-हरिवंश-
वेदांत रिसर्च सेंटर ने (रविवार, 4 अप्रैल को आयोजित कार्यक्रम में) प्रोफेसर एसके चक्रवर्ती को रांची न्योता है. पिछले वर्ष उन्होंने आइआइएम से अवकाश ग्रहण किया है. उनके कार्यों से इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट, कलकत्ता को नयी पहचान मिली. पूरी दुनिया में भारतीय मनीषा-परंपरा-आध्यात्मिक मूल्यों की आधुनिक प्रासंगिकता बतानेवाले ज्ञान केंद्र ‘मैनजमेंट सेंटर फार ह्यूमन वैल्यूज’(संक्षेप में एमसीएचवी), आइआइएम कलकत्ता के वह संस्थापक हैं. प्रबंधन के स्तर पर दुनिया की आधुनिक चुनौतियों के भारतीय समाधान की लेबोरेटरी. एक जीवित ॠषि की साकार मूर्त कल्पना. एक ऐसा संस्थान, जो आनेवाली आधुनिक दुनिया-पीढ़ियों की जरूरत बनती जायेगी.
भारतीय विजन, ॠषि परंपरा की ताकत जो पहचानना चाहते हैं, आधुनिक प्रबंधन की अवधारणा, उसकी सीमाएं या भारतीय चिंतन से विकसित उसके वैकल्पिक स्वरूप को जो समझना चाहते हैं, उनके लिए प्रोफेसर चक्रवर्ती का रांची कार्यक्रम एक रेयर अपारचुनिटी (दुर्लभ अवसर) है.
12-13 वर्षों पहले उन्हें पढ़ा. उनके लेखन-चिंतन का गहरा असर हुआ. किसी हद तक जादुई असर. ‘स्टेट्समैन’ में छपे उनके अनेक पुराने लेखों की कतरनें अक्सर उलटता हूं. वर्षों पहले ऑक्सफोर्ड प्रेस से छपी उनकी पुस्तक (1991) ‘मैनेजमेंट बाइ वैल्यूज’ की खास याद है. कलकत्ता से रांची लौटने की ट्रेन छूट रही थी. इसकी प्रति ढूंढ़ने के लिए दुकान-दुकान भटक रहा था. बाद में ऐसे ही ढूंढ़ कर दिल्ली से उनकी पुस्तकें ‘लीडरशिप एंड पावर’ (ऑक्सफोर्ड), ‘मैनेजेरिएल ट्रांसफॉरमेशन बाइ वैल्यूज’ (सेज पब्लिकेशंस), ‘वैल्यूज एंड एथिक्स फार आगनाइजेशन’ (आक्सफोर्ड) मंगवाई. ‘अंगेस्ट द टाइड’ (आक्सफोर्ड) पुस्तक प्रो चक्रवर्ती ने भेंट की.
प्रो चक्रवर्ती के लेख ताजा हवा के झोंके जैसे लगे. बिल्कुल मौलिक विचार. विकास की शुद्ध भारतीय अवधारणा. उन्हें पढ़ते हुए बार-बार प्रो आर्नाल्ड टायनबी की उक्ति याद आयी. स्वतंत्र होने की दहलीज पर भारत खड़ा था. पश्चिमी विकास मॉडल, यूरोपीय-अमेरिकन जीवन शैली-मूल्यों के अंतर्विरोध सामने आ चुके थे.
इस पश्चिमी अध:पतन के बीच टायनबी ने कहा कि संकटग्रस्त दुनिया को पूरब (आशय, भारत से) से रोशनी मिलेगी. पर भारत में गांधी की आभा अस्त होते ही विचारों-मूल्यों के स्तर पर दुनिया को नयी रोशनी-आभा देनेवाला तेज पुंज-लौ मद्धिम होता गया. भारत के लिए आदर्श हो गया ‘टायनबी का संकटग्रस्त यूरोपियन-अमेरिकन जीवन मूल्य. विकास माडल.’ 56 वर्षों तक पश्चिमी राह पर यात्रा के अनुभव साथ हैं. भ्रष्टाचार, भारत का नया जीवन मूल्य है. इसी संस्कृति की उपज. सोचने-समझने-विजन में भारत अपना अनूठापन खो चुका है.
राजनीति, अध्ययन-ज्ञान के केंद्र, कोई मौलिक विचार नहीं दे पा रहे. ऐसी ही मन:स्थिति- माहौल में प्रो चक्रवर्ती की ‘राजर्षि लीडरशिप’ अवधारणा पढ़ी. दो किश्तों में ‘वैनिशिंग इथिक्स’ (गायब होते मूल्य), दो किश्तों में ‘द इंडियन माइंड’ (भारतीय मस्तिष्क), दो किश्तों में ही ‘चक्र एंड चैरिटी’ पढ़ा. आइकंस आर नीडेड वगैरह पढ़ा. इन लेखों ने एक नयी समझ दी. आत्मोन्मुख होने की ऊर्जा दी. निराशा से उबरने की नयी ताकत दी.
उस प्रोफेसर एसके चक्रवर्ती की चर्चा अक्सर समानधर्मों मित्रों से करता. उनके बारे में पता करने को उत्सुक रहता. ऐसे ही एक अवसर पर रांची में आइआइएम, कलकत्ता के प्रोफेसर संजय मुखर्जी से मुलाकात हुई. उनसे भी पूछा. उन्होंने 16वें इंटरनेशनल मैनेजमेंट डेवलपमेंट वर्कशाप का लिट्रेचर दिया. इस वर्कशाप के मूल डिजाइनर प्रो एसके चक्रवर्ती थे. वर्कशाप को आर्डिनेटर प्रोफेसर संजय मुखर्जी. आइआइएम, कलकत्ता परिसर में जनवरी 5 से जनवरी 11 तक (वर्ष 2003) रहना था. इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट, कलकत्ता के भव्य परिसर को एक नयी आभा देनेवाला केंद्र. प्रो चक्रवत्ती के ‘ब्रेन चाइल्ड’ (विचारों का भौतिक रूप), ‘मैनेजमेंट सेंटर फार ह्यूमन वैल्यूज’ में यह वर्कशाप होनेवाला था. जिन लोगों ने सबसे पहले इस वर्कशाप में शरीक होने की
औपचारिकताएं पूरी की होंगी, उनमें हम भी थे. यह, प्रो एसके चक्रवर्ती के विचारों का जादू-आकर्षण था.कई लोगों को आश्चर्य हुआ. ‘टॉप कंपनियों के टॉप सीइओज के लिए हो रहे वर्कशाप में एक पत्रकार के लिए क्या ‘इनपुट्स’ होंगे? ‘वैसे ही पत्रकारिता व पत्रकार जगत में अब पढ़ने की जरूरत महसूस नहीं की जाती. शराब, लॉबिंग, पावर सिस्टम के अंग होने के लाभ ने पत्रकारिता की आभा को निस्तेज कर दिया है. ऐसे माहौल में आइआइएम, कलकत्ता में फी देकर जाना, विद्यार्थी बन कर रहना-पढ़ना, दुनिया से कट कर रहना, निजी मित्रों के लिए भी आश्चर्य का प्रसंग था.
पर भूल नहीं पाता. वह दृश्य, जब पहली बार 4 जनवरी, 2003 की शाम प्रो एसके चक्रवर्ती को देखा. उनके विचारों से उनके व्यक्तित्व की अवधारणा बन चुकी थी. वह वैसे ही लगे. धीर, गंभीर, जिनका व्यक्तित्व-प्रजेंस (उपस्थिति) स्वत: बोलता है. उनका मुखर मौन खुद बोलता है. सफेद धोती-कुरता, शाल ओढ़े. नंगे पांव वह ‘मैनेजमेंट सेंटर फार मन वैल्यूज’ (आइआइएम परिसर, कलकत्ता) के शांत परिसर में ‘व्याख्यान पूर्व’ की व्यवस्था देख रहे थे. वह ॠषि परंपरा की कड़ी में लगे. वर्षों पहले काशी हिंदू विश्वविद्यालय में पढ़ते हुए, ॠषि परंपरा के अध्यापकों के बारे में प्राय: सुनता रहा. सीनियर साथियों व वरिष्ठ अध्यापकों से. कैसे मालवीय जी ढूंढ़-ढूंढ़ कर ऐसे अध्यापकों को लाते रहे. जिनकी प्रज्ञा, ज्ञान, विद्वता, नैतिक जीवन की ताकत थी कि उनके सामने हजारों-हजार छात्रों की उग्र भीड़ में सन्नाटा पसर जाता. पहली नजर में प्रोफेसर चक्रवर्ती को देख कर यह प्रसंग याद आया. बाद में प्रोफेसर संजय मुखर्जी ने परिचय कराया. हफ्तों तक उन्हें क्लास में सुनता रहा. उन्हें सुनना, जीवन का न भूलनेवाला प्रसंग है. इतनी प्रवाहमय भाषा, इतना ओज, वैचारिक दृढ़ता-स्पष्टता, समृद्ध अध्ययन संसार कि हमारे जैसे अनेक लोगों के मन में वह छाप छोड़ गये. हिंदी, अंग्रेजी पर समान अधिकार.
बाद में जाना, कम्युनिस्ट भाइयों को उनके विचारों से परहेज है. यह स्वाभाविक लगा. क्योंकि बंगाल में साम्यवादी साथियों को रामकृष्ण, विवेकानंद, महर्षि अरविंद, सुभाष की भारतीय प्रासंगिकता-विचार समझने में कई दशक लगे. प्रो चक्रवर्ती उसी महर्षि अरविंद-विवेकानंद, टैगोर और गांधी की चर्चा करते हैं.
‘मैनेजमेंट सेंटर फार ह्यूमन वैल्यूज’ की स्थापना का किस्सा बाद में सुना. एक व्यक्ति ने अपने संकल्प से एक नयी इबारत लिख दी. इसका महत्व, तब मुझे समझ आया, जब इनरान समेत ऐसी अनेक बड़ी अमेरिकी कंपनियों के अंदरूनी घोटाले उजागर हुए. अमेरिका की महिला अॅाडिटरों ने इन कंपनियों की बैलेंसशीट में हुए घोटालों को उजागर किया, तो अमेरिकी कॉरपोरेट वर्ल्ड समेत दुनिया का उद्योग जगत स्तब्ध रह गया. टाइम ने इन महिला आडिटरों को वर्ष 2003 में ‘पर्सन ऑफ द इयर’ (वर्ष का विशिष्ट व्यक्तित्व) माना. यह फरजी काम-आंकड़ों में हेरफेर किसने किया? पता चला, दुनिया के टाप मैनेजमेंट स्कूलों से शिक्षित लोगों ने. इसके बाद इन ‘वर्ल्ड टाप मैनेजमेंट इंस्टीट्यूट्स में वैल्यूज, मारेलिटी गांधी जैसे विषयों की जरूरत महसूस की गयी.
भारत में बहुत पहले प्रो एसके चक्रवर्ती ने ऐसी संस्था की जरूरत महसूस की. नींव डाली. अकेले. चंदा मांग कर उसे खड़ा किया. वह एससीएचवी (मैनेजमेंट सेंटर फार ह्यूमन वैल्यूज) परिसर आपको बांधता है. उसकी डिजाइन देख कर सांची (भोपाल के पास) का प्रिय स्थल बौद्ध विहार, उसका गोलापन, भव्यता याद आयी. बाद में पता चला कि एमसीएचवी की डिजाइन-कल्पना प्रो चक्रवर्ती की है. एक तरह से वही आर्किटेक्ट हैं. इतना सुंदर, शांत परिवेश, सुंदर लान, पेड़-पौधे, हरियाली कि आप मुग्ध रह जायें. ऐसे परिवेश में अध्ययन-अध्यापन. बिल्कुल आश्रम परिवेश.
स्किल बनाम वैल्यूज
प्रो एसके चक्रवर्ती को सुनना यादगार अनुभव है. वह शुरुआत करते हैं, मैनेजमेंट से. प्रबंधन क्या है? यह एक व्यापक शब्द है. अर्थवान, महज बिजनेस (व्यवसाय), इकोनामिक (अर्थशास्त्र) और मैनेजमेंट (प्रबंधन) तक ही यह सीमित नहीं है. वह महाभारत का एक रोचक प्रसंग याद कराते हैं. स्किल (कौशल, महारत, निपुणता) और वैल्यूज (मूल्य, नैतिकता) में क्या फर्क है. अश्वत्थामा के पास स्किल था. वह ब्रह्मास्त्र चलाना जानता था. अर्जुन के पास स्किल और वैल्यूज दोनों थे. स्किल का मर्म है, मूल सूत्र है, महज करना यानी, डूइंग. वैल्यूज का मूल सूत्र है ‘बिकमिंग’ यानी होना. अश्वत्थामा के पास ब्रह्मास्त्र था, उसने पांडवों के बच्चों को मार डाला था. गर्भस्थ शिशु की हत्या की. वहीं अर्जुन भी ब्रह्मास्त्र से संपन्न थे, पर उसका इस्तेमाल अबोध बच्चों, असहाय स्त्रियों पर नहीं किया. क्योंकि उनमें मानव मूल्य थे. ‘वैल्यूज’ का अर्थ है, बेहतर बनना. ‘टू बिकम गूड ह्यूमन.’ दुनिया की मूल समस्या यही है. आज बेहतर इंसान बनने-बनाने का जरूरी काम कहां हो रहा है?
(8.1.03 की रात आइआइएम के हास्टल कलकत्ता परिसर में लिखा गया अनुभव)