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रोशनी और पानी चाहने वालों

-दर्शक- पिछले चार वर्षों से यह अखबारनवीश रांची में, हर गरमी में पानी और बिजली संकट को गहराते देख रहा है, जुलूस, प्रदर्शन, धरना और गिरफ्तारी, फिर भी हर वर्ष, पिछले वर्षों की तुलना में संकट बढ़ रहा है. पुलिस अपराधियों, दलालों, रंगदारों और भ्रष्टाचार करनेवालों को बख्शती हैं, पर पानी मांगनेवाले-रोशनी चाहनेवालों को अपनी […]

-दर्शक-

पिछले चार वर्षों से यह अखबारनवीश रांची में, हर गरमी में पानी और बिजली संकट को गहराते देख रहा है, जुलूस, प्रदर्शन, धरना और गिरफ्तारी, फिर भी हर वर्ष, पिछले वर्षों की तुलना में संकट बढ़ रहा है. पुलिस अपराधियों, दलालों, रंगदारों और भ्रष्टाचार करनेवालों को बख्शती हैं, पर पानी मांगनेवाले-रोशनी चाहनेवालों को अपनी वीरता दिखाती हैं. प्रताड़ित करती है. अपनेवाले दिनों में सूखे कंठ या हलक तर करने के लिए पानी मांगने वाले या अंधेरे में चिराग (बिजली) चाहनेवाले व्यवस्था के सबसे बड़े दुश्मन बनते जायेंगे. क्योंकि जिस राह पर बिहार अग्रसर है, उसमें यह संकट बढ़ना ही है और इस समस्या से मुक्ति पाने की ख्वाहिश रखनेवालों का जो रवैया है, उससे भी समाधान नहीं मिलनेवाला.
रांची या बिहार का मध्य वर्ग चाहता तो यह है कि वह घर में रहे और उसके लिए सारी सुविधाएं उपलब्ध कराने की लड़ाई कोई और लड़े. जो संकट से मुक्ति चाहते हैं, उन्हें ही संकट से निबटना होगा. कहावत है कि ईश्वर भी उनकी मदद करता है, जो खुद अपनी मदद करते हैं, मध्यवर्ग को भ्रष्टाचार से परहेज नहीं है. वह डूब कर भ्रष्टाचार करना चाहता है. भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष में वह साझीदार नहीं होना चाहता, पर बिजली, पानी, शिक्षा और बुनियादी सुविधाएं उसे उच्च कोटि की चाहिए. दोनों चीजें एक साथ असंभव है. सड़क के इंजीनियर के घरों की दीवारें मजबूत होंगी, तो सड़क तो खड्ड रहेगी ही.

बिजली विभाग में भ्रष्टाचार रहेगा, तो रोशनी लगातार लुप्त होती जायेगी. इस कारण सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम और उसमें हर एक की संपूर्ण साझेदारी, पहली सीढ़ी है बेहतर राज-समाज-व्यवस्था गढ़ने की. अगर आप यह नहीं मानते तो अंधेरे में रहिए, प्यासे रहिए. सत्ता, राजनेता, नौकरशाह, पुलिस व्यवस्था यही चाहती है कि आप बुनियादी समस्याओं के लिए घुट-घुट कर मरें. पर कराहे नहीं, मुंह बंद कर मरिए. आखिरकार बड़े-बुजुर्ग कह गये है कि ‘जबरा मारे रोने भी न दे.’ अगर बिहार में शिक्षा पानेवाला आपका बच्चा, बाहर दुत्कारा जाता है, नौकरी नहीं पाता, तो आप शिकायत क्यों दूसरों से करते हैं? नेताओं-अफसरों के बच्चे तो राज्य के बाहर पढ़ ही रहे हैं.

बदलती दुनिया में बिहारवासियों को भी अपना चेहरा देखना चाहिए. महाराष्ट्र, गुजरात किसी दूसरे राज्य में जाइए. फिर अपनी तसवीर देखिए, क्यों हर राज्य का नेतृत्व (भ्रष्ट होते हुए भी) या नौकरशाह अपने राज्य में अधिक से अधिक विकास योजनाएं चलवा रहे हैं. नये उद्योग धंधे-कल-कारखाने खुलवा रहे हैं. रोजगार बढ़ाने के उपाय कर रहे हैं. फिर भ उन राज्यों की जनता चुप नहीं बैठी है. वह सरकार के भरोसे नहीं है. जन प्रयास से बेहतर अस्पताल, शिक्ष संस्थान आदि चल रहे हैं, तमिलनाडु, कर्नाटक बगैरह में लोगों ने निजी प्रयास से बेहतर अस्पताल बनाये हैं.

शिक्षा संस्थाएं बनायी हैं. आज हर बिहारी, बीमार होने पर इन्हीं राज्यों में इलाज के लिए जाता है. प्राकृतिक साधनों की दृष्टि से बसे समृद्ध राज्य की गरीबी-पिछड़ेपन को आप उन राज्यों में जाकर बेहतर तरीके से समझ सकते हैं. ट्रेड यूनियन से लेकर, प्रबंधन, नौकरशाही, राजनीति में जिस किस्म की आपराधिक और नासमझ ताकतें बिहार में भर गयी हैं, उनसे मुक्ति पाये बिना कुछ नहीं हो सकता. सामाजिक दबाव बनाइए कि हर दल-संगठन और संस्था में बेहतर समझदार और दृष्टिसंपन्न (विजनरी) लोगों की तादाद बढ़े. इसके लिए लोग अपने घरों से निकलें. इसके लिए लोग अपने घरों से निकलें. जन प्रयास से काम शुरू हो, सरकार के भरोसे मत बैठिए.

बंद, धरना, प्रदर्शन, जुलूस आदि पारंपरिक और अर्थहीन हो चुके राजनीतिक हथियारों से मुक्ति पाइए. इनसे कुछ नहीं होनेवाला. अगर आंदोलन ही करना है, तो अफसरों-नेताओं के घर घेरिए. जेनरेटर बंद करिए. उनके घरों पर भी वह पानी मिले, जो आप पी रहे हैं, यह सुनिश्चित करिए. 1967 के आसपास जब देश की राजनीति में युवा शक्ति ने शिरकत की, तो एक नारा उछला ‘जीना है, तो मरना सीखो.’ डॉक्टर लोहिया ने ‘निराशा के कर्तव्य’ पर मशहूर लेख लिखा है, उन्होंने कहा है कि कोई भविष्य सामने नहीं है. शरीर भी अशक्त व मुरदा समान है, फिर भी जीने की चाह ने भारत को कमजोर बना दिया है. अगर भविष्य गढ़ना है, अपने बच्चों का कल ठीक करना है, देश-बिहार बनाना है, तो मरने की इच्छा रखनी होगी. और निष्काम कर्म करना होगा.

अंतिम बात! कुछ पढ़े-लिखे विशेषज्ञ लोग निकलें. संस्था बनायें, जहां बिहार के चौतरफा विकास की दीर्घकालीन योजनाएं बनें. आज की दुर्दशा का ब्योरा एकत्र करें. और सरकार पर उसे क्रियान्वित करने का जन दबाव पैदा करें. वह लोक सहयोग भी लें. यह सृजन का मोरचा होगा. सृजन और संघर्ष! साथ-साथ हो, तो बात बनेगी, अगर यह सब नहीं कर सकते, तो दुर्दशा भुगतिए. गिला-शिकवा किये बगैर.

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