धनबाद: रचनात्मक सामथ्र्य के रूप में कविता में स्थानीयता की रंगत बहुत विरल है. वजह कई काव्य रूढ़ियां हो सकती हैं, पर हिंदी में अब भी मुट्ठी भर कवि हैं जिनकी कविताई की मूल आभा स्थानीयता की रंगत से अभिन्न है. कोयलांचल के एक शायर हैं जिनकी रचनाशीलता का सत्व स्थानीयता से सृजित है, पर वह इससे आक्रांत नहीं होते. ढेरों कहानियां, उपन्यास, कविताएं, गजल कोयलांचल की इस जमीन की उपज हैं, पर शायद ही किसी ने कोयला कामगार की पीड़ा को विडंबना की गहरी तह में जाकर इस तरह पकड़ा हो-
‘तमाम शहर में इंधन की तरह जलकर भी/ है कौन-सा चेहरा धनबाद में पता न चला.’ या ‘ख्वाहिश की चिंगारी शर्त हो नहीं सकती / आज तलक हम पत्थर जिंदा काट रहे हैं.’
शायर रौनक शहरी का यह शेर दृश्य और यथार्थ को भेद कर सच की विडंबनात्मक तह तक पाठक को बहुत सहजता से ले जाता है. गीत, नवगीत, दोहे, समीक्षा-आलोचना में सैर करता उनका रचनाकार जैसे हमेशा अलिखित का संधान करता लगता है. इसी तरफ इशारा करते हुए उर्दू के मशहूर शायर, संपादक शम्सुर्रहमान फारूकी कहते हैं – रौनक जिगरदार शायरों की तरह नयी तरकीब, नये अल्फाज और गजल के लिए नये बिंब की तलाश में बहुत आगे निकल जाते हैं. बेमजा, बेरंग या कष्टदायक परिस्थितियों को शगुफ्ता शेरों में तब्दील करने की क्षमता रखते हैं.
उर्दू गजल में अलग पहचान रखनेवाले रौनक को गजलकार डॉ हसन निजामी और अहमद निसार अपना उस्ताद मानते हैं. उन्होंने कई पत्रिकाओं का संपादन भी किया है. उनकी शिक्षा-दीक्षा झरिया में हुई. 1972 में अर्थिक स्थिति गड़बड़ाने पर ट्यूशन किया.1974 में प्राथमिक शिक्षक के पद पर बहाल हुए. सात सालों तक आरएसपी में हिंदी के व्याख्याता भी रहे.
साहित्य से जुड़ाव : बचपन से पढ़ने शौक था. घर में उर्दू के अखबार आते थे. सातवीं जमात में उन्हें इकबाल की गजल याद हो गयी थी. आवाज काफी अच्छी थी तो तरन्नुम में गजल सुनाते. मुशायरों की दाद से शौक परवान चढ़ता गया. रवायत से हट कर उनकी गजलगोई चली. सीखने में स्वाध्याय ही काम आया. गालिब, जोश, फैज, बानी, शहरयार, मजहर इमाम आदि को पढ़ा. गालिब के शेर ‘आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक ..’ की तरह रौनक साहब कहते हैं – मैं समझता हूं कि रचनाशीलता-रचनाधर्मिता एक व्यक्ति की अपनी जहनी उपज है, जिसे फसल के रूप में असमय कोई नहीं काट सकता. मैं लिखता रहा. मुङो आज भी याद है कि एक गजल पर मुङो काफी दाद मिली थी-कांटों को फूल जान कर रखना फजूल है, पेश आयेंगे जो खार हैं, वह खार की तरह. इसके बाद तो अल्फाज से बेइंतहा खेल शुरू हो गया. पद्य का अध्ययन अधिक किया. नतीजतन शायरी में अधिक रम गये.
सफर गजल का : कहते हैं कि उर्दू में सर्वाधिक प्रचलित विधा गजल फारसी लिपि के साथ ईरान से होकर यहां आयी. भारत की मिट्टी, हवा, पानी में पनप कर जवान हुई. कहते हैं जिस प्रकार दोहा हिंदी से उर्दू में आया, उसी तरह गजल भी अपने मुकम्मल स्वरूप के साथ उर्दू से हिंदी में आयी. उर्दू के जायके के साथ देशज घोल ने हिंदी गजल को अनोखा ढांचा दिया. दुष्यंत कुमार, सूर्यभानु गुप्त, महेश अनघ, अदम गोंडवी ने हिंदी गजल को समृद्ध किया है. हिंदी में गजलों का संकलन लोकप्रियता की बुलंदी को छू रहे हैं. इनकी गजलों पर हिंदुस्तान, पाकिस्तान के नामचीन समीक्षकों ने अर्थपूर्ण टिप्पणियां की हैं. उन्होंने ‘दक्षिणी छोटा नागपुर में गद्दी बिरादरी की अदबी खिदमात’ शीर्षक पर पीएचडी की है. इसमें पहली बार झरिया के कथाकार बंधु गयास अहमद गद्दी और इलियास अहमद गद्दी की रचनाओं पर समसामयिक एवं तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया. शीघ्र ही यह पुस्तकाकार पाठकों के हाथों में होगा.
धनबाद तब और अब : तेजी से महानगर की तर्ज पर दौड़ रहा धनबाद चमक रहा है. पहले काफी साहित्यिक गतिविधियां, मुशायरा आदि होते थे. मुशायरा आज व्यवसाय बन गया है. उपभोक्तावादी संस्कृति का प्रभाव बढ़ा है. उर्दू पहले कुछ लोगों तक सीमित थी. अब काफी विस्तार हो गया है. आइएसएम आइआइटी नहीं बना. कोई विश्वविद्यालय नहीं खुला. नये रचनाकारों के लिए कहते हैं – गजल से आगे लेखन का विस्तार कीजिये. कई रास्तों से होकर आप मंजिल को पा सकते हैं. यहां शोषण, उत्पीड़न, उपेक्षा, संघर्ष सब कुछ देखा जा सकता है. उस पर बहुत बढ़िया मरसिया गाया जा सकता है, पर रौनक के यहां कोयलांचल की संघर्षशीलता के गौरवशाली आख्यान को देखना मौजूं है – सर पर जून का सूरज, पांव के नीचे आतिश / ऐसी दौलत कहीं नहीं झरिया से आगे.