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सोच का दायरा बढ़ाना होगा
आदिवासी विकास : मुद्दे और चुनौतियां विषय पर राष्ट्रीय संगोष्ठी शुरू मेदिनीनगर : झारखंड उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति डीपी सिंह ने कहा कि आजादी के बाद से ही आदिवासियों के विकास के लिए प्रयास चल रहे हैं. आदिवासी मूल रूप से जल,जंगल और जमीन से भावनात्मक रूप से जुड़े रहते हैं. लेकिन विकास के […]
आदिवासी विकास : मुद्दे और चुनौतियां विषय पर राष्ट्रीय संगोष्ठी शुरू
मेदिनीनगर : झारखंड उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति डीपी सिंह ने कहा कि आजादी के बाद से ही आदिवासियों के विकास के लिए प्रयास चल रहे हैं. आदिवासी मूल रूप से जल,जंगल और जमीन से भावनात्मक रूप से जुड़े रहते हैं. लेकिन विकास के नाम पर आदिवासियों की जमीन का अधिग्रहण कर लिया जा रहा है,उन्हें विकास के सपने दिखाये जाते हैं.
लेकिन अपनी जमीन देकर भी आदिवासी अपनी हालत को नहीं बदल पा रहे हैं और न ही उनकी हालत को बदलने के लिए शासन-प्रशासन द्वारा अपेक्षित पहल की जा रही है.
यही कारण है कि आजादी के इतने दिनों के बाद भी आदिवासी विकास के मुद्दे चुनौती के रूप में समाज के समक्ष खड़ा है. इन चुनौतियों से निबटने के लिए यह जरूरी है कि सरकार के साथ-साथ समाज के प्रबुद्ध लोग भी आदिवासी समाज को विकास की प्रक्रिया में भागीदार बनाने के लिए अपनी सक्रिय भूमिका अदा करें. तभी इस तरह की चर्चा सार्थक होगी. श्री सिंह मेदिनीनगर के गुरुतेग बहादुर मेमोरियल हॉल में यूजीसी द्वारा संपोषित दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का उदघाटन करने के बाद बोल रहे थे.
इस संगोष्ठी का विषय आदिवासी विकास : मुद्दे और चुनौतियां हैं. इसका आयोजन जनता शिवरात्रि कॉलेज के मनोविभाग विज्ञान द्वारा किया गया था. जबकि आयोजन सहयोगी की भूमिका जीएलए कॉलेज द्वारा निभाया जा रहा है. उदघाटन सत्र की अध्यक्षता नीलांबर-पीतांबर विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ एएन ओझा ने की. संचालन नीलांबर-पीतांबर विश्वविद्यालय के पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग के प्रभारी डॉ कुमार वीरेंद्र ने किया. सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति श्री सिंह ने कहा कि खनिज व वनसंपदा जंगलों में है. आदिवासी प्रकृति और जंगल से भावनात्मक रूप से जुड़े हुए हैं. जंगलों से अपनापन का भाव आदिवासियों का है. औद्यौगिक विकास में जंगल उजड़ रहे हैं. पर्यावरण पर संकट है.
साथ ही इससे जुड़ाव रखने वाले आदिवासी समाज भी आज हाशिये पर हैं. जंगलों से खनिज संपदा निकल रहा है. इससे करोड़ों-अरबों कमाये जा रहे हैं, पर उसका वास्तविक मालिक आदिवासी समाज आज भी वहीं खड़ा है, जहां कल था. इसलिए यह जरूरी है कि इस पहलू पर शासन में बैठे लोग गंभीर होकर सोचे. उच्च न्यायालय के अधिवक्ता मनोज टंडन ने कहा कि आदिवासियों को उनकी जमीन से बेदखल करने की साजिश चल रही है. इसे भी समझने की जरूरत है. कुलपति डॉ एएन ओझा ने कहा कि गंभीर मुद्दों पर चर्चा के पहले इस पर गौर करना जरूरी है कि जिसके लिए चर्चा हो रही है, वह उन बातों को गंभीरता से ले पा रहा है या नहीं. यह सही है कि आज आदिवासी समाज का अपेक्षित विकास नहीं हुआ है.
विकास के रास्ते कैसे तैयार हों, इसके लिए पहल होनी चाहिए. कुलपति ने उम्मीद जतायी कि दो दिवसीय संगोष्ठी में जो बातें निकल कर आयेंगी, वह आदिवासी समाज के विकास में सहायक सिद्ध होगी. समस्या तो है, पर बुद्धिजीवियों को समाधान के रास्ते भी सुझाने चाहिए. साथ ही आदिवासी समाज के मुद्दे व चुनौतियों पर और अध्ययन की जरूरत है. अंधविश्वास व अशिक्षा से आदिवासी समाज दूर हो, इस पर भी काम करने की जरूरत है. आयोजन सचिव डॉ मृत्युंजय कुमार ने विषय प्रवेश कराया. कहा कि दो दिवसीय संगोष्ठी में ढाई से तीन सौ लोग भाग ले रहे हैं. उम्मीद है यह गोष्ठी अपने उद्देश्यों में सफल होगा.
स्वागत भाषण आयोजन समिति के अध्यक्ष प्रो आरएन चौबे ने दिया. मौके पर कुलसचिव डॉ अमर कुमार सिंह,जीएलए कॉलेज के प्राचार्य डॉ जयगोपालधर दुबे आदि ने अपने विचार व्यक्त किये. दूसरे सत्र की मुख्य वक्ता रांची मेयर आशा लकड़ा, डॉ वीपी केसरी के अलावा दिल्ली, रांची, हजारीबाग आदि जगहों से आये वक्ताओं ने अपने विचार व्यक्त किये. कार्यक्रम की अध्यक्षता प्रो एससी मिश्र व संचालन प्रो राघवेंद्र कुमार ने किया.
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