रांची: यह कतई नहीं मानना है कि क्षेत्रीय दल विकास नहीं कर सकते हैं, पर जो पार्टी विकास की नयी तसवीर पेश कर मत डालने के ट्रेंड में बदलाव लाती है, वह जनता को प्रिय हो सकती है और स्थायित्व ला सकती है. विडंबना है कि कांग्रेस का इस इलाके पर हमेशा से वर्चस्व था, पर इस दिशा में कभी नहीं सोचा. इसकी सारी शक्ति क्षेत्रीय पार्टियों को विलय करने में लगी रहती थी, लेकिन इसका उलटा असर पड़ा. यह अनुमान था कि झारखंड पार्टी के विलय के बाद कांग्रेस बड़ी शक्ति के रूप में उभरेगी, पर इसका उलटा असर हुआ.
भाजपा ने वर्ष 2000 के चुनाव में 34 सीटें जीती. भाजपा को यह मत जनता से झारखंड निर्माण के वायदे के आधार पर मिले थे. भाजपा भी कोई ठोस विकास का मॉडल नहीं पेश कर सकी. इस पार्टी के नेतृत्व की सारी शक्ति छोटे दलों को सरकार चलाने के लिए मनाने में लगी रहती थी. जब कभी विकास की गाड़ी आगे बढ़ाने की कोशिश की, क्षेत्रीय दलों ने इसके चक्के को पंचर कर दिया.
विकास व स्थायित्व की ललक हाल में हुए उत्तर-पूर्व के तीन राज्यों त्रिपुरा, मेघालय व नागालैंड में हुए विधानसभा चुनाव के नतीजे से दिखती है. इन राज्यों में पहले कमजोर गंठबंधन की सरकारें बनती रहीं, जो अस्थिरता की मुख्य वजह रहती थी. अब वहां लोग जागरूक हो गये हैं. वे अपने मताधिकार के प्रयोग के महत्व को समझने लगे हैं. वहां की जनता ने ऐसी सरकार की आवश्यकता महसूस की, जो उसके जीवन स्तर को बढ़ाने के लिए परिस्थति पैदा कर सके.
अगर विकास का मंत्र उत्तर-पूर्वी राज्यों, जहां पॉलिटिक्स ऑफ गन हुआ करती थी, में काम कर सकता है, बिहार जैसे जातिवादी समाज (पॉलिटिक्स ऑफ आइटेंटिटी) में राजनीतिक स्थिरता दिखा सकता है, तो झारखंड में सफल क्यों नहीं हो सकता है! आवश्यकता इस बात की है कि बड़ी पार्टियां अपनी जिम्मेवारी समङो व विकास की बड़ी लकीर खींच कर पूरे झारखंड को एक माला में पिरोने का काम करें, तब राजनीतिक स्थिरता आयेगी. (समाप्त
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)