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कोड़ा, कांग्रेस और राजद
– हरिवंश – मधु कोड़ा की पालकी (सरकार) ढोनेवाले (जिन दलों के समर्थन और कंधों पर सरकार टिकी है) अब अपनी पीड़ा सार्वजनिक कर रहे हैं. उनकी शिकायत है कि पालकी का बोझ बढ़ रहा है. कंधे दुखने लगे हैं. डॉ राममनोहर लोहिया, राजनीति में ‘जलन राग’ पर बोल-लिख गये हैं. पालकी ढोनेवाले मानते हैं […]
– हरिवंश –
मधु कोड़ा की पालकी (सरकार) ढोनेवाले (जिन दलों के समर्थन और कंधों पर सरकार टिकी है) अब अपनी पीड़ा सार्वजनिक कर रहे हैं. उनकी शिकायत है कि पालकी का बोझ बढ़ रहा है. कंधे दुखने लगे हैं. डॉ राममनोहर लोहिया, राजनीति में ‘जलन राग’ पर बोल-लिख गये हैं.
पालकी ढोनेवाले मानते हैं कि कोड़ा सरकार की अकर्मण्यता-अपयश और सरकार की अस्तित्वविहीनता के बढ़ते बोझ के वजन से रोज ही वे दब रहे हैं. भारी वजन उठाने की पीड़ा से भी गुजर रहे हैं. साथ ही कोड़ा सरकार ढोनेवाले कांग्रेसी या राजद के लोग जल भी रहे हैं, क्योंकि पालकी पर सवार कोड़ा जी अपनी ताकत पहचान गये हैं, इसलिए वह मुद्रित हैं. सवार, खुश हो, तो कंधे पर उठाये लोग ‘जलन राग’ के भी शिकार होंगे. श्रम, पालकी उठानेवाले करें, जनता या जन-दबाव के आक्रोश की पीड़ा वे झेलें और सवार, मौज में रहे, तो ईर्ष्या स्वाभाविक है. यह वैसी ही स्थिति है कि ‘जबरा मारे भी, पर रोने भी न दे.’
यानी मधु कोड़ा फैसला अपनी मरजी से करें, पर उसका खमियाजा उठानेवाले दल उफ भी न करें. आमतौर पर पालकी उठाये लोग, सवार व्यक्ति से मिन्नत करते हैं कि वह पालकी में बैठ कर आसन या दिशा न बदले. करवट न ले, क्योंकि इससे कंधे का बोझ बढ़ता है.
पर यहां हालत विचित्र है, कोड़ा जी मनमरजी, पालकी में आसन और पाला बदल रहे हैं. इधर से उधर हो रहे हैं. और सरकार का बोझ उठाये लोगों की दुर्दशा यह कि वे बढ़ते बोझ की पीड़ा से तो कराह ही रहे हैं, पर सरकार की पालकी भी अपनी मरजी से उतार नहीं सकते. कांग्रेस, राजद या जो निर्दलीय, इस सरकार में शामिल नहीं हैं, उनकी कारुणिक स्थिति है.
कांग्रेस या राजद के लोग, अपने दिल्ली आलाकमान के आदेश पर कोड़ा सरकार का बोझ उठाये हुए हैं, ये खुद अपना बोझ उतार सकने की स्थिति में नहीं हैं. और दो महीने में ही कोड़ा जी को मुख्यमंत्री की गद्दी ने राजनीति के गुर सिखा दिये हैं. वह जान गये हैं कि कांग्रेस या राजद के केंद्रीय नेतृत्व के कारण वह मुख्यमंत्री हैं, झारखंड के कांग्रेसियों या राजदवालों की कृपा से नहीं.
मुख्यमंत्री बनने के दिन से ही मधु कोड़ा का पाला भारी है.
क्योंकि उनके पास खोने के लिए है क्या? भोजपुरी में एक कहावत है, ‘आगे नाथ, ना पीछे पगहा’ . न मधु कोड़ा के पास अपना कोई दल है, न कार्यकर्ता हैं, न राजनीतिक वारिस है. न राजनीतिक भविष्य की कोई चिंता है. उनका दावं पर क्या लगा है? न वह आदर्श या प्रतिबद्धता की राजनीति के लिए जाने जाते हैं.
एक दिन के ‘फिल्मी मुख्यमंत्री’ (अनिल कपूर) जैसा संकल्प तो उन्होंने कभी दिखाया नहीं. मुख्यमंत्री बन गये, उनका इतिहास बन गया. वह किसी क्षण, अतीत बन जायें या पूर्व हो जायें, तो क्या बिगड़नेवाला है? झारखंड के कानून इतने उदार हैं कि गरीब जनता की कमाई से हर पूर्व मुख्यमंत्री भारी सुरक्षा और शान-शौकत के साथ गुजर-बसर कर सकता है. इसलिए मुख्यमंत्री मधु कोड़ा चैन से हैं.
पर तीन माह पूर्व जिन-जिन लोगों ने उनकी पूरे देश में जयकार की, वे तत्काल उन्हें ‘पूर्व’ (गद्दी से उतारना) बना देंगे, तो वे इसकी कीमत चुकायेंगे. कांग्रेस न निगल सकने की स्थिति में है, न उगल सकने की. सरकारों को समर्थन देकर बनवाना, फिर गिरा देना, कांग्रेस के अतीत के साथ जुड़ा है.
एक राष्ट्रीय दल के नाते कांग्रेस अतीत के इस बोझ को बढ़ाना नहीं चाहेगी. इसलिए कांग्रेस प्रतीक्षा करेगी कि कब, कहां और कैसे ‘समर्थन वापसी’ का दावं लगाया जाये कि मधु कोड़ा लोक नजर में अपनी ही चाल से चित दिखाई दें. कांग्रेस, इसी अवसर और पल की तलाश में है. ऐसा नहीं है कि मधु कोड़ा सरकार में कांग्रेसियों की नहीं चलती. जो असरदार कांग्रेसी हैं, वे गदगद हैं.
पता करना चाहिए कि किस कांग्रेसी के इशारे पर कोडरमा चुनाव के दौरान, रामगढ़ में कोयला ‘ब्लैक’ करने की खुली इजाजत दी गयी? ‘ब्लैक’ कोयला से भरे ट्रक कहां गये और करोड़ों-करोड़ का खेल किसके इशारे पर हुआ? इसी तरह चाईबासा के एक ईमानदार अफसर पर एक गलत कांट्रेक्टर और सड़क घोटाला करनेवाली कंपनी के पक्ष में काम करने का दबाव किस कांग्रेसी ने डाला? दरअसल कांग्रेस के अधिसंख्य विधायक और कार्यकर्ता मुसीबत में हैं. लोक और समाज में वे फजीहत हो रहे हैं, क्योंकि सरकार कांग्रेस के समर्थन पर टिकी है. इसलिए लोग कांग्रेस पर ताना मारते हैं.
राजद की मुसीबत कांग्रेस से मिलती-जुलती है. राजद के भी प्रभावी लोगों के काम हो रहे हैं. पर अधिसंख्य विधायक और राजद कार्यकर्ता लोक आक्रोश झेल रहे हैं. मधु कोड़ा जानते हैं कि लालू जी प्रसन्न, तो शेष से क्या मुसीबत है? इसलिए सरकार बनते ही लालू जी की सहमति से बीबी सिंह, सुप्रीम कोर्ट में राज्य सरकार के ‘स्टैंडिंग काउंसिल’ हो गये.
अब चर्चा है कि पटना उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश नागेंद्र राय, सुप्रीम कोर्ट में राज्य सरकार के ‘सीनियर स्टैंडिंग काउंसिल’ हो रहे हैं. तो जिसे खुश करना है, वहां मधु कोड़ा जी की निगाह है.
अब सवाल, झामुमो का! झामुमो तो सरकार में है ही. जेल जाने से पहले, इस सरकार की कुंजी गुरुजी, शिबू सोरेन के हाथ में भी थी. अब हालात बदले हैं. झामुमो फिलहाल उलझा हुआ है. गुरुजी का प्रकरण, उसकी पहली प्राथमिकता है. इसलिए सत्ता बनाने-गिराने के खेल में वह नहीं पड़ना चाहेगा. जो लोग झामुमो-भाजपा गंठबंधन पर कयास लगा रहे हैं, वे भूल रहे हैं कि कांग्रेस इसी प्रतीक्षा में है.
जैसे समर्थन वापसी हुई, कि राष्ट्रपति शासन. झारखंड की राजनीति की छवि ऐसी बन गयी है कि इस राष्ट्रपति शासन का हर कोई स्वागत करेगा. फिलहाल गुरुजी संकट में हैं, तो उनका दल यहां सत्ता में तो है. सत्ता के अपने लाभ हैं. इसलिए झामुमो बिना वजह झारखंड की सत्ता क्यों खोना चाहेगा?
अब निर्दलीयों की भी सुध. इस सरकार का सौंदर्य या आभूषण ही है, इसका निर्दल राग-निर्दलीय चरित्र. निर्दलीय मुख्यमंत्री और निर्दलीय मंत्री ही दमदार और रसूखवाले हैं. एकाध को छोड़ दें, तो सब निर्दल लोगों के उद्देश्य-काम आईने की तरह साफ और चमक रहे हैं. ‘मत चूको चौहान’ वाली स्थिति है. इस बार नहीं तो कभी नहीं. भला निर्दल किस आदर्श राग के तहत सत्ता का स्वर्ग छोड़ेंगे?
याद करिए, कोड़ा सरकार के गठन से पहले यूपीए के बड़े नेताओं ने हुं कार लगाये थे कि अर्जुन मुंडा सरकार की भ्रष्टाचार की जांच करायेंगे? पर क्या हुआ? अब कांग्रेसी-राजदवाले अपनी ही सरकार के भ्रष्टाचार की बात कर रहे हैं. दरअसल यूपीए घटक की इस आपसी लड़ाई में न कोई आदर्श है, न सिद्धांत, बल्कि हिस्सेदारी का झगड़ा है. झारखंड की जो हालत है, उसमें कोई बाहरी निवेश तो होने से रहा. बाहरी निवेश होता, तो बिजनेस की दुनिया से झारखंड की राजनीति समृद्ध होती.
फिलहाल ट्रांसफर-पोंस्टिग ही उद्योग है. समस्या है कि एक जिले में एक पोस्ट है, तो यूपीए घटक दलों की अलग-अलग सूची है. अब पद तो बढ़ नहीं सकते, इसलिए हर एक खुश नहीं हो सकता. मधु कोड़ा अपनी सरकार की आयु को लेकर भ्रम की स्थिति में नहीं हैं, इसलिए वह निश्चिंत हैं.
दिनांक 16-06-08
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