एक्सएलआरआइ में पिछले दो दिनों से चल रहे ऑन्सेंबल के आखिरी दिन सुपर-30 के संस्थापक आनंद कुमार को खास तौर पर बुलाया गया था. उन्हें आज के दौर में बदलते एजुकेशन सिस्टम के साथ-साथ युवाओं में पढ़ाई कर खुद के परिवार को ज्यादा से ज्यादा सुख देने की भूख कितना सही है, इस विषय पर उन्हें बोलने के लिए बुलाया गया था. इसमें स्कूली बच्चों के अलावा समाज के हर वर्ग के लोगों ने हिस्सा लिया. इस दौरान सबसे पहले उनका परिचय दिया गया. इसके बाद जब उन्होंने बोलना शुरू किया तो फिर पूरी तरह से छा गये. कार्यक्रम के अंत में प्रो. प्रबल सेन ने विद्यार्थियों को सफलता के मंत्र दिये और कहा कि किसी भी बिजनेस को करने में संकल्प और कटिबद्धता का होना अनिवार्य है. रिस्क को ङोलने की क्षमता और उससे निकलने का तरीके से एक सफल उद्यमी की पहचान होती है. उन्होंने हर किसी में एक विजन का होना अनिवार्य बताया. सबसे अंत में कहा कि समाज से हमें बहुत कुछ दिया है, लेकिन अक्सर जब लोग सफल हो जाते हैं चाहे वे छात्र हों या फिर कोई और, सफल होने के बाद हम समाज को वापस कुछ भी नहीं देते हैं. लेकिन ऐसा नहीं होनी चाहिए. समाज को रिटर्न करने की प्रवृत्ति हममें जागृत होनी चाहिए. उन्होंने हर किसी में पूरा नहीं बल्कि थोड़ा सा आनंद कुमार के जगने की बात कही.
एयर फेयर नहीं था
मैं गांव के सरकारी स्कूल में पढ़ता था. मुङो शुरू से ही अच्छे टीचर मिले. मैथ में मुङो बहुत ज्यादा रुचि थी. इसकी वजह से ही मुङो आगे की पढ़ाई के लिए यूनिवर्सिटी ऑफ कैंब्रिज में पढ़ाई करने का ऑफर मिला. उस वक्त मेरी आर्थिक स्थिति यह थी कि मेरे पास एयर फेयर भी नहीं था. मेरी हालत की जानकारी मेरे शिक्षक को हुई. उन्होंने मुङो तत्कालीन शिक्षा मंत्री से मिलने को कहा. एक कार्यक्रम के दौरान उनसे मुलाकात हुई और उन्होंने कहा कि कल 11 बजे घर पर चले आना. यह 1994 की बात है. मैं 11 बजे से पहले ही उनके दरवाजे पर पहुंचा. वहां मेरे से पहले ही कई नेता मौजूद थे. सबके बीच मुङो भी बैठने को कहा गया. मंत्री जी मेरी ओर देख ही नहीं रहे थे. वे करीब आधे घंटे तक अपनी चुनावी रणनीति में लगे रहे, फिर मैं ने उनसे कहा कि सर, आपने मुङो बुलाया था. इस पर मंत्री जी ने कहा कि यहां तो सभी को बुलाया जाता है, तुम भी आये हो कुछ देर बैठो. कुछ देर बैठने के बाद मैंने फिर मंत्री ने कहा – सर, मुङो पढ़ाई के लिए विदेश जाने के लिए आप पैसे देने वाले थे, मंत्री जी ने फिर कहा कि देखो, विदेश जाओ लेकिन वापस लौट कर भारत ही आना. विदेशी मत बन जाना. जाओ, जाओ विदेश जाओ. इसके बाद फिर वे नेताओं के साथ बातें करने लगे. कुछ देर के बाद आनंद कुमार ने फिर कहा कि सर तब मैं जाता हूं. मंत्री महोदय का जवाब इस बार भी था कि ठीक है जाओ लेकिन आते रहना. मंत्री जी के घर से बाहर निकलने के बाद दोनों आंखों में आंसू लिये मैं निकला. मन में अजीब-अजीब ख्याल आ रहे थे. इस पर सड़क के दूसरी ओर एक चाय बेचने वाले ने उन्हें बुलाया और कहा कि भाई क्या हुआ, क्यों परेशान हो? आनंद ने बताया कि मंत्री जी ने पैसे देने के लिए बुलाया था, पैसे तो नहीं दिये लेकिन बेइज्जती खूब की. इस पर चाय वाले की पहली प्रतिक्रिया थी – कहां फंसे हो .. पिछले दो महीने से उधारी के चाय पी रहे हैं. आज तक पैसे नहीं मिले हैं. ये आपको कहां से पैसे देंगे.
.. पापा के देहांत के बाद संभलना मुश्किल था
कैंब्रिज यूनिवर्सिटी में दाखिले के लिए 1 अक्तूबर 1994 को जाना था, लेकिन इससे पहले ही 23 अगस्त 1994 को ही पिताजी को हार्ट अटैक आया. किसी तरह से पिताजी को पीएमसीएच पहुंचाया, लेकिन तब तक पिता जी इस दुनिया को छोड़ चुके थे. इसके बाद मेरे पास सिर्फ एक ही चारा था कि अनुकंपा के आधार पर पापा की नौकरी कर लूं. पापा ट्रेन में चिट्ठी छांटने (डाक विभाग) का काम करते थे. मैंने नौकरी नहीं करने का फैसला लिया. इस लिए क्योंकि नौकरी में मैं अपनी गणित की प्रतिभा को दिखा नहीं पाता. इस फैसले से मां को काफी परेशानियों का सामना करना पड़ा. वह घर में पापड़ बनाती थी और हम दोनों भाई शाम में पापड़ को बेचते थे.
.. और यह था लाइफ का टर्निग प्वाइंट
जिंदगी जैसे- तैसे पापड़ बेच कर चल रही थी. लेकिन मैंने टय़ूशन पढ़ाने की सोची. इसके लिए सबसे पहले मैंने अपने घर में ही रामानुजम स्कूल ऑफ मैथेमेटिक्स नामक एक कोचिंग खोली. दो बच्चे से शुरुआत की थी. उस वक्त एक बच्चे से साल भर के लिए 500 रुपये फीस मैं लेता था. कोचिंग से ठीक-ठाक आमदनी होने लगी. इसके बाद मैंने एक स्कूटर खरीदा, घर को भी बनाया. टय़ूशन पढ़ाने के दौरान ही एक बार एक छात्र मेरे पास पढ़ने के लिए पहुंचा. उसने कहा कि वह पांच सौ रुपये सालाना भी नहीं दे पायेगा. क्योंकि वह बहुत गरीब है और एक वकील के घर की सीढ़ी के नीचे रह कर पढ़ता है. उसे फिलहाल अपना पता देकर बोला जाओ बाद में हम देखते हैं. इसके बाद मैं अपने भाई के साथ वहां जब जाकर देखा तो वाकई में वह सीढ़ी के नीचे पसीना से तर बतर हालत में पढ़ाई कर रहा था. मैंने उसे पढ़ाया. उसने भी खूब मेहनत की और आइआइटी पास किया. इसी के बाद से 2001 में सुपर 30 की शुरुआत की.
.. सही से नहीं खा पाता गोलगप्पे
अब सारा कुछ ठीक है,लेकिन पर्सनल लाइफ खराब हो गयी है. पत्नी अगर कभी बोलती है कि चलिये गोलगप्पे खाते हैं, तो उस वक्त सही से खा भी नहीं पाते हैं. क्योंकि दो बॉडीगार्ड हमेशा पीछे रहते हैं, और अपनापन महसूस ही नहीं होता है.