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बिकता लोकतंत्र!

हरिवंश हाल में प्लेटो की पुस्तक गणराज्य पढ़ रहा था. प्लेटो मानते हैं, अच्छे समाज या राज्य की पहली शर्त है कि अच्छे चरित्र के पढ़े-लिखे लोग शासन में आयें. सरकार और व्यवस्था संचालन में बुद्धिमान, चरित्रवान और समझदार लोग हों. इस कसौटी पर झारखंड में लोकतंत्र खतरे में है. मेयर की एक प्रत्याशी के […]

हरिवंश
हाल में प्लेटो की पुस्तक गणराज्य पढ़ रहा था. प्लेटो मानते हैं, अच्छे समाज या राज्य की पहली शर्त है कि अच्छे चरित्र के पढ़े-लिखे लोग शासन में आयें. सरकार और व्यवस्था संचालन में बुद्धिमान, चरित्रवान और समझदार लोग हों. इस कसौटी पर झारखंड में लोकतंत्र खतरे में है. मेयर की एक प्रत्याशी के समर्थकों के पास से पैसे पकड़े गये हैं. उनके लोग भी पकड़े गये हैं. अब तक 22.31 लाख रुपये मिले हैं. माना जा रहा है कि मत खरीदने के लिए इस धन का वितरण हो रहा था. एक दिन पहले प्रभात खबर में यह भी छपा था कि एक वार्ड कमिश्नर का चुनाव खर्च लगभग 10 लाख रुपये है. मेयर के लिए एक-एक प्रमुख प्रत्याशी कई करोड़ खर्च कर रहे हैं. साफ है कि गरीब झारखंड का लोकतंत्र, धनतंत्र में तब्दील हो गया है. चार दिन पहले ही मोटेतौर पर एक अनुमान के तहत प्रभात खबर में ही रिपोर्ट छपी थी कि सिर्फ मेयर चुनाव में बूथ मैनेजमेंट पर ही तकरीबन आठ करोड़ रुपये खर्च होंगे. इसके ठीक दो दिन पहले राज्यसभा चुनावों में पैसे लेकर वोट डालने के आरोप में झारखंड के नौ विधायकों के 20 ठिकानों पर सीबीआइ ने छापेमारी की थी. वर्ष 2010 और 2012 में हुए राज्यसभा चुनाव को लेकर अब तक सीबीआइ पांच बार झारखंडी विधायकों के यहां छापे डाल चुकी है. 81 में से 26 विधायकों के ठिकानों पर सीबीआइ छापे पड़ चुके हैं. यानी झारखंड के विधायक भी अपना वोट बेचते हैं. याद रखिए, जो खरीद-फरोख्त के धंधे में हैं, वे ही मौक मिलते देश-समाज को बेचते हैं.
इसके पहले हटिया में भी विधानसभा उपचुनाव हुआ था. उस चुनाव में भी पानी की तरह पैसे बहने की खबर आयी. एक उपचुनाव में कई करोड़ सिर्फ एक प्रत्याशी को अब खरचने पड़ते हैं. रांची के लोगों ने देखा भी. राज्य बनने के बाद पिछले 12 वर्षों में झारखंड के राजनेता (सभी पदों पर बैठे महत्वपूर्ण लोग) भ्रष्टाचार में रिकॉर्ड बना चुके हैं. कुछ जेल में हैं. कुछ जेल के बाहर आ गये हैं. कुछ जेल जाने की तैयारी में हैं. अगर यही लोकतंत्र है, तो समय आ गया है कि इस पर नये सिरे से बहस हो. क्या लूट के पैसे से, भ्रष्टाचार के पैसे से और काली कमाई से चलनेवाली राजनीति जनता के कल्याण की बात करेगी या खुद अपना पेट भरेगी? झारखंड में राजनीति आज एक तरह का निवेश है. पैसा लगाइए, अधिक रिटर्न पाइए. एक वार्ड कमिश्नर का प्रत्याशी अपने चुनाव में 10 लाख खर्च करने पर क्यों तैयार है या एक मेयर पद का प्रत्याशी क्यों करोड़ों खर्च कर रहा है या एक विधायक क्यों कई करोड़ झोंक रहा है? एक सांसद के चुने जाने का खर्च क्यों बेशुमार हो गया है? क्योंकि राजनीति से बिना परिश्रम धन कमा सकते हैं. लूट कर. कानून आपके सामने असहाय है. एक बार आप पद पर चुने जाते हैं, तो जनता के विकास के लिए जो फंड आता है, उसके लूटने के आप वैधानिक हकदार हो जाते हैं. भ्रष्टाचार के कानून का किसी को भय नहीं. न अब तक इस मुल्क में भ्रष्ट होने के कारण किसी को सजा मिली है? जिस लोकतंत्र में ग्रास रूट के लोकतंत्र को एक नया विकल्प माना गया, वहां क्या स्थिति है? नगर निकाय और ग्राम स्तर पर चुनाव कराने के पीछे यह मकसद था कि सत्ता नीचे तक पहुंचेगी, तो भारतीय लोकतंत्र में आयी बुराइयां दूर होंगी. मंत्रियों, सांसदों, विधायकों का आतंक या वर्चस्व कम होगा. पर चाहे वार्ड कमिश्नर हों या पंचायत के लोग या मुखिया या सरपंच या नगर निकाय के चुने पदाधिकारी, कमोबेश ये सब एक तरह हो गये हैं. लुटेरे विधायकों और सांसदों की तरह. क्यों नहीं यह सवाल उठना चाहिए कि लुटेरे लोग या भ्रष्टाचार का पैसा खर्च कर जीतनेवाले लोग, कभी समाज के लिए काम नहीं कर सकते. 12 वर्षों की झारखंड विधानसभा का रिकॉर्ड कभी देख लीजिए. क्या कभी किसी विषय पर गंभीर बहस हुई है? विधायिका के अनेक लोगों पर मारपीट करने के आरोप हैं. अफसरों को पीटने के आरोप हैं. कुछेक पर ठगने के आरोप हैं. कानून तोड़ने के आरोप हैं. राज्यसभा चुनाव में पैसा लेकर खुद को बेचने का आरोप है. क्या खुद को बेचनेवाले या वोट खरीदनेवाले कभी जनता या देश के कल्याण के बारे में सोचेंगे? मौका मिलेगा, तो वे देश या राज्य बेच देंगे. इसका सबूत है झारखंड के नेताओं पर भ्रष्टाचार के लगे आरोप या झारखंड में हुई भ्रष्टाचार की घटनाएं. झारखंड की राजनीति में इतने पैसे आ कहां से रहे हैं? कल तक जो लोग सड़क पर चलते थे, आज वे रोज महंगी गाड़ियां बदलते हैं. करोड़ों-करोड़ों चुनाव में खर्च कर रहे हैं. यह सब पैसा आया कहां से? साफ है, झारखंड के विकास के लिए जो पैसे आये, उन्हें राजनेताओं ने भ्रष्ट नौकरशाहों के साथ मिल कर लूट लिया है. यह देश और राज्य के कोष की खुली डकैती से निकला माल है या अपने संविधान प्राप्त पद के बल लोगों को ब्लैकमेल कर अर्जित किया गया धन है. यह कोई सात्विक या पुण्य की कमाई तो है नहीं? झारखंड की राजनीति में लगनेवाला यह पैसा, झारखंड में हुए भ्रष्टाचार से निकला है.
जो लोग लोकतंत्र को गहराई से जानना या समझना चाहते हैं, उन्हें हो रहे इन निकाय चुनाव को नजदीक से देखना चाहिए. समाज के जो तलछट हैं, लफुआ हैं, फूटानी करनेवाले हैं, चिरकुट हैं, चेंगड़ा हैं, वे सब (लोकल भाषा में समाज के अवांछित तत्व) आज-कल अति व्यस्त हैं. पूरे दिन चुनाव प्रचार के लिए उन्हें मेहनताना चाहिए. जुलूस में शामिल होने की कीमत चाहिए. शाम को शराब और मुर्गा चाहिए. एक दिन में एक ही आदमी कई-कई जुलूस में शामिल होकर कमा रहा है. चुनाव कमाई का अवसर बन गया है. यह है ग्रास रूट लोकतंत्र की असल तसवीर. शहरों में बैठे बड़े बुद्धिजीवी और लोकतंत्र की महानता के गीत गानेवाले लोग क्या इस दृश्य से वाकिफ हैं? बिना सद्चरित्र, ईमानदारी और प्रतिबद्धता के कहीं लोकतंत्र चला है? बेईमान, चोर और ठगों के हाथ में लोकतंत्र होगा, तो उसकी नियति क्या होगी? पहले की राजनीति में भूखे-प्यासे कार्यकर्ता अपना पैसा लगा कर किसी दल या अपने नेता के लिए काम करते थे. दिन-रात. वैचारिक प्रतिबद्धता के आधार पर. तब राजनीति में विचार और चरित्र जिंदा थे. आज राजनीति चरित्रहीन हो गयी है, इसलिए यह हाल है. इतने पैसे इन चुनाव में आ कहां से रहे हैं? इसका स्रोत क्या है? बात और जांच इस पर होनी चाहिए. बड़े-बड़े नेता इस धन के स्रोत हैं. वे अपने-अपने शार्गिंदों, चेंगड़ों और लफुओं को पंचायत से लेकर ऊपर तक जिताते हैं. फिर गिरोह बनाते हैं. उनके बल पर फिर खुद को बड़े नेता के रूप में स्थापित करते हैं. ऐसे ही गिरोह आज समाज-काज में निर्णायक स्थिति में है. कानून बनाने की स्थिति में लोकतंत्र को चलानेवाले ये लोग हैं. यह गणित या व्याकरण है, इस धनलोलुप राजनीति का. बड़े-बड़े राजनीतिक दलों के आयकर के विवरण देख लें. हजारों करोड़ पैसे इन सबके पास आ रहे हैं. मुलायम सिंह और मायावती जैसों के मध्यवर्ती दलों के पास भी अरबों की राशि आ रही है. यह सब चंदे के रूप में है, पर किसी को स्रोत पता नहीं है. साफ है कि लोकतंत्र को धनतंत्र ने ऊपर से लेकर नीचे तक दूषित, विषैला और देशतोड़क बना दिया है. जिसके पास धन होगा, अब वही चुनाव जीतेगा. चाहे वार्ड कमिश्वर का हो, मेयर का हो या फिर सांसद-विधायक का. यह कौन सा लोकतंत्र है. यह तो धनिकों का लोकतंत्र है, गरीबों का नहीं. यह लुटेरों का लोकतंत्र है, दलितों-कमजोरों या सर्वहारा का नहीं. जरूरत है कि इस देश में लोकतंत्र के इस दूषित और बदरंग चेहरे को लेकर सवाल उठे. सफाई आंदोलन हो. देश की राजनीति में पिछले 15 वर्षों से वैचारिक जड़ता है. भारत की राजनीति जाति और धर्म से आगे निकल गयी है, पर लुटेरी राजनीति, जाति और धर्म से ही बंधा रहना चाहती है. वोट बैंक के लिए. आज राजनीति पूंजी परक(कैपिटल इंटेंसिव) हो गयी है. पैसेवालों के हाथ नये लोकतंत्र के खिलाफ चाहिए, संपूर्ण विद्रोह. कोई नया विचार आंदोलन या ताजी हवा का झोंका चाहिए, इस देश की जड़, दूषित और ठहरी राजनीति में हलचल पैदा करने के लिए. लोकतंत्र के इस धनतंत्र से चालित चेहरे-शक्ल के खिलाफ तीव्र घृणा, आक्रोश और आंदोलन की जरूरत है. इस सड़ी राजनीति को नया शक्ल देने का वक्त है, यह.
सवाल रांची के किसी मेयर प्रत्याशी से बरामद 21.90 लाख रुपये का नहीं है. बड़ा सवाल है कि इसकी सीबीआइ जांच होनी चाहिए. यह पैसा या ऐसे पैसे कहां से आ रहे है? यह सफेद कमाई है या काली कमाई? इसका स्रोत क्या है? इसकी जांच हो, तो इस रहस्य से परदा उठेगा कि झारखंड में लोकतंत्र कैसे लोगों के हाथ में पहुंच गया है ?
दिनांक – 08.04.13

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