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झारखंड चुनाव-3 : किस रास्ते चले अध्यक्ष-विधायक

– हरिवंश – अवसर था, झारखंड विधानसभा स्थापना संदर्भ में शुरू विधानसभा सत्र. 22 नवंबर 2008. 8 वें जन्मदिन समारोह, आयोजन और अपनी भूमिका पर चर्चा. पूर्व विधानसभा अध्यक्ष नामधारीजी ने सही कहा कि स्थापना दिवस महज औपचारिकता भर है. अध्यक्ष आलमगीर आलम सहमत थे. बोले, अपने मकसद को पाने में हम विफल हैं. पर […]

– हरिवंश –

अवसर था, झारखंड विधानसभा स्थापना संदर्भ में शुरू विधानसभा सत्र. 22 नवंबर 2008. 8 वें जन्मदिन समारोह, आयोजन और अपनी भूमिका पर चर्चा. पूर्व विधानसभा अध्यक्ष नामधारीजी ने सही कहा कि स्थापना दिवस महज औपचारिकता भर है. अध्यक्ष आलमगीर आलम सहमत थे. बोले, अपने मकसद को पाने में हम विफल हैं. पर किसी को विधानसभा में आस्था नहीं खोनी चाहिए, क्योंकि लोकतंत्र का यही सबसे महत्वपूर्ण स्तंभ है.

अध्यक्षजी ने सही फरमाया. विधानसभा, लोकतंत्र का मंदिर-प्राण है. पर इसकी मर्यादा और महत्व को किसने घटाया? किसी बाहरी व्यक्ति या संस्था ने? सवाल ही नहीं. खुद विधायकों ने, विधानसभा अध्यक्षों ने. विधानसभा में विधायकों के निलंबन को लेकर वर्षों से मामले निलंबित रहे.

स्टीफन मरांडी का मामला सितंबर ’06 में दर्ज हुआ. एनोस एक्का का मामला ’05 में दर्ज हुआ, पार्टी संस्थापक एनई होरो ने दर्ज कराया. भानु प्रताप शाही के खिलाफ मामला दर्ज हुआ, मार्च ’07 में. कमलेश सिंह के खिलाफ सितंबर ’06 में मामला दर्ज हुआ. रवींद्र राय, विष्णु भैया, मनोहर टेकरीवाल, प्रदीप यादव और कुंती देवी के खिलाफ मार्च ’07 में मामला दर्ज हुआ. बंधु तिर्की के खिलाफ अगस्त ’07 में मामले दर्ज हुए.

पर इन मामलों पर क्या रुख रहा विधानसभा अध्यक्षों का? कितने दिनों बाद इन पर निर्णय आये. 13 अगस्त ’09 को स्पीकर का फैसला आया. विधानसभा निलंबन के बाद. दो या तीन या चार वर्ष ऐसे मुकदमे चले? वर्षों लगे सात लोगों की सदस्यता रद्द होने में. जबकि एक-एक मामले पानी की तरह साफ थे.

इस बीच कुछ सजग नागरिक हाइकोर्ट गये. हाइकोर्ट ने हस्तक्षेप किया. स्पीकर से स्पष्टीकरण मांगा. पांचों तत्कालीन मंत्रियों से भी. याद करिए-13 सितंबर ‘2006 को स्पीकर नामधारीजी ने स्टीफन मरांडी, कमलेश सिंह और एनोस एक्का के मामलों की सुनवाई कर ली थी. पर फैसला नहीं सुनाया.18 सितंबर ’06 को आलमगीर आलम विधानसभा अध्यक्ष बने. उन्होंने दोबारा नोटिस जारी कर किया.

इस खेल के पीछे का खेल क्या दुनिया नहीं जानती? जब तक विधायकों की सदस्यता का उपयोग रहा, सरकार बनाने और चलाने में, तब तक उनका इस्तेमाल किया गया. जब विधानसभा ही निलंबित हो गयी और विधायकों का कोई उपयोग नहीं रहा, तो उनकी सदस्यता रद्द की गयी. क्या यही समाज की आदर्श संस्था का न्याय है? गांधी, साध्य और साधन की बात करते थे.

लोकतंत्र के मंदिर, विधानसभा से मर्यादा, शुचिता और आदर्श प्रस्तुत होता, तो राज्य की अन्य सार्वजनिक संस्थाएं इसका अनुकरण करतीं. विधायिका से अक्सर आवाज उठती है कि न्यायपालिका से हमारी स्वायत्तता में हस्तक्षेप होता है. झारखंड के कुछ राजनेता भी यह सवाल उठाते थे. विधायकों के लंबित प्रसंग में अनावश्यक विलंब पर जब हाइकोर्ट ने पूछा, तो विधायिका को तकलीफ हुई? किसने अवसर दिया, न्यायपालिका को कि वह विधायिका से पूछे? स्पष्ट है, विधायिका ने. इस विलंब के पीछे के मकसद साफ थे.

विधायिका, इन जन मुद्दों पर सुनवाई में विलंब कर, जनता के हक-न्याय को प्रभावित कर रही थी. क्या जनता को विधायिका से यह पूछने का हक नहीं है कि आप इस विलंबित न्याय से जनता के नैसर्गिक अधिकार का हनन कर रहे हैं? विधायिका बड़ी है या जनता? ये नेता बड़े आदर्श, ऊंचे विचार पर भाषण देते हैं. ये लोग फरमाते हैं कि जस्टिस डीलेड जस्टिस डीनाइड. क्या इन्हें यह कहने का हक है? कुछ और नहीं तो लोकसभा में या पड़ोसी बिहार में, या पड़ोसी छत्तीसगढ़ में कैसे ये मामले त्वरित ढंग निबटाये गये?

कम से कम यह तो देखना-जानना चाहिए था. किस तरह अन्य राज्यों की विधायिका ने सार्वजनिक जीवन में मर्यादाओं का पालन किया है, इससे तो सीखते. पर झारखंड विधानसभा तो अलग थी. वह सूची गौर करिए, जो इस टिप्पणी के साथ है कि लोकसभा या अन्य विधानसभाओं में इन मामलों को कैसे और कब निबटाया गया. कितना समय लगा? अब ये तथ्य जान कर फैसला करिए कि झारखंड में क्या हुआ? विधानसभा के महत्व को किसने कम किया?

विधानसभा सत्र के एक दिन का अनुमानित खर्च है, 4.6 लाख रुपये. एक अध्ययन होना चाहिए कि इतने खर्च के बाद भी क्या सार्थक बहस हुई, जिससे राज्य, समाज को कोई रोशनी मिल सके? किस तरह चीख-चिल्लाहट हुई? क्या शब्द बोले गये? मंत्रियों को जेड श्रेणी की सुरक्षा थी. विधायकों को वाई श्रेणी की सुरक्षा. पर जिन नागरिकों की ये रहनुमाई करते हैं और जिस जनता को चुनाव में भगवान कहते हैं, उनकी सुरक्षा पर? प्रति विधायक प्रतिमाह सुरक्षा खर्च औसतन 28000 रुपये थी. प्रतिमाह हर मंत्री पर सुरक्षा खर्च औसतन 1.3 लाख रुपये.

पर इन नेताओं के ‘ भगवान’ नागरिकों पर? प्रति नागरिक सिर्फ सात रुपये सुरक्षा खर्च. राज्य के 967 लोगों की सुरक्षा के लिए सिर्फ एक पुलिसकम. पर इनकी सुरक्षा पर? मंत्रियों के सायरन और काफिले से आतंकित जनता सड़क खाली कर देती थी.

एक तरफ विधायक सर्वश्रेष्ठ सुविधाएं पा रहे थे. वेतन, भत्ते, सत्ता और सुरक्षा. पर विधानसभा में शायद किसी ने ऐसे सवाल नहीं पूछे कि

1) 10 वीं पंचवषय योजना अवधि (2002-07) में विकास लक्ष्य के मुकाबले राज्य की उपलब्धि क्या रही?

2) 11 वीं पंचवषय योजना अवधि (2007-12) के लिए विकास का क्या लक्ष्य है?

3) महालेखाकार रिपोर्ट में उजागर वित्तीय अनियमितताओं में क्या कार्रवाई हुई? कौन दोषी अफसर हैं? क्या वे दंडित हुए?

4) देश भर के 18 सर्वाधिक गरीब जिलों में से 9 जिले झारखंड में हैं. राज्य बनने के बाद इन जिलों की कितनी स्थिति सुधरी?

ऐसे अनेक सवाल जो सीधे गरीबों से जुड़े हैं, राज्य के विकास से जुड़े हैं, उन पर कभी गंभीर चर्चा हुई? अगर हुई तो समाधान निकला? आखिरकार लोकतंत्र में विधानसभा के होने का बड़ा महत्वपूर्ण मतलब है. पर उस महत्व को किसने और कब कमजोर किया, इस पर कभी विधानसभा ने गौर किया? ऐसे-ऐसे प्रस्ताव पारित हो रहे थे, जिन्होंने विधानसभा की नैतिक आभा धूमिल की.

मसलन विधानसभा में नयी योजना बनी कि पूर्व स्पीकरों को आजीवन कैबिनेट मंत्रियों की सुविधाएं मिलेंगी. पूर्व मुख्यमंत्रियों को तो मुफ्त सरकारी बंगला, गाड़ी, फोन, आप्त सचिव की सुविधा उपलब्ध करायी ही गयी. ऐसे अनेक हतप्रभ करनेवाले काम झारखंड विधानसभा में हो रहे थे. पूर्व स्पीकरों को आजीवन सुविधा के विधेयक को गवर्नर सिब्ते रजी ने अनुमति नहीं दी. उल्लेखनीय है कि देश के किसी अन्य राज्य में पूर्व स्पीकर या सभी पूर्व मंत्रियों को ऐसी सुविधाएं हासिल नहीं हैं.

ऐसे कार्यों से विधानसभा की गरिमा बनी या बिगड़ी? यह सवाल लोगों को इन चुनावों में इन दलों से पूछने चाहिए.

बचपन में प्रकृति की ताकत के बारे में कहावत सुनी थी. एक बीज उपजते हुए-बढ़ते हुए कोई आवाज नहीं करता. यानी सृजन चुपचाप होता है. एक पेड़ गिरता है, तो भयानक शोर होता है. स्वस्थ मूल्यों या ऊंचे आदर्शो को गढ़ने में चर्चा नहीं होती. यह तप, त्याग और श्रमसाध्य है. पर अस्वस्थ परंपराओं – कदमों के स्वर तेज होते हैं. झारखंड में लोकतंत्र के मंदिर से जब अस्वस्थ परंपराओं की गूंज होने लगी, तो यह राज्य के सचिवालय, जिलों और ब्लॉकों तक पहुंची. फिर झारखंड का क्या हाल हुआ? यह सब जानते हैं? क्या इन चुनावों में इन सवालों पर कोई गौर करने को तैयार है?

(हम यह भी उल्लेख करना चाहते हैं कि पक्ष-विपक्ष में अनेक विधायक रहे, जिनकी भूमिका गौरवमय रही, पर वे मुख्यधारा को नहीं मोड़ सके. क्योंकि यह काम सरकार या अध्यक्ष की भूमिका से ही संभव था.)

दिनांक : 30-10-09

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