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झारखंड लिटरेरी मीट : भारतीयता की पुनर्व्याख्या जरूरी : अशोक वाजपेयी
रांची : प्रसिद्ध कवि, साहित्यकार व साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता अशोक वाजपेयी ने होटल बीएनआर में आयोजित झारखंड लिटरेरी मीट में वरिष्ठ पत्रकार और प्रभात खबर के प्रधान संपादक आशुतोष चतुर्वेदी के साथ अपनी बातें साझा की. लेखन में जीवन विषय पर बातें करते हुए श्री वाजपेयी ने साहित्य के भविष्य पर बातें की. साहित्य […]
रांची : प्रसिद्ध कवि, साहित्यकार व साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता अशोक वाजपेयी ने होटल बीएनआर में आयोजित झारखंड लिटरेरी मीट में वरिष्ठ पत्रकार और प्रभात खबर के प्रधान संपादक आशुतोष चतुर्वेदी के साथ अपनी बातें साझा की. लेखन में जीवन विषय पर बातें करते हुए श्री वाजपेयी ने साहित्य के भविष्य पर बातें की. साहित्य के क्षेत्र में युवाओं के आगमन पर चर्चा की. महत्वपूर्ण टिप्स भी दिये.
आयोजन पर टिप्पणी करते हुए कहा : तमाशे का भी मूल्य होता है. कुछ लोग तमाशा देखने में अटक जाते हैं. उनको मजा आने लगता है. यही हाल साहित्य का भी है. इसी तरह नये लोग लिटरेरी मीट में आयेंगे. किताबें लेंगे. पढ़ेंगे और आगे बढ़ेंगे. चिंता जतायी : लोगों में पढ़ने की रुचि खत्म हो रही है. यह अच्छा नहीं है. लंदन और पेरिस जैसे शहरों में किताबों की दुकानों पर भारत की मिठाई दुकानों जैसी भीड़ लगी रहती है. आज कल युवा गूगल पर ज्ञान खोजते हैं. पर, उनको समझना होगा गूगल आनंददाता है, ज्ञानदाता नहीं. ज्ञान गूगल पर पैदा नहीं होता. ज्ञान कहीं और ऊपजता है फिर गूगल पर जाता है. भारत में पश्चिमी सभ्यता के बढ़ते प्रभाव पर उन्होंने कहा कि आज हमारी शिक्षा व्यवस्था ऐसी हो गयी है कि जो व्यक्ति जितना ज्यादा पढ़ा, वह संस्कृति से उतना दूर हो गया.
बदलते परिदृश्य में भारतीयता की पुनर्व्याख्या जरूरी है. तकनीक स्वतंत्रता को विस्तार दे रहा है. पर व्यवस्था में असहमति का स्पेस लगातार कम रहा है. यह लोकतंत्र का स्पेस कम होने जैसा है. भारतीय परंपरा में ऋग्वेद के समय से ही असहमति को पूरा सम्मान दिया गया है. सोशल मीडिया के जरिये अपनी राय व्यक्त करने वालों को जिम्मेदार नागरिक बनना होगा. संवदेनशील होना होगा.
साहित्य और संस्कृति की उपेक्षा ठीक बात नहीं
मीडिया में साहित्य और संस्कृति की उपेक्षा पर श्री वाजपेयी ने कहा कि हिंदी मीडिया में साहित्य और संस्कृति की उपेक्षा होना ठीक नहीं है. हिंदी समाज का सांस्कृतिक क्षरण खतरनाक और दु:खद है. हिंदी मीडिया पूरी तरह राजनेता, अपराधी, फिल्म स्टार और खिलाड़ियों के इर्द-गिर्द घूम रही है. साहित्य और कला के प्रति उनकी दिलचस्पी का ना होना दु:खद है. वैसे भी हिंदी समाज ने हमेशा से अपने साहित्य के साथ अन्याय किया है.
समाज का सच्चा प्रतिपक्ष साहित्य में ही है. आज राजनीति में कोई प्रतिपक्ष नहीं है. हर कोई नागनाथ-सांपनाथ की तरह है. ऐसे में साहित्य और संस्कृति के विस्तार पर ध्यान देना बहुत जरूरी है. अखबारों की भाषा पर उन्होंने कहा : आम बोलचाल की भाषा का इस्तेमाल अखबारों में होना बढ़िया है.
पर, इसमें विसंगतियां भी हैं. मर्यादा के अंदर भाषा में बदलाव होना ही चाहिए. लेकिन, अंगरेजी के आतंक में यह बदलाव सही नहीं है. मैंने रांची में कलेक्टर ऑफिस का नाम समाहरणालय देखा. यह सही नहीं है. कलेक्टर, कमिश्नर जैसी बातें हिंदी ही है. सभी लोग समझते हैं.
इसे दूसरी भाषा के तौर पर नहीं लिया जाना चाहिए. श्री वाजपेयी ने कहा कि आज मीडिया ने भाषा के प्रति लापरवाही बरतनी शुरू कर दी है. उनकी भी जिम्मेवारी है. भाषा के विकास के लिए मीडिया को भी अपनी जिम्मेवारी निभानी होगी. बाद में श्री वाजपेयी ने दर्शकों की सवालों के जवाब भी दिये.
पुरस्कार वापसी ने प्रदर्शित किया विरोध
बातचीत के दौरान श्री वाजपेयी ने माना कि साहित्य अकादमी पुरस्कार वापसी जानबूझ कर किया गया नाटक था. समाज में बढ़ती असहिष्णुता के खिलाफ विरोध प्रदर्शन के लिए किया गया नाट्यकर्म था. लेकिन, इस नाटक ने लोगों का ध्यान मुद्दे की ओर खींचा. पहले कभी किसी बुद्धिजीवी या साहित्यकार को गोली नहीं मारी गयी. साहित्यकारों के पुरस्कार वापस करने से बढ़ती असहिष्णुता का मुद्दा मीडिया के माध्यम से लोगों की चर्चा का विषय बना.
आदिवासी गोरे और काले में कोई फर्क नहीं करते
रांची : टाटा स्टील झारखंड लिटरेरी मीट के दूसरे सत्र में ‘इतिहास और पहचान साहित्य क्षेत्रीय इतिहास का दर्पण है’ पर अश्विनी कुमार पंकज और परदेशी राम वर्मा ने आदिवासी संस्कृति, पहचान और उनकी अस्मिता पर व्यापक चर्चा की. परिचर्चा को वरिष्ठ पत्रकार राजेंद्र तिवारी ने आगे बढ़ाया.
जनजातीय अधिकार से जुड़े लेखक अश्विनी कुमार पंकज ने कहा कि किवट की धरती पर आदिवासियों ने सभ्यता की नींव रखी है. उनके अनुसार आदिवासियों का त्रिशूल, खोड़हा ही इतिहास और संस्कृति की पहचान कराता है. उनका कहना था कि क्षेत्रीय साहित्य में बिरसा मुंडा, सिनगी दई, कैनी दई, सिदो-कान्हू या छत्तीसगढ़ की गोंड रानी का जिक्र नहीं है. इतिहास और संस्कृति की तीन अवधारणाएं हैं. पहले में धार्मिक इतिहास और पौराणिक गाथाओं का जिक्र किया गया है. दूसरे में बेजान पत्थरों, मूर्तियों का जिक्र है. जो खंडहरों में तब्दील हो गये हैं और ताम्रपत्र में लिखे शब्दों के आधार पर इतिहास बयां करते हैं.
तीसरे में आमजनों के वे गीत हैं, किस्से हैं, जिसे इतिहास माना जाता है.हर कही हुई बात, अनुभव, सत्य जो अनुभव होता है, वही इतिहास है. उनके अनुसार जब 1928 में साइमन कमीशन आया था, तो उस समय आदिवासियों के नेतृत्वकर्ता जोएल लकड़ा ने आदिवासियों के मौलिक अधिकारों की बात कही थी. जोएल ने कहा था कि आध्यात्मिक सांस्कृतिक व्यवस्था चलाने वाली व्यवस्था (पड़हा, डोकलो, सोहोर आदि) तो आदिवासी स्वशासन का हिस्सा हैं. इसे मान्यता दी जानी चाहिए. खूंटी, कर्रा, लोधमा के गांव इसलिए अच्छे हैं क्योंकि वे फ्रांस, इटली जाते नहीं हैं. आदिवासी, मुंडा, हो, चेरवार का वर्गीकरण कुछ खास तथाकथित लोगों ने किया है. आदिवासी अपने आप को होड़ (मनुष्य) कहते हैं. वे गोरे और काले में फर्क नहीं करते हैं. मुंडा, दिशोम, खोड़हा में भेद नहीं करते हैं.
छत्तीसगढ़ से आये परदेशी राम वर्मा ने कहा कि मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने गुरु घासीदास की महिमा का बखान किया और शौर्य गाथाओं पर आधारित वीर नारायण सिंह को स्थापित किया. छत्तीसगढ़ की आदिवासी संस्कृति अलग है. वहां चूड़ी पहनाने की परंपरा का पालन करनेवाले (परित्यक्ता का विवाह) को पुरानी जाति का बताया जाता है. यहां के 90-95 फीसदी आदिवासी परंपरागत संस्कृति से जुड़े हैं. नवगठित राज्यों की अपनी मातृभाषा हिंदी नहीं है.
उनके अनुसार कमलेश्वर ने अपनी लेखनी में क्षेत्रीय साहित्य को बेहतर तरीके से शब्दों में पिरोया. बिलासपुर के पिंडरा गांव की कहानी टोकरी भर मिट्टी में एक बुढ़िया के जुनून, विलक्षण प्रतिभा और सामंतवादी ताकतों से भिड़ने की कोशिश का बेहतर तरीके से दृश्यांकन किया गया है. इसमें यह संदेश दिया गया है कि कैसे एक बूढ़ी मां ने अपनी जवानी की स्मृति (मिट्टी) को अपने साथ रखने की हिम्मत दिखायी. उन्होंने कहा कि छत्तीसगढ़ी सीधे-सादे होते हैं. वे डोकरी दाई की कहानी से ही जवान होते हैं. छत्तीसगढ़ में मेहरुनिशा-परवेज की कहानी भी परंपरा पर आधारित है.
विकास करें, पर अपना अतीत भी संरक्षित रखें
सवाल : क्या अापकी कहानियों का गांव भारत का सही प्रतिनिधित्व करता है?
जवाब : भारत के किसान अपनी बैलगाड़ी से प्यार करता है. ठीक उसी तरह, जैसे हम शहरी अपनी चीजों से करते हैंं. बदलाव तो हर जगह हो रहे हैं. विकास एक सतत प्रक्रिया है.
पर मैं समय की कद्र करता हूं. हमें अपना अतीत भी संरक्षित रखना चाहिए. इस नाते हमारे गांवों का अपना महत्व है. ब्रिटेन व अन्य दूसरे देशों में पुराने स्टीम इंजन व उनके कुछ मार्ग संरक्षित रखे गये हैं. पर भारत में एेसा नहीं किया जा रहा है. दरअसल, आज के अाधुनिक विकास पर कई ग्रामीण हंसते हैं. विकास केवल एकेडमिक सीख का मामला नहीं है. भारत अपने ज्ञान व परंपरा के आधार पर भी बेहतर विकास कर सकता है. योग की तरह हमें अपने पारंपरिक ज्ञान को सहेजना होगा.
सवाल : आप बीबीसी में 30 साल तक पत्रकार रहे. इससे पहले रेडियो ब्रॉडकास्टर भी. ब्रॉडकास्टर होना कैसा था?
जवाब : यह बहुत मजेदार काम था. ब्रॉडकाॅस्टिंग में कंटेंट बहुत होते हैं. रेडियो को आज भी मैं सबसे बेहतर माध्यम मानता हूं. श्रोता आपको आपकी आवाज से महसूस करता है. उसी तरह आपकी छवि बनाता है. एक बार एक महिला मुझसे स्टूडियो में मिलने आ गयी. कहा कि वह मुझे अपना दोस्त मानती है. यह रोमांच टीवी में नहीं है.
सवाल : भारत में रेडियो सुनना कम हो रहा है, ऐसा क्यों?
जवाब : रेडियो के लिए आपके पास सुनने की क्षमता होनी चाहिए. समाचार व दूसरे गंभीर विषयों से रेडियो का महत्व बढ़ता है. पर आजकल जो व्यावसायिक रेडियो हैं, उनका मनोरंजन से ज्यादा वास्ता है. अोड़िशा में एक रेडियो चॉकलेट है. अब इससे अाप किस गंभीरता की उम्मीद करेंगे.
सवाल : आपकी किताब वंस अपॉन ए टाइम का सब टाइटल है इन द हर्ट अॉफ इंडिया. दोनों शीर्षक क्या अर्थ रखता है?
जवाब : वंस अपॉन ए टाइम में कुछ पुरानी कहानियां हैं, जैसी हम अपनी मां से सुना करते थे. इसमें परियों वाली कहानी का भाव है. इन द हार्ट अॉफ इंडिया में पूर्वांचल से जुड़ी कहानियां हैं. मैं मानता हूं कि पूर्वांचल ही भारत का हृदय है. हमारी पीढ़ियां व वंशज भी वहीं से जुड़े रहे हैं.
सवाल : आपके लेखन में ज्यादातर भारत का ग्रामीण परिवेश ही क्यों रहता है?
जवाब : यह सच है कि मैं ग्रामीण परिवेश पर ही लिखता हूं. मेरा मानना है कि शहरी परिवेश के बारे जरूरत से ज्यादा लिखा गया है. पर भारत के ग्रामीण जीवन पर अभी बहुत कुछ कहना बाकी है. मैं मुंशी प्रेमचंद से भी प्रेरित हूं.
सवाल : मार्क टली की नजर में असली भारत क्या है?
जवाब : असली भारत अपनी परंपरा, अपनी संस्कृति, अपने मूल्यों से प्यार करता है. इन्हें अापसी विमर्श, चर्चा व बहस अच्छा लगता है. असली भारत के लोग एक दूसरे के अनुभव से सीखते हैं. इन्हें प्रकृति से भी प्यार है. जबकि पश्चिम भौतिकतावादी व प्रकृति की कीमत पर विकास करने वाला है.
सवाल : भारत के जातिवाद पर आप क्या कहेंगे. अापकी कहानी बैटल फॉर ए टेंपल (एक मंदिर के लिए झगड़ा) का अंत शांतिपूर्ण समाधान से होता है?
जवाब : जातिवाद समुदाय के साथ आने तथा सामूहिक प्रयास से ही खत्म होंगे. कई बार यह साहस के साथ सच्चाई बयां करने की भी मांग करते हैं.
सवाल : आप पत्रकार से काल्पनिक (फिक्शन) कथा लेखक बने. क्या अंतर लगता है?
जवाब : अंतर तो है. पत्रकार होने के नाते आपको तथ्यों के साथ बहुत परफेक्ट (सही) होना पड़ता है. यहां आप तथ्य से बंधे हैं. पर फिक्शन में बड़ा स्कोप है. हालांकि, अच्छी पत्रकारिता भी मुद्दों पर कहानियां लिखना ही है. पर आधुनिक पत्रकारिता में यह कम हो रहा है.
श्रोता के सवाल : मीडिया में इन दिनों विचार ज्यादा परोसे जा रहे हैं. क्या इससे इसकी विश्वसनीयता घट रही है?
जवाब : रिपोर्ताज में विचार नहीं परोसने चहिए. ऐसा करना इसे बर्बाद करना है. इसका प्रभाव विश्वसनीयता पर भी पड़ता है.जामिया मिलिया विवि में अंगरेजी की प्रोफेसर व लेखक अाइवी इमोजिन हंसदक ने मार्क टली से उनकी पत्रकारिता व लेखन सहित अन्य सामयिक मुद्दों पर बात की है. टाटा स्टील के तत्वावधान में आयोजित टाटा स्टील झारखंड लिटरेरी मीट के पहले दिन हुई इस बातचीत में हंसदक ने मार्क से कई सवाल पूछे. यहां उनकी बातचीत के महत्वपूर्ण अंश दिये जा रहे हैं.
सवाल जो पूछे गये
सवाल : जयपाल सिंह मुंडा के नेतृत्व में 1928 में भारत ने हाॅकी का गोल्ड ओलिंपिक में जीता था. तो क्या साइमन कमीशन को यह मालूम नहीं था कि गोल्ड मेडल जीतनेवाले का नेतृत्व एक आदिवासी व्यक्ति ने किया?
जवाब : इस पर अश्विनी कुमार पंकज ने कहा कि मेजर ध्यानचंद ने अपने अनुभव में जयपाल सिंह मुंडा के बारे में लिखा था. जयपाल सिंह ने हाॅकी के मैदान में वास्तविक स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ी थी. आइसीएस की नौकरी छोड़ी थी. उन्होंने नेहरू जी से कहा था कि आदिवासियों के लिए कल-कारखाने कब्रगाह साबित होंगे. इसलिए हमें 50 के दशक का इतिहास जानना होगा. जिसमें नेहरू-गांधी, मो जिन्ना, बाबा साहेब आंबेडकर और जयपाल सिंह मुंडा के बारे में जानना होगा.
सवाल : आदिवासी निश्छल हैं. प्रकृति से जुड़े हैं. उनके भाव संस्कृति को कलमबद्ध नहीं होते. इन्हें नेचुरल फाॅर्म में कैसे लाया जाये?
जवाब : परदेशी राम वर्मा ने इस सवाल के जवाब में कहा कि तीन चार वर्षों में छत्तीसगढ़ से कई आदिवासी पत्रिकाएं प्रकाशित होने लगी हैं. आदिवासी सत्ता उनमें से एक है, जिसकी 20 हजार प्रतियां प्रकाशित होती हैं. इनमें जो लेख छपते हैं, वैसे लेखक सच्ची निष्ठा से काम करते हैं. उनमें छटपटाहट और व्याकुलता नहीं रहती है. सामान्य भाषा में लेख छपते हैं. हाल ही में चर्चित आदिवासी कहानियाें का संग्रह छपा. इसमें 20 लेखकों में से 18 गैर आदिवासी थे. आदिवासी अपनी सरलता और कबीरपंथी से जाने जाते हैं.
अभिजीत की कॉमेडी में नॉर्मल लाइफ की बातें
रांची : टाटा लिटरेरी फेस्टिवल के पहले दिन की शाम स्टैंड अप कॉमेडियन अभिजीत गांगुली के नाम रहा. बंगाली परिवार से ताल्लुक रखने वाले अभिजीत ने अपने सेग्मेंट में उन सामान्य सी बातों को उठाकर लोगों को हंसाया, जो सामान्य लाइफ में हर किसी के जीवन में घटित होती हैं.
छह सालों से स्टैंडअप कॉमेडी करते अभिजीत ने अपनी कॉमेडी के दौरान स्टूडेंट लाइफ, रिलेशनशिप, मिडिल क्लास लाइफ जैसे विषयों को बड़े रोचक अंदाज में उठाया. कैसे एक सामान्य आदमी की लाइफ शादी से पहले ओर शादी के बाद होती है, उसे अपने चुटकुलों में बताकर लोगों को हंसाया. आधे घंटे के अधिक के सेग्मेंट में लोगों के चेहरे पर मुस्कान बरकरार रही.
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