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नॉर्थ, फोटो .–तुम्ही राम हो, तुम्ही रावण हो

डॉ नीलिमा श्रीवास्तवप्रोफेसर, पीटीपीएस कॉलेज इंट्रो– हम कितने भी पाश्चात्य संस्कृति का ढोल पिटें, किंतु हमारी मानसिकता तो वही पुरातन भारतीय संस्कृति की ही है. आज भी हम अपनी मानसिकता के कारण विजय दशमी के दिन दुष्ट रावण, मेघनाथ और कुंभकर्ण का वध कर प्रसन्नता से फूले नहीं समाते. उन पुतलों में आग लगा कर […]

डॉ नीलिमा श्रीवास्तवप्रोफेसर, पीटीपीएस कॉलेज इंट्रो– हम कितने भी पाश्चात्य संस्कृति का ढोल पिटें, किंतु हमारी मानसिकता तो वही पुरातन भारतीय संस्कृति की ही है. आज भी हम अपनी मानसिकता के कारण विजय दशमी के दिन दुष्ट रावण, मेघनाथ और कुंभकर्ण का वध कर प्रसन्नता से फूले नहीं समाते. उन पुतलों में आग लगा कर अपने कर्तव्य को पूरा करने का संतोष पा लेते हैं. किंतु वह रावण तो अमर है. उसका पुतला जल अवश्य जाता है, परंतु वह मनुष्य के अंदर जीवित रह जाता है. वही रावण परिवेश व संस्कारों की मिट्टी पानी में फैलता फूलता है और अवसर पाते ही किसी सीता, अहिल्या या द्रोपदी की लाज लूटने में सफल हो जाता है.प्रकृति ने नर और नारी दो विपरीत लिंग बना कर इस सृष्टि का सृजन किया है. हिंदू धर्म में मनु और श्रद्धा (सतरूपा) इसलाम में आदम व हब्बा और ईसाई धर्म के अनुसार एडम एवइस के रूप में सृजन प्रक्रिया आगे बढ़ी है. इसी कारणवश विपरीत लिंग के प्रति सहज स्वाभाविक प्रबल आकर्षण सभी जीवों में दिखाई देता है. हमारे प्राचीन धार्मिक ग्रंथों में किसी स्त्री को इच्छा के विरुद्ध उसे छूना जघन्य अपराध ही नहीं अपितु पाप समझा जाता था. उदाहरण स्वरूप सीता, अहिल्या व द्रोपदी जैसी नारियों के ऊपर कुदृष्टि डालने वाले रावण, इंदु व दुर्योधन को जो सजा भुगतनी पड़ी वह जग जाहिर है. आज भी ऐसे पापियों के नाम से हमारे मन में घृणा का संचार हो जाता है. यह घृणा किसी कानून के कारण हममें विकसित नहीं हुई है. यह घृणा हमारे मनोविज्ञान की उपज है. हम कितने भी पाश्चात्य संस्कृति का ढोल पिटें, किंतु हमारी मानसिकता तो वही पुरातन भारतीय संस्कृति की ही है. आज भी हम अपनी मानसिकता के कारण विजय दशमी के दिन दुष्ट रावण, मेघनाथ और कुंभकर्ण का वध कर प्रसन्नता से फूले नहीं समाते. उन पुतलों में आग लगा कर अपने कर्तव्य को पूरा करने का संतोष पा लेते हैं. किंतु वह रावण तो अमर है. उसका पुतला जल अवश्य जाता है, परंतु वह मनुष्य के अंदर जीवित रह जाता है. वही रावण परिवेश व संस्कारों की मिट्टी पानी में फैलता फूलता है और अवसर पाते ही किसी सीता, अहिल्या या द्रोपदी की लाज लूटने में सफल हो जाता है. आज बलात्कारी पुरुषों में उसी रावण का रक्तबीज अंकुरित हो चुका है. इस रक्तबीज को अंकुरित करने के सहायक कुछ तत्व हैं. जिन्हें कानून ने भी नजर अंदाज किया है और विभिन्न टीवी चैनलों पर चल रही परिचर्चाओं में भी तवज्जो नहीं दी गयी है. इन चर्चाओं में वे महानुभाव अथवा विदूषिया बैठ कर परिचर्चा करती है, जिनका न तो समाज के उस संवेदनशील हिस्से से कोई सरोकार है न एक मध्य वर्गीय बेटी के माता-पिता के मन में छिपी माया व बेचैनी से कोई वास्ता है. यह सर्वविदित है कि भारतवर्ष का लगभग अधिकांश हिस्सा पुरुष प्रधान है. इस पुरुष प्रधान समाज ने सदा से स्त्री को अपने पैरों की जूती मान सदियों से वो ये मानते रहे हैं कि स्त्री उपभोग की वस्तु है. एक चीज है, जो पुरुषों के उपयोग के लिए ही बनी है. जाहिर है जब नये जमाने की चेतना ने स्त्री को उसके अस्तित्व का एहसास कराया, तो उसने अपने आप को अबला मानने से इनकार किया. वह अपनी पहचान अपनी अस्मिता की लड़ाई लड़ने के लिए कमर कस कर तैयार हो गयी. अब तक अबला कही जाने वाली स्त्रियों ने अपनी शक्ति का प्रदर्शन भी करना प्रारंभ किया. सदियों से चले आ रहे वर्चस्व को चुनौती मिलने लगे यह असहनीय था. यही चुनौती धीरे-धीरे कुंठा बन कर इन पुरुषों के दिलों दिमाग में गहरे बैठती गयी. कल तक जो स्त्री उनके पैरों की जूती थी, आज वो उनकी बराबरी कैसे कर सकती है. इसी एहसास ने उन कुंठित पुरुषों के मन में स्त्रियों के प्रति हिंसक मनोवृत्ति को पुष्ट किया. उत्तरप्रदेश के तमाम सामूहिक बलात्कार की घटनाएं इस तथ्य को सिद्ध करती है. इन दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं की पृष्ठभूमि में एक और महत्वपूर्ण तथ्य वह है- विज्ञापन कंपनियों द्वारा सस्ती लोकप्रियता हासिल करने की चाह रखने वाली मॉडलों की सुंदरता का दुरुपयोग. विज्ञापन कंपनी के इशारे पर ये मॉडल अपने देह प्रदर्शन में किसी भी सीमा रेखा को पार करने में संकोच नहीं करती. वह विज्ञापन बाइक का हो, साबुन का या कंडोम का, बिना नारी देह के परोसे पूरा नहीं होता. यही नहीं आफ्टर शेव या डियो जैसी पुरुषों के काम में आने वाली वस्तु भी नारी शरीर के प्रदर्शन की मोहताज है. चिंता की बात यह है कि विगत दो दशकों में विज्ञापन, फिल्मे, इंटरनेट की साइटस या विभिन्न मनोरंजन, स्पोर्ट्स, न्यूज चैनलों पर यह अश्लीलता जितनी परोसी जा रही है, उसकी गति रुकने का नाम ही नहीं ले रही. इस अश्लीलता का हमारे बच्चों पर क्या प्रभाव पड़ रहा है, इसकी चिंता ना ही समाज को है, ना सरकार को और ना ही कानून के रखवालों को. समाज की नैतिकता कहीं खोती चली जा रही है. रिश्ते तार-तार हुए जा रहे हैं. प्रत्येक दिन समाचार पत्र की सुर्खियां पिता द्वारा पुत्री के, भाई द्वारा बहन व पड़ोसी द्वारा तीन साल की मासूम बच्ची के बलात्कार की खबरों से रंगी होती है. कहीं पति अपनी पत्नी को अपने बॉस के हवाले कर देता है. इन घटनाओं को पढ़ कर लगता नहीं है कि इनसानियत कहीं जिंदा है. समाज की ये घटनाएं जो थाने में दर्ज होती हैं, उनके आंकड़े तो आ जाते हैं, किंतु जो घटनाएं लोक लाज या किसी दबाव में आकर परदे में रह जाती हैं, उनकी संख्या यदि इन आंकड़ों में जोड़ दी जाये, तो स्थिति की भयावहता हमारे होश उड़ा देगी. आज पानी सिर के ऊपर आ रहा है. यदि समय रहते सरकार नहीं चेती, तो पूरा देश अराजकता के तूफान में बह जायेगा. इस अराजकता से बचने का एक मात्र उपाय है समाज में जागरूकता लाना. अपनी रूढ़ हो चुकी धारणाओं के चंगुल से मुक्त होकर अपने बेटों में स्त्री के प्रति सम्मान का भाव जागृत करना. मानवीय रिश्तों का मान रखना भी परिवार में रह कर सीखा जा सकता है. आज बेटियां भी अपने देश, समाज तथा माता-पिता का नाम रोशन करने में सक्षम हैं, तो उन्हें भी उनकी प्रतिभा को निखारने का समान अवसर मिलना चाहिए. यही नहीं उन्हें आत्मरक्षा में कुशल बनाना भी हमारी ही जिम्मेदारी बनती है. दुर्भाग्यवश जो बेटियां विकृति का शिकार हो जाती है, उनके प्रति दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति के प्रति जो संवेदना होती है वैसी ही संवेदना रखनी होगी. किंतु होता इसके ठीक विपरीत है. समाज के नियमों के दायरे में यही स्त्री है, तो पुरुष पर भी मर्यादा का बंधन उतनी ही कड़ाई से लागू होना चाहिए. पुरुष मर्यादित रहेगा, तभी एक स्वस्थ समाज व स्वस्थ देश का निर्माण होगा. इस दुरूह कार्य को संपन्न करने का दायित्व मातृशक्ति को ही निर्वहन करना होगा. उन्हें ही अपने लाडलों में बाल्यकाल से ही संस्कार रूप में स्त्री का सम्मान रिश्तों का मान रखने की सीख देनी होगी. अपने बच्चों पर सदैव विश्वास रखते हुए एक तीसरी आंख खुली रखने की आवश्यकता होगी, जो मां अपने बच्चों का व्यक्तित्व निर्माण सावधानी पूर्वक करेगी. कदाचि पैदा नहीं होगा. क्योंकि मनुष्य के भीतर ही राम और रावण दोनों बसते हैं. परिवेश और संस्कारवश कोई राम तो कोई रावण बन जाता है. सिर्फ बेटों को ही नहीं अपितु बेटियां की सच्ची सहेली बन कर मां उसका सही मार्ग दर्शन कर सकती है. अपनी संतान के प्रति माता-पिता की जिम्मेवारी होती है कि वह अपने बच्चों के मन को समझे. बच्चों में विश्वास जगाये कि उसके माता-पिता विशेष रूप से मां कदम-कदम पर उनके साथ थे. इतिहास गवाह है कि मातृशक्ति ने ही जीजाबाई के रूप में शिवाजी जैसे महान शासक की संरचना की थी. विवेकानंद की माता ने ही उनमें वो संस्कार भरे, जो आज भी प्रत्येक युवा का आदर्श और प्रेरणास्त्रोत है. आज एक सानिया मिर्जा, कल्पना चावला, मेरी कॉम, किरण बेदी जैसे नाम भारत के स्वतंत्र आकाश में गूंज रहे हैं. यदि देश की सभी बेटियों को उचित मार्ग दर्शन मिले, तो भारतीय आकाश पर असंख्य नाम छा जाये. देश की उन तमाम बेटियों के लिए इन दो पंक्तियों में श्रद्धा सुमन अर्पित है, जो विगत महीनों में बलात्कार की शिकार हो कर पेड़ों पर लटका दी गयी. कल तक वो मासूम सी नन्ही सी परी जिस पेड़ की डाल पर झूला करती थी आज उसी पेड़ पर उसकी निर्मल काया झूल गयी.

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