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15 अगस्त पर विशेष : डायर जिंदा है… डायर जिंदा है
राजलक्ष्मी सहाय जोर-जोर से रट रहा था भगत – ‘‘जालियांवाला बाग को देखो यहीं चली थी गोलियां ये मत पूछो किसने खेली यहां रक्त की होलियां एक तरफ बंदूकें दन-दन एक तरफ थी गोलियां मरनेवाले बोल रहे थे इंक्लाब की बोलियां’’ पास ही टूटी रस्सियों की खटिया पर झूलते उसके दादा आंखें बंद किये भी […]
राजलक्ष्मी सहाय
जोर-जोर से रट रहा था भगत –
‘‘जालियांवाला बाग को देखो
यहीं चली थी गोलियां
ये मत पूछो किसने खेली
यहां रक्त की होलियां
एक तरफ बंदूकें दन-दन
एक तरफ थी गोलियां
मरनेवाले बोल रहे थे
इंक्लाब की बोलियां’’
पास ही टूटी रस्सियों की खटिया पर झूलते उसके दादा आंखें बंद किये भी ऐसे जागृत से लगे मानो रोम-रोम में पोते भगत का गाना समाहित होता हो. चौकन्ने कान, धीरे-धीरे भिंच रही मुट्ठियां-अधखुली आंखें भगत के चेहरे पर स्थिर.
तभी भगत की दीदी ने टेप बजाया – ‘ सारा लंदन ठुमक दा…’
भगत बोल पड़ा- ‘बंद करो न दीदी अपना गाना’
‘क्यों करें बंद? पंद्रह अगस्त को हमारा ग्रुप डांस है इसी गाने पर’
‘इस गाने पर! विस्मय जाहिर किया भगत ने’
कहा- ‘पंद्रह अगस्त को लंदन ठुमकेगा? अौर कोई गाना नहीं मिला?’
‘अौर नहीं तो क्या – माडर्न एज है भगत – तुम्हारे जैसा इंकलाब वाला बोरिंग आइटम नहीं चलेगा मेरे कॉलेज में अौर तब, चीख पड़े दादा –
‘क्या बक रही जस्सी … इंकलाब…. बोरिंग .. आइटम!
दादा के पोपले मुंह से ये शब्द सुन कर पोती जस्सी हंसने लगी. चुप रहा भगत. दीदी की हंसी अच्छी न लगी. बैठ गया दादा के पैरों के पास. उनकी सूखी फटी एड़ियों पर नजर पड़ी. कमरे से नारियल तेल उठा लाया. एड़ी की दरारों को भरने लगा. उठ कर बैठ गये दादा.
‘क्या करता है भगत’- ‘देखा है पैर अापने? ब्लाटिंग पेपर जैसा तेल सोख रही है चमड़ी.
रहने भी दे भगत. कंकड़ पर नंगे पांव चलने के लिए ही सख्त पांव चाहिए. तुम्हें तो पता है मैं पंद्रह अगस्त को जालियांवाला जाता हूं हर साल. वह भी खाली पैर.
भगत फिर बुदबुदाने लगा –
‘जालियांवाला बाग को देखो….
अचानक रुका अौर चीख कर कहा-
‘दादा, मैं भी जाऊंगा तुम्हारे साथ जालियांवाला बाग
‘क्या करेगा तू, वहां जाकर?
‘मुझे जाना ही है बस’ – जिद पकड़ ली थी भगत ने
सोच रहे थे दादा- कितने जालियांवाला बाग दिखा पायेंगे वह अपने पोते को? कश्मीर से कन्याकुमारी अौर गुजरात से आसाम तक. न जाने कितने डायर तैनात हैं बंदूकें ताने. कभी भी, किसी भी चौराहे पर अवतरित हो जाता है डायर. कभी किसी बाजार में कचरे का ढेर जीवंत हो धमाका करता है – मांस के लोथड़े उछल कूद करते बिछ जाते हैं. कभी खेल के मैदान में क्रिकेट का बल्ला आग उगल कर लोगों को कोयले के टुकड़ों में तब्दील करता है तो कभी किसी रेस्तरां में चाय-काफी पीते लोग बारूदी तंदूर में पक कर गायब ही हो जाते हैं. वैसे ही दन-दन गोलियां बरसती हैं – लाशें बिछती हैं – मातम पसरता है.
रक्तबीज दैत्य था मानो वह जालिम डायर. चंडी भवानी की लपलपाती जीभ कब अवतरित होगी पता नहीं. केवल नौ दिनों का उत्सव मना कर भवानी जलमग्न हो जाती हैं – डायर अट्टहासें करता पुन: मौत की क्रीड़ा में रम जाता है. दादा के मुंह से निकला – डायर अभी मरा नहीं
कौन डायर दादा?
वही डायर, जालियांवाला बाग में खूनी खेल खेलनेवाला.
दादा के पैरों की बिवाइयां तेल से मुलायम हुईं तो मन भी पिघल गया.
भगत के माथे को चूम कर कहा –
‘ले चलूंगा तुम्हें भी इस बार जालियांवाला बाग. लेकिन खाली पैर ही जाना होगा – चलोगे? तय हो गया. दादा-पोता दोनों जायेंगे इसबार. अमृतसर की उस संकरी गली में दोनों अोर सटे-सटे मकान थे. उन्हीं में एक में रहते हैं सुखविंदर सिंह. हर साल पंद्रह अगस्त को जाते हैं जालियांवाला बाग.
सुबह से शाम तक वहीं रहते हैं. उस सूखे कुएं के पास सारा दिन बैठ कर न जाने क्या याद करते हैं. सिसकते-सुबकते हैं कई बार. अंधेरा होने पर जब तक दरबान बार-बार उठने को नहीं कहता – तब तक नहीं उठते. सालों से यही सिलसिला. जूता-चप्पल पहन कर नहीं जाते. कहते हैं वहां की जमीन का कतरा-कतरा देवभूमि है. शहीदों के लहू से भीगी मिट्टी देवों के माथे का चंदन बन चुकी है. फिर जूता पहन कर चलने का पाप कैसे करें? पांच साल के थे सुखविंदर.
क्रांतिकारियों की सभा थी जालियांवाला में. मां-बाबा भी शामिल थे उस सभा में. अचानक गोलियों की बौछार – लोगों का बेतहाशा भागना. निकलने का रास्ता नहीं. आगे भागो तो दीवार-पीछे मुड़ो तो गोलियों की बारिश. कभी पीठ पर गोली – कभी छाती पर. दीवार पर लटकी लाशें – कुएं में कूदते लोग. मरनेवालों की देह आगे-पीछे से गोलियों से सिली. मौत का तांडव मचा था. अगले दिन दीवार पर कपड़े की भांति टंगी सुखविंदर के पिता की लाश लोगों ने खींच कर उतारी. मां का पता ही नहीं चला. बदहवास सा बालक सुखविंदर कुएं में झांकता. लाशों से भरे कुएं को देखा तो चकरा कर गिर पड़ा. मां की चोटी की परांदी गिरी थी कुएं से बाहर.
आज भी उन दिनों को याद करता है तो कलेजा धक-धक करने लगता है. जीवन का कब्रगाह बन गया था जालियांवाला बाग. मुल्क के इतिहास का ऐसा पन्ना जो अब तक खून के आसुअों से गीला पड़ा है.क्या भगत सह पायेगा बाग के सन्नाटे के शोर को? फिर भी इस बार लेकर जायेंगे वह पोते को.
(जारी)
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