के लिए वर्षों से कर्जदारों के नाम नोटिस भेज कर अपनी जिम्मेवारी पूरी कर ली जा रही है. निगम अब जिस पते पर नोटिस भेज रहा है, उस पते पर कोई नहीं मिल रहा है. निगम ने जिन आवेदकों को कर्ज दिये हैं, उन कर्जदारों के आवेदन में ही इस घोटाले की कहानी छिपी है. कर्ज से जुड़े आवेदनों ती जांच पड़ताल से इस बात की जानकारी मिलती है कि दर्जनों कर्जदार के आवेदनों की लिखावट एक ही जैसी है. दूसरी बात यह कि इन आवेदनों में एमए पास लोगों को नन-माट्रिक बताया गया है.
कर्ज ले कर हो गये गायब
कर्ज ले कर गायब होनेवालों के मामले में सुरेश राम़, देबिया राम़, महेश राम, नवीन राम आदि के आवेदनों को उदाहरण के तौर पर लिया जा सकता है. इन सभी के आवेदनों पर आवेदन पत्र संख्या लिखने का काम निगम के कर्मचारियों का था, पर किसी आवेदन पर यह लिखा ही नहीं गया. दस्तावेज में सुरेश राम के पिता का नाम छोटकु राम लिखा है. इस आवेदक के नाम रातु अंचल से 30 जून 2003 को आवासीय पत्र संख्या 510 जारी किया गया था. उसी दिन जाति प्रमाण पत्र भी जारी किया गया था. आवेदन पत्र में शौक्षणिक योग्यता नन-मेट्रिक और पेशे से ड्राइवर बताया गया था. इस आवेदक को ट्रैक्टर दिया गया था. अब वह अपने पते पर नहीं मिल रहा है. बेदिया राम ने भी ट्रैक्टर के लिए आवेदन दिया था. आवेदक के पिता का नाम सुका राम बताया गया था. उसे भी रातु अंचल कार्यालय से आवासीय प्रमाण पत्र जारी किया गया था. बेदिया के भी आवासीय प्रमाण पत्र का नंबर 150 ही था. आवेदन पत्र में उसे नन- मेट्रिक और पेशे के ड्राइवर बताया गया था. वह भी ट्रैक्टर लेने के बाद से अपने ठिकाने से गायब बताया जाता है.निगम में हुए इस घोटाले की जांच की मांग करते हुए हाइकोर्ट में एक याचिका दायर की गयी थी. सुनवाई के बाद कोर्ट ने छह माह के अंदर इस घोटाले की जांच का आदेश दिया था. पर पुलिस ने अब तक जांच पूरी नहीं की.
टाइटल बदल कर कर्ज लिया
गरीबों के आर्थिक उत्थान के लिए चलायी जा रही योजनाओं में सक्रिय गिरोह द्वारा लोगों का टाइटल बदल बदल कर कर्ज लिये जाने की आशंका जतायी जा रही है. बेदिया नाम के व्यक्ति का पता एक होने और टाइटल अलग-अलग होने का एक मामला पकड़ में आने के बाद से इस बात की आशंका जतायी जा रही है. बेदिया राम ने 2003 में टीसीडीसी से कर्ज के रूप में ट्रैक्टर लिया था. बेदिया उरांव ने रांची जिला से 2009 में ट्रैक्टर लिया. इन दोनों ही कर्जदारों का पता एक ही है. पिता के नाम में सिर्फ टाइटल का अंतर है. एक में पिता का नाम सुकरा उरांव और दूसरे में सुकरा राम लिखा हुआ है.
टीसीडीसी के सचिव का कारनामा
टीसीडीसी के वर्तमान सचिव अर्जुनमाझी ने चतरा में जिला कल्याण पदाधिकारि के रूप में काम करते हुए सरकारी पैसा गृह प्रवेश में खर्च किया था. सेवानिवृत्त प्रखंड कल्याण पदाधिकारी को 1.33 करोड़ रुपये अग्रिम दिया था. सरकार द्वारा हिसाब मांगे जाने पर प्रखंड कल्याण पदाधिकारी ने विभाग को इस बात की जानकारी दी थी. अर्जुन माझी के कार्यों के सिलसिले में हुई जांच में पाया गया था कि उन्होंने सेवानिवृत्त प्रखंड कल्याण पदाधिकारी को 1.33 करोड़ रुपये अग्रिम दिये थे. इसका समायोजन नहीं होने पर प्रखंड कल्याण पदाधिकारी से वसूली और कानूनी कार्रवाई करने की कवायद शुरू हुई. इस बीच सेवानिवृत्त प्रखंड कल्याण पदाधिकारी ने सचिव को पत्र लिख कर पूर्व जिला कल्याण पदाधिकारी पर गंभीर आरोप लगाये थे.
साथ ही मामले की उच्च स्तरीय जांच की मांग की. सेवानिवृत्त कर्मचारी मिथिलेश मिश्र ने अपने पत्र में लिखा था कि उन्हें अधूरी योजनाओं का अभिकर्ता बनाया गया था. तत्कालीन जिला कल्याण पदाधिकारी अवधेश कुमार सिन्हा के दबाव में अभिकर्ता बने थे. अवधेश सिन्हा के तबादले के बाद अर्जुन माझी जिला कल्याण पदाधिकारी बने. उन्होंने योजनाओं के निरीक्षण के बाद अग्रिम दिया. इसके बाद पैसा मांगने लगे.
उन्होंने अपने मकान की फिनिशिंग और गृह प्रवेश के लिए तीन लाख रुपये लिये. इसके बाद किसी व्यक्ति को देने के लिए तीन लाख रुपये लिये. साथ ही सेवानिवृति के बाद उन्हें(मिथिलेश मिश्र) संविदा पर नियुक्त कराने के लिए एक लाख रुपये लिये. इस तरह उन्होंने योजना के अग्रिम में से सात लाख रुपये ले लिये. सभी पैसे योजना के थे. बार-बार मांगने पर उन्होंने चेक के सहारे सिर्फ दो लाख रुपये वापस किये. इस मामले में विभाग ने इस दोषी अधिकारी के विरुद्ध किसी तरह की कार्रवाई नहीं की है.

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