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दिल्ली के शासक नहीं जानते लाल सलाम की ताकत और विफल राजसत्ता (फेल्ड स्टेट) के हालात!

– हरिवंश – नक्सल समस्या के प्रभाव और उसकी गहराई का एहसास दिल्ली में बैठे लोगों को नहीं है. दिल्ली का शासक वर्ग, राजनेता या बुद्धिजीवी वर्ग, इसे या तो सामाजिक-आर्थिक समस्या कह कर टाल देता है या एक वर्ग अब भी इसमें 1967-69 के रोमांटिक दिनों की छवि देखता है. नक्सल प्रभावी इलाकों में […]

– हरिवंश –
नक्सल समस्या के प्रभाव और उसकी गहराई का एहसास दिल्ली में बैठे लोगों को नहीं है. दिल्ली का शासक वर्ग, राजनेता या बुद्धिजीवी वर्ग, इसे या तो सामाजिक-आर्थिक समस्या कह कर टाल देता है या एक वर्ग अब भी इसमें 1967-69 के रोमांटिक दिनों की छवि देखता है.
नक्सल प्रभावी इलाकों में लगातार हो रही घटनाओं में भारी नुकसान हो रहा है. एक जून 2006 को झारखंड के सिंहभूम इलाके (उड़ीसा-छत्तीसगढ़ सीमा) में नक्सलियों ने बारुदी सुरंग लगा कर 12 पुलिस जवानों को मार डाला. इस इलाके में ढाई वर्ष के अंदर 52 केंद्रीय पुलिस बल के लोग मारे जा चुके हैं. इस तरह की घटनाएं कभी छत्तीसगढ़, कभी आंध्र, कभी महाराष्ट्र के इलाकों में लगातार हो रही हैं. पर दिल्ली में बैठे शासकों के लिए लगातार हो रही ऐसी घटनाएं महज सामान्य खबर बन कर रह गयी है. इस आंदोलन के प्रभाव को दिल्ली के शासक या शहरों के लोग नहीं समझ रहे.
हालांकि 18 मई 2006 को लोकसभा में गृह राज्यमंत्री श्री प्रकाश जायसवाल ने बताया कि गुजरे वर्ष में नक्सल क्षेत्रों में हिंसक घटनाएं आतंकवाद से ग्रस्त जम्मू-कश्मीर में हुई घटनाओं से अधिक हैं. 30 अप्रैल 2006 तक 550 हिंसक घटनाएं नक्सल प्रभावित राज्यों में हुईं. कश्मीर से लेकर पूर्वोत्तर के राज्यों में इसी दौर में कुल 466 आतंकवादी हमले हुए.
गृहराज्यमंत्री के अनुसार नक्सली हिंसक घटनाओं में इस वर्ष 30 अप्रैल तक सुरक्षा जवानों समेत कुल 281 लोग मारे गये. जम्मू-कश्मीर व अन्य राज्यों में हुए आतंकवादी हमलों में इसी दौर में 141 लोग मरे. गृह मंत्री ने लोकसभा में यह भी बताया कि 12 राज्य नक्सली समस्या से प्रभावित हैं. छत्तीसगढ़, झारखंड, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, उड़ीसा, आंध्रप्रदेश और बिहार के अलावा केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल, हरियाणा व उत्तर प्रदेश के कुछ इलाकों में भी नक्सल आंदोलन का असर है. अप्रैल में इन 12 राज्यों के मुख्यमंत्रियों की एक बैठक इस समस्या को लेकर प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में हुई थी.
प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह ने इस बैठक में नक्सलवाद को आंतरिक सुरक्षा के लिए बड़ी चुनौती कहा. उन्होंने यह भी माना कि कई क्षेत्रों में नक्सलियों की समानांतर सरकार चल रही है. प्रधानमंत्री का सुझाव था कि ‘ संयुक्त एकीकृत कमान’ का गठन कर, इस समस्या से केंद्र और प्रभावित राज्य सरकारें निबट सकती हैं.
आंध्र में केंद्र सरकार की पहल पर नक्सली संगठनों और राज्य सरकार के बीच चली बातचीत विफल हो जाने के बाद, केंद्रीय गृह मंत्री शिवराज पाटील ने इस समस्या से प्रभावित राज्यों का दौरा कर मुख्यमंत्रियों और राज्य सरकारों से बातचीत की. पर आज तक इस गंभीर समस्या को लेकर कोई स्पष्ट नीति नहीं बन सकी है. दिल्ली की एक संस्था ‘ इंस्टीट्यूट फॉर कान्फ्लक्टि मैनेजमेंट’ के अनुसार वर्ष 2003 में नौ राज्यों के 55 जिले नक्सली समस्या से प्रभावित थे. 2004 में 13 राज्यों के 170 जिलों में नक्सल प्रभाव बढ़ा.
प्राप्त तथ्यों के अनुसार 12 राज्यों के 55 जिलों में नक्सली समूहों की समानांतर सरकारें हैं. छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा (जो नक्सल समस्या से गंभीर रूप से प्रभावित है) में सीआरपीएफ के एक कमांडर ने कहा कि एक करोड़ से अधिक कीमत की एंटी लैंड माइन वाहन को कई दर्जन सुरक्षाबलों के जवानों समेत नक्सली विस्फोट में उड़ाते हैं. अब नक्सली हिंसा से निबटने में ‘ एंटी लैंड माइन’ वाहन भी असरदार नहीं रहे. एक जून 2006 को झारखंड के सिंहभूम में नक्सलियों की बारुदी सुरंग में मारे गये 12 पुलिस जवान एक ‘ बुलेटप्रूफॅ’ जिप्सी में सवार थे.
1967 में शुरू हआ नक्सलवादी आंदोलन बाद के दौर में कई टुकड़ों में बंट गया और उसके कुछ हिस्सों ने संसदीय रास्ता अख्तियार कर लिया. लेकिन इस बिखराव के बाद एक बार फिर नक्सली आंदोलन नये व संगठित रूप में सामने आया है. यह पहले से ज्यादा आक्रामक, सुसंगठित व अत्याधुनिक उपकरणों, हथियारों व सूचनातंत्र से लैस है. विगत वर्षों में बिहार-झारखंड में सक्रिय पार्टी यूनिटी, एमसीसी का विलय हुआ. फिर आंध्रप्रदेश-छत्तीसगढ़ में गहरी पैठ रखनेवाले पीपुल्स वार के साथ इसका विलय हुआ. अब भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के रूप में एकीकृत संगठन सामने आया है.
आंध्रप्रदेश से झारखंड तक पहली बार नक्सलियों की ऐसी सुसंगठित पार्टी सामने आयी है. नेपाल के नक्सलियों के साथ इनके रिश्ते गहरे हैं तथा हथियारों के आदान-प्रदान से लेकर प्रशिक्षण में सहयोग जैसी चीजें सामने आती रहती हैं.
राजसत्ता का अंतर्विरोध व विफलता
दरअसल ‘ नक्सल समस्या’ पर 1967 के बाद से ही चर्चा तो होती रही है. पर इसके समाधान की गंभीर पहल आज तक नहीं हुई. केंद्र का स्वर अलग रहा है. राज्य सरकारें अलग-अलग भाषा बोलती रही हैं. अब तक ऐसा लगता रहा है कि हर पक्ष, अपना दायित्व, एक-दूसरे पर थोपना चाहता है. केंद्र कहता रहा है कि यह ‘ कानून-व्यवस्था’ की समस्या है. इसकी बुनियाद में आर्थिक-सामाजिक सवाल हैं. राज्य सरकारें इसका निदान ढूंढ़ें. राज्य सरकारें कहती रही हैं कि इस समस्या की जड़ें कई राज्यों में फैली हुई हैं, इसलिए इस मोरचे पर समेकित प्लान (इंटीग्रेटेड प्लान) ही असरदार हो सकता है. पर आज तक न केंद्र के पास और न राज्य सरकारों के पास ‘ काउंटर-नक्सलाइट पालिसी’ (नक्सल विरोधी रणनीति) है.
13 मार्च 2006 को केंद्रीय गृह मंत्री ने लोकसभा में नक्सल आंदोलन के संदर्भ में एक रिपोर्ट पेश की, ‘ स्टेट्स पेपर आन नक्सल प्राब्लम (नक्सल समस्या पर अद्यतन रिपोर्ट) गृह मंत्री ने कहा …. वी वेयर टेलिंग देम दैट वी डू हैव ए पालिसी एंड वी आर फालोइंग द डाइरेक्शंस गिवन इन दैट पालिसी एंड येट इवरी नाउ एंड देन वी वेयर टोल्ड दैट वी लैक ए पालिसी. सो वी थाट आफ पुटिंग द पालिसी इन ए बुकलेट फार्म एंड गिविंग इट टू द आनरेबल मेंबर्स.
(… हम पहले से कहते रहे हैं कि हमारी नीति है और हम, उस नीति के तहत स्पष्ट दिशा-निदश के अनुसार ही कदम उठाते रहे हैं. फिर भी जब-तब कहा जाता रहा है कि हमारे पास कोई स्पष्ट नीति नहींहै. इसलिए हमने तय किया कि अपनी नीति का एक बुकलेट तैयार कर माननीय सांसदों को दिया जाये).
लोकसभा में गृहमंत्री जिस दिन नक्सल समस्या पर सांसदों को भारत सरकार की नक्सल नीति की रिपोर्ट की प्रतियां दे रहे थे, उसी दिन (13 मार्च) नक्सल समस्या से गंभीर रूप से प्रभावित छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह ने कहा कि नक्सल समस्या को लेकर नीतिगत भ्रम की स्थिति है.
प्रभावित राज्यों के बीच कोई आपसी तालमेल नहीं है. इस समस्या को लेकर उन्होंने एक राष्ट्रीय नीति की मांग की. इसके पहले बंगाल-चुनावों के दौरान कुछ जिलों में हुई नक्सल हिंसा पर बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने अत्यंत कठोर और सख्त शब्दों में नक्सलियों को बंगाल से बाहर करने की बात की. उनके खिलाफ कठोर कार्रवाई का आदेश दिया. उन्होंने यह भी कहा कि झारखंड से नक्सली बंगाल आ कर हिंसा फैला रहे हैं. अगस्त 2005 में माकपा के सीताराम येचुरी ने हैदराबाद में बयान दिया कि नक्सल समस्या के बारे में कोई एक राष्ट्रीय नीति नहीं बन सकती.
हाल में छत्तीसगढ़ के बस्तर-दंतेवाड़ा जिले में एक स्वतंत्र ‘ सिटीजन टीम’ गयी थी. छत्तीसगढ़ में नक्सल आंदोलन से गंभीर रूप से यह इलाका प्रभावित है. इस इलाके के कुछ क्षेत्रों को नक्सली लिबरेटेड जोन मानते हैं. वहां सरकार की मदद से नक्सलियों के खिलाफ सलवा जुडूम आंदोलन भी चल रहा है. इस टीम से बात करते हए एक जिले के कलक्टर ने कहा कि हम कैसे इस समस्या से निबटें? महाराष्ट्र या आंध्र या उड़ीसा या झारखंड से नक्सली समूह इधर आकर कार्रवाई करते हैं या इधर कार्रवाई कर उधर चले जाते हैं?
बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य कह ही चुके हैं कि झारखंड के नक्सली बंगाल के जिलों में आ कर हिंसा फैला रहे हैं. उधर झारखंड सरकार पहले से ही मानती रही है कि इस आंदोलन का नेतृत्व गैर झारखंडी (बंगाल या आंध्र) नेता करते रहे हैं. बिहार में भी कहा जाता रहा है कि बंगाल से आकर लोगों ने बिहार में इस आंदोलन के बीज बोये.
यही आरोप-प्रत्यारोप, छत्तीसगढ़ में सुनने को मिलता है कि आंध्र के नक्सल नेता, छत्तीसगढ़ में आकर इस आंदोलन की रहनुमाई कर रहे हैं. नक्सल समस्या से प्रभावित राज्य इसी तरह के आरोप-प्रत्यारोप एक दूसरे पर मढ़ते रहे हैं, पर 39 वर्षों बाद भी केंद्र या राज्य सरकारों के पास इस गंभीर समस्या को लेकर कोई मुकम्मल और स्पष्ट नीति नहीं है. दूसरी ओर नक्सली समूहों की नीति स्पष्ट है और वे इसी नीति के तहत अपना आधार लगातार फैला-बढ़ा रहे हैं.
लोकसभा के पटल पर केंद्र सरकार द्वारा रखी गयी पुस्तिका के पारा 3 में उल्लेख है कि नक्सलवाद अंतरराज्यीय समस्या है, इससे प्रभावित सभी राज्य सामूहिक नीति तय करेंगे और इससे निबटने के लिए सामूहिक रणनीति अपनायेंगे. (नक्सलिज्म बीइंग एन इंटर स्टेट प्राब्लम द स्टेट्स विल एडाप्ट ए कलेक्टिव अप्रोच एंड परसू ए कोआर्डिनेटेड रिस्पांस टू काउंटर इट).
केंद्र सरकार ने विभिन्न अवसरों पर पहले भी इस तरह की घोषणाएं की हैं. पर नक्सल आंदोलनों से प्रभावित राज्यों के नीतिगत अंतर्विरोध और रणनीति के स्तर पर अलग-अलग मत लोक जाहिर हैं. आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़ और तमिलनाडु ने माकपा (माओवादी) को प्रतिबंधित कर रखा है. ओड़िशा, पहले इस तरह के प्रतिबंध के खिलाफ था, पर अब अपना पुराना स्टैंड बदलता दीख रहा है.
पश्चिम बंगाल ने प्रतिबंध से इनकार किया है. छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री ने नक्सली समस्या को लेकर केंद्र व राज्य में बनी भ्रम की स्थिति पर चिंता प्रगट की है. उनका कहना है कि इस भ्रम के कारण इससे प्रभावित राज्यों में कोई आपसी तालमेल नहीं है और केंद्र से मामूली मार्गदर्शन मिलता है. (वी नीड एन इनटीग्रेटेड प्लान टू टैकेल दिस प्राब्लम एमांग एफेक्टेड स्टेट्स एंड अंडर दिस प्लान, देयर हैज टू बी ज्वाइंट एक्शन…).
प्रधानमंत्री जिस समस्या को गंभीर आंतरिक चुनौती मानते हैं, उससे निबटने के स्तर पर इस तरह का नीतिगत अंतर्विरोध है. फिर भी गृहमंत्री द्वारा लोकसभा में प्रस्तुत इस पुस्तिका में (पारा पांच) भारत सरकार कहती है कि इस समस्या से प्रभावित राज्यों और नक्सलियों के बीच कोई बातचीत या संवाद तब तक नहीं होगा, जब तक नक्सली हिंसा और हथियार नहीं छोड़ते. (देयर विल वी नो पीस डायलाग वाइ द अफेक्टेट स्टेट्स विद द नक्सल ग्रुपस अनलेस द लैटर एग्री टू गिव अप वायलेंस एंड आर्म्स).’ गृहमंत्री खुद यह पुस्तिका लोकसभा में प्रस्तुत करते हैं और नक्सलियों से बातचीत के पूर्व की केंद्र सरकार द्वारा तय शर्त की सूचना देते हैं.
केंद्र सरकार की इस नीति के तहत जब तक नक्सली हिंसा नहीं छोड़ते, तब तक इस समस्या से प्रभावित राज्य उनसे बातचीत नहीं कर सकते. पर 19 सितंबर को इसी गृहमंत्री का बयान था कि यदि नक्सली हथियार छोड़ देते हैं, तो अच्छी बात है. पर वे हथियार लेकर ही बातचीत या संवाद करना चाहते हैं …. तो हमें कोई परेशानी नहीं है. ‘इफ दे ड्राप आर्म्स, इट इज गुट. बट इफ दे वांट टू कैरी आर्म्स एंड स्टील टाक … वी डू नाट हैव एनी डिफकल्टी.’ शायद इसी रणनीति के तहत आंध्र सरकार और सशस्त्र नक्सलियों के बीच 15-18 अक्तूबर 2004 के बीच बातचीत हुई थी.
इस तरह केंद्र सरकार और राज्य सरकारों के बीच अंतर्विरोध के अनेक उदाहरण मौजूद हैं, जिनसे यह प्रमाणित होता है कि केंद्र सरकार या प्रभावित राज्य सरकारों के पास इस समस्या से निबटने के लिए नीति (पालिसी) और रणनीति (स्ट्रेटजी) के स्तर पर कोई स्पष्टता नहीं है. ‘ जहां आग दिखाई दे, वहां पानी डालो’ की रणनीति पर सरकारें चलती रही हैं. कहीं कोई बड़ी वारदात होती है, तो हिंसा में मारे गये लोगों को मुआवजा दे कर कुछ नीतिगत घोषणाएं होती हैं, फिर बात खत्म हो जाती है. यही अप्रोच पिछले 39 वर्षों से देश में चल रहा है.
इसी तरह पिछले 39 वर्षों में पश्चिम बंगाल के एक गांव नक्सलबाड़ी से शुरू हआ यह आंदोलन अब 13 राज्यों के 170 जिलों में पसर गया है. सरकारें (केंद्र व राज्य स्तर पर) 39 वर्षों में नीति और रणनीति तलाशती रहीं और नक्सल प्रभाव एक गांव से निकल कर देश के विभिन्न हिस्सों में पसरता ही जा रहा है. इस प्रकरण के संदर्भ में भारत एक फेल्ड स्टेट (विफल राजसत्ता) है.’ स्टेट पावर’ (राज्यसत्ता) के स्तर पर इससे गंभीर विफलता और क्या हो सकती है?
दरअसल बहुत पहले ‘ एशियन ड्रामा’ के लेखक और नोबुल पुरस्कार विजेता, प्रो गुन्नार मिर्डल, भारत के संदर्भ में (1950-60 के बीच) कह गये कि भारत की सबसे बड़ी समस्या ‘ साफ्ट स्टेट’ होना है. ‘ साफ्ट स्टेट’ से उनका आशय ‘ अशासित राज्य’ से था. प्रो मिर्डल का संदर्भ था कि भारतीय व्यवस्था-राजसत्ता का ‘ डिलीवरी मेकेनिज्म’ (वितरण प्रणाली) अत्यंत कमजोर है.
आज भ्रष्टाचार ने इस डिलीवरी मेकेनिज्म को लगभग ध्वस्त कर दिया है. कल्याणकारी योजनाओं के लाभ ‘ ट्रिकल डाउन’ हो कर नीचे तक नहीं पहंच रहे. प्रो गुन्नार मिर्डल ने जब ‘ साफ्ट स्टेट’ कहा, तब का भारत, आज 45 वर्षों बाद और अशासित, अक्षम और लाचार दीख रहा है. यह लुंजपुंज व्यवस्था, कैसे अपने उद्देश्यों के प्रति समर्पित नक्सल लोगों के मुकाबले लड़ पायेगी?
लाचार राजनीति
अगर राज्य सत्ता (स्टेट) यानी प्रशासन-पुलिस और सरकारें विफल हो जाये, तो इस समस्या के समाधान में ‘राजनीति’ सबसे कारगर हो सकती है. लेकिन विभिन्न राजनीतिक दलों में भी इस समस्या को लेकर केंद्र सरकार और राज्य सरकारों की तरह ही अंतर्विरोध और मतभिन्नता है.
बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि जैसे केंद्र और राज्य सरकारों के पास नक्सली ताकतों को लेकर कोई नीति नहीं है, उसी तरह राजनीतिक दलों की स्थिति है. ग्रासरूट पर यह स्थिति है कि नक्सल प्रभावित इलाकों में किसी दल का कोई नेता बगैर नक्सली संगठनों के समर्थन के कार्यक्रम नहीं करता.
चुनावों में इन नक्सली ताकतों से राजनीतिक दल मदद लेते हैं. कई बड़े नेताओं के अपने-अपने राज्य में नक्सली नेताओं से संबंध भी हैं. भारत सरकार की इंटेलिजेंस और राज्य सरकारों की खुफिया विभाग को सारी सूचनाएं हैं.
झारखंड में पिछले दिनों राज्य सरकार ने इस समस्या पर सर्वदलीय बैठक बुलायी. कुछ राजनीतिक दल के लोग आये ही नहीं. जो आये, सामान्य बातें कर चलते बने. नेताओं को भय है कि नक्सलियों के खिलाफ आवाज उठाना महंगा पड़ सकता है. झारखंड सरकार मानती है कि 22 में से 18 जिले नक्सल आंदोलन की चपेट में हैं. पर झारखंड की विधानसभा में, शायद ही कभी इस समस्या को लेकर लगातार गंभीर बहस हुई हो या कोई रणनीति बनाने में पहल हुई हो. बिहार में भी लगभग यही स्थिति है.
नक्सलियों के भय से झारखंड में पुलिस चौकियों को बंद किया जा रहा है. मई 2006 में हजारीबाग जिले के रामगढ़ के औद्योगिक इलाके की तीन पुलिस चौकियां (बासल, उरीमीमारी और भदानीनगर) बंद कर दी गयीं. इनमें भदानीनगर पुलिस चौकी में मौजूद सारी रायफलें पिछले साल नक्सली लूट ले गये थे. इन पुलिस चौकियों की असुरक्षा के कारण इन्हें बंद करके पूरे इलाके को असुरक्षित छोड़ देना पड़ा.
मैकलुस्कीगंज में ऐसी ही एक पुलिस चौकी को खाली किये जाने के दूसरे ही दिन नक्सलियों ने उड़ा दिया. पुलिस ने नक्सलियों के खिलाफ अभियान चलाना बंद कर रखा है तथा नक्सली इलाकों में घुसने की हिम्मत नहीं. नक्सली इलाकों में विकास योजनाओं का प्राक्कलन तैयार करते समय लगभग 30 प्रतिशत तक ज्यादा राशि का प्रावधान रखा जाने लगा है, ताकि नक्सलियों को लेवी देना संभव हो सके.
झारखंड विधानसभा में सरकारी पक्ष के एक विधायक ने हाल में कहा कि विधायक नक्सलियों के डर से सवाल नहीं पूछते. पर पूरी विधानसभा मौन बनी रही. यही हाल अन्य राज्यों में भी है.
तथ्य यह है कि राजनीति या राजनीतिक दलों ने गांवों, कस्बों, जंगलों, वंचित समूहों, दलितों और आदिवासियों की चिंता छोड़ दी है. ग्रासरूट के सवालों को उठाना छोड़ दिया है. अंग्रेजी मुहावरे में कहते हैं ‘ स्पेस वेकेंट’ कर दिया है. राजनीति द्वारा इस खाली जगह को भरा है, नक्सली समूहों ने.
जब राजनीति मुद्दों-विचारों से जुड़ी थी, तब गांव-गांव राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता होते थे. अब राजनीति महज एमएलए/एमपी/मुखिया बनने का साधन रह गयी है, इसलिए गांवों में राजनीतिक दलों के प्रतिबद्ध कार्यकर्त्ताओं की कमी हो गयी है. इसके ठीक विपरीत नक्सलियों ने अपने अलग-अलग मोरचे बना कर गांवों में प्रतिबद्ध काडर खड़े कर लिये हैं, सशस्त्र काडर से ले कर उनके लिए काम करनेवालों की जमात है. अब राजनीतिक दलों के लोग, नक्सल समर्थक कार्यकर्त्ताओं-लोगों का वोट पाने के लिए उनके नेताओं को अपने पक्ष में करते हैं. नक्सली संगठन, वोट देने या न देने का फरमान जारी करते हैं.
राजनीतिक स्तर पर नक्सलियों को अंतिम राजनीतिक चुनौती मिली थी, जेपी से ही. आज जेपी को जाननेवाले भी उनके जीवन-कर्म के इस महत्वपूर्ण अध्याय को भूल गये हैं.
1972 के आसपास जेपी के एक सर्वोदयी कार्यकर्ता को नक्सली लोगों ने जान से मारने की धमकी दी. तब जेपी अस्वस्थ थे और पटना से देहरादून के आसपास कहीं विश्राम करने गये थे. जेपी को डाक से उक्त सर्वोदयी कार्यकर्ता ने धमकी भरा वह पत्र भेज दिया. सूचनार्थ. जेपी यह पढ़ कर अत्यंत व्यथित हुए. वह अपना कार्यक्रम बदल कर उस कार्यकर्ता को मिली चुनौती में शरीक होने आ पहुंचे.
मुजफ्फरपुर जिले के मुसहरी गांव में वह गये. उसी इलाके में नक्सली गतिविधियां थीं. जेपी उन्हीं गांवों में ठहरे. न बिजली. न कोई शहरी सुविधाएं. वहां रह कर वह गांव-गांव लोगों के बीच घूमने लगे.
नक्सली लोगों से भी मिले. बातचीत की. भूमि सुधार से लेकर बढ़ते भ्रष्टाचार के प्रसंगों को उन्होंने उठाया और माना कि नक्सली समूहों ने जिस बुनियादी सवालों को उठाया है, राजनीति और राजसत्ता ने उन ग्रासरूट सवालों को अनदेखा किया है, इसलिए नक्सली फैल और बढ़ रहे हैं. जेपी का मानना था कि राजसत्ता और राजनीतिक दल इन बुनियादी सवालों के हल निकाल दें, तो इस समस्या का समाधान संभव है.
उन्होंने अपने मुसहरी अनुभव पर एक छोटी पुस्तिका लिखी, जो तब बहुत मशहर हुई.’ फेस टू फेस’. हिंदी में भी आमने -सामने के नाम से यह छपी. आज कोई भी राजनीतिक दल या नेता नक्सली प्रभावित इलाकों में जाकर न राजनीति करने का साहस रखता है और न अपने सच्चे अनुभवों को व्यक्त करने का संकल्प. यह सबसे कटु अनुभव है कि धुर वाम से लेकर धुर दक्षिण विचारधारा वाले दलों ने भी भ्रष्टाचार से लेकर ग्रासरूट मुद्दों पर स्पष्ट रणनीति न बना कर, वह आधार भूमि नक्सलियों को सौंप दिया है.
छत्तीसगढ़ के सर्वाधिक प्रभावित इलाकों में हाल में जाने पर पता चला कि कैसे अबूझमाड़ से लेकर दंतेवाड़ा समेत बस्तर के अनेक हिस्सों में न सरकार और न राजनीतिक दलों ने पिछले पचास वर्षों में उन जगहों पर कोई महत्वपूर्ण काम किया. न स्कूल, न स्वास्थ्य केंद्र, न सस्ते दर पर जनवितरण प्रणाली का प्रबंध, न सड़कों का निर्माण, न रोजगारों का सृजन. दूसरी ओर जंगल में बढ़ते भ्रष्ट ठेकेदारों का दबदबा, ऐसी परिस्थितियों में पिछले 25-30 वर्षों में नक्सलियों ने छत्तीसगढ़ के इन इलाकों में अपनी जड़ें मजबूत कर लीं.
तब यह इलाका मध्यप्रदेश के साथ था. आज खुले रूप से इन इलाकों के सरकारी अफसर कहते हैं कि अबूझमाड़ के इलाके (लगभग 130 गांव) में कोई प्रवेश नहीं कर सकता. प्रवेश कर, वापस नहीं लौट सकता. पूरे इलाके में लैंडमाइंस बिछाए हुए हैं. कुछ दिनों पहले छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री हेलीकॉप्टर से अबूझमाड़ के एक गांव में गये, तो उन पर भी गोलियां चलीं.
फंक्शनल एनार्की
अब स्थिति यह है कि नक्सल आंदोलन से प्रभावित कई राज्यों में गंभीर वारदातें होती हैं और स्थानीय प्रशासन असहाय बन जाता है. राज्य सरकारें गोलमोल जवाब देती हैं.
केंद्र को पता भी नहीं चलता कि मुल्क में कहां क्या हो रहा है? पिछले वर्ष नेपाल की सीमा से बिहार के जुड़े इलाकों में नक्सलियों ने मधुबन और मोतिहारी के शहरी इलाकों में खुलेआम धावा बोला. पुलिस और प्रशासन के लोगों ने भाग कर जान बचायी. लालू प्रसाद के दल के एक सांसद के घर को तहस-नहस कर दिया. उल्लेखनीय है कि यह नेपाल से सटा इलाका है. बिहार-नेपाल के इस सीमावर्ती इलाके में नक्सली समूह ही अपना राज चला रहे हैं. जहानाबाद जेल पर हमला, राजसत्ता के असहाय और कमजोर होने का सबसे बड़ा प्रतीक है.
इसी घटना के आसपास झारखंड के गिरिडीह जिले के शहर में स्थित पुलिस लाइंस से नक्सली हमला कर 85 राइफल लूट ले गये. बिहार और झारखंड में एक-एक पुलिस अधीक्षक (एसपी) नक्सलियों द्वारा मारे जा चुके हैं. झारखंड के एक पुलिस अधीक्षक नक्सलियों के हमले में घायल हो कर संयोग से बच गये हैं. एक जिलाधिकारी की पत्नी की हत्या लालबत्ती की गाड़ी में घूमने की वजह से हो चुकी है. हाल में बिहार-झारखंड में एक-एक डीएसपी भी मारे जा चुके हैं. पिछले दो-तीन वर्षों में मारे गये पुलिस के जवानों या आम नागरिकों या नक्सलियों की संख्या जोड़ी जाये, तो स्थिति की गंभीरता को समझा जा सकता है.
झारखंड, बिहार और छत्तीसगढ़ के प्रभावित इलाकों से मिली सूचनाओं के अनुसार नक्सल प्रभावित इलाकों में सड़क का काम, विकास का काम बगैर उनकी अनुमति के संभव नहीं. और नक्सली इन कामों के बारे में अपनी रणनीति के अनुसार ही फैसला करते हैं. कमीशन लेकर काम करने की मंजूरी देते हैं. इन नक्सल इलाकों में एक बार बंदी का आह्वान होता है, तो न कोई बस चलती है और न कोई अन्य वाहन.
ट्रेनें भी नहीं चलती. पिछले दिनों झारखंड में नक्सलियों द्वारा जंगल में एक ट्रेन को रात भर रोके रखने की घटना ने पूरी दुनिया का ध्यान खींचा था. मीडिया में इसे ट्रेन अपहरण घटना की संज्ञा दी गयी. पर ट्रेन में सफर कर रहे लोगों ने स्थानीय प्रशासन, पुलिस और सरकारों के बारे में जो कुछ कहा, वह न देश सुन सका और न जान सका. ट्रेन में फंसे यात्रियों ने कहा कि हम भारत के सामान्य नागरिक हैं, जिनकी सुरक्षा के बारे में आज किसी को चिंता नहीं है. टैक्स हम देते हैं और हमारे टैक्स की बदौलत सरकार और शासक वर्ग के लोग सुरक्षा में घूमते हैं और हमें जंगलों में नक्सलियों के भरोसे छोड़ दिया जाता है. दरअसल भारत और नेपाल के बीच नक्सलियों द्वारा जिस कॉरीडोर बनाने की चर्चा होती रही है, वह कॉरीडोर बन चुका है.
आंध्र से लेकर उड़ीसा, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र होते हए मध्यप्रदेश, झारखंड, उत्तर प्रदेश के कुछ इलाके, बिहार बंगाल होते हुए नेपाल तक का भूभाग इस समस्या से प्रभावित है. इस इलाके के गांवों में वस्तुत: नक्सली तय करते हैं कि कौन कैसे रहेगा, क्या करेगा, कौन मोबाइल फोन खरीदेगा? हाल ही में झारखंड के गढ़वा जिले में (जो छत्तीसगढ़ और उत्तरप्रदेश से जुड़ा है) नक्सलियों ने फरमान जारी किया कि किस वर्ग-जाति के लोग मोबाइल फोन रख सकते हैं.
इन गांवों में किसी भी घर को डाइनामाइट लगा कर उड़ाने की घटना आम है. इन घटनाओं पर पुलिस काम नहीं करती. वहां रह रहे लोगों का जीवन-सुरक्षा नक्सलियों के हाथ में है. झारखंड-बिहार के अनेक जिलों में हजारों एकड़ खेत परती हैं. वहां खेती नहीं होती है.
क्योंकि नक्सलियों ने वर्ग शत्रुओं के खेतों पर प्रतिबंध लगा रखा है. झारखंड के नक्सली प्रभावित इलाके में बस चलानेवाले एक सान कहते हैं कि नक्सलियों के फरमानपत्र में जो कुछ मांग की जाती है, हमें पूरा करना पड़ता है. क्योंकि पुलिस ही यह सुझाव देती है कि उनसे झंझट मोल न लें. इस तरह राज्य सत्ता इन इलाकों से लगभग खत्म हो चुकी है और नक्सलियों के संरक्षण में जाने-रहने का सुझाव अघोषित रूप से नागरिकों को देती है. शहरी इलाकों में यह सब देखते और जानते हए सरकार, पुलिस व प्रशासन मूकदर्शक हैं. झारखंड के पूर्व व पहले मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी (जो हाल ही में भाजपा से इस्तीफा दे चुके हैं) नक्सलवाद के खिलाफ अभियान की बात कर रहे हैं.
सत्ता की राजनीति, जब प्रेरणा और बदलाव का केंद्र नहीं रही, तब नक्सली नेताओं और साहित्य ने परिवर्तन की पक्षधर ताकतों को प्रभावित करना शुरू किया. महत्वपूर्ण नक्सल नेता विनोद मिश्रा (जो अपने जीवन में ही किंवदंती बन चुके थे) ने अंडरग्राउंड रहते हुए बिहार-झारखंड के ग्रामीण इलाकों के संदर्भ में एक महत्वपूर्ण पुस्तक लिखी, ‘ द फ्लेमिंग फील्ड्स ऑफ बिहार’. झारखंड के जेलों में ही नक्सली मेरी टाइलर बंद रहीं, जिनकी बहुचर्चित पुस्तक 1975-78 के दौर में आयी.
‘माइ इयर्स इन इंडियन प्रिजंस’. इसके बाद से लगातार नक्सल प्रभाव इन राज्यों में बढ़ता गया. झारखंड के 22 जिलों में से 18 जिले नक्सली आंदोलन के प्रभाव में हैं. बिहार के कुल 40 जिलों में से 32 जिलों में नक्सली सक्रिय हैं. खास तौर से बिहार के 11 जिले गहराई से प्रभावित हैं. इन इलाकों में कई महत्वपूर्ण नेताओं और चुनावों के दौरान सांसद प्रत्याशियों की हत्याएं नक्सलियों द्वारा हुई हैं.
नवंबर 2000 में झारखंड बना. तब से लेकर अब तक हुई नक्सल घटनाओं को गौर करें, तो स्थिति की गंभीरता समझी जा सकती है.
– एक एसपी, एक डीएसपी, एक जिलाधीश की पत्नी समेत केंद्रीय पुलिस बल एवं राज्य पुलिस बल के कुल 200 से अधिक जवान मारे जा चुके हैं.
– नक्सल समूहों द्वारा अब तक करीब 150 हमले राज्य में हुए.
– 125 से अधिक लोग उग्रवादी हिंसा में मारे गये.
– नक्सल समूहों ने पुलिस से 325 से अधिक अत्याधुनिक हथियार छीने हैं.
– सुरक्षा बलों द्वारा अब तक करीब पांच दर्जन नक्सली मारे गये हैं.
– 20 से अधिक नक्सली गांववालों द्वारा मारे गये.
– घोर जंगल में पुलिस ने नक्सलियों द्वारा बनाये गये 10 से अधिक अंडरग्राउंड बंकर पुलिस ने पता किया और इनके खिलाफ कार्रवाई की.
– करीब तीन नक्सली प्रशिक्षण कैंप नष्ट किये गये.
ऊपर के आंकड़े झारखंड बनने के बाद अप्रैल 2001 से फरवरी 2006 के बीच के हैं.
उल्लेखनीय है कि जब तक झारखंड, बिहार का हिस्सा था, तब तक झारखंड के जंगलों में जमीन के नीचे बड़े-बड़े भूमिगत बंकर बना कर नक्सली वर्षों अपना काम करते रहे.
उन दिनों लालू प्रसाद के खिलाफ यह आरोप भी लगता था कि उनकी सरकार की नक्सलियों से सांठ-गांठ है, इसलिए उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होती है. झारखंड बनने के बाद पुलिस की थोड़ी सक्रियता बढ़ी, तो नक्सली ठिकानों से छापेमारी में लगभग कई करोड़ रुपये नगद भी पुलिस ने बरामद किये. दरअसल इन इलाकों में ‘ स्टेट अंडरसीज’ की स्थिति है. ऐसे हालात तब बनने शुरू हुए, जब स्टेट पावर ने अपने बुनियादी काम बंद कर दिये. मसलन झारखंड-बिहार की सीमा पर डालटनगंज के इलाके में नक्सली संगठनों का दबदबा है.
यह सामंती पृष्ठभूमि का जिला रहा है. सामंती ताकतों को परास्त करने और गरीबों-पिछड़ों को सामाजिक न्याय दिलाने में नक्सलियों की उल्लेखनीय भूमिका रही है, पर अब हालात बदले हैं. लेकिन नक्सलियों की रणनीति वही पुरानी है. इन इलाकों में न्यायिक प्रक्रिया लगभग ध्वस्त हो चुकी है. वर्षों-वर्षों अदालतों में मुकदमे लंबित रहते हैं, लोगों को न्याय नहीं मिलता. इसके ठीक विपरीत नक्सली जनअदालत लगाते हैं.
जनअदालतों में तुरंत फैसला करते हैं और क्रूरतम से क्रूरतम सजा देते हैं. लोग भय या न्याय प्रणाली ध्वस्त होने के कारण इन अदालतों में जमा होते हैं. नक्सलियों की ताकत के सामने इन राज्यों में विधायिका, कार्यपालिका व न्यायपालिका अक्षम सिद्ध हो चुकी हैं. दिल्ली में बैठे लोगों को यह जान कर आश्च›र्य होगा कि शासन में बैठे बड़े-बड़े अफसर नक्सलियों को लेवी या कमीशन देते हैं, और यह सबकुछ सरकारों की जानकारी में वर्षों से चल रहा है.
वर्ष 1993 के आसपास बिहार के (तब झारखंड, बिहार का हिस्सा था) मुख्य सचिव एवं डीजीपी ने रांची में एक बैठक की. इस इलाके के विकास कार्यों की समीक्षा की. उस बैठक में कई जिलों के जिलाधिकारियों और पुलिस अफसरों ने यह बताया कि कैसे सरकारी अफसर, नक्सलियों को नियमित लेवी देते हैं.
1995-96 में राबड़ी देवी ने मुख्यमंत्री बनते ही राज्य के विभिन्न जिलों के जिलाधिकारियों और पुलिस अधीक्षकों की बैठक बुलायी. उस बैठक में मुख्यमंत्री से लेकर सारे बड़े प्रशासनिक अधिकारियों की मौजूदगी में चतरा के तत्कालीन एसपी ने कहा कि कैसे सरकारी अफसर नक्सलियों को बड़ा कमीशन दे रहे हैं.
झारखंड बनने के बाद कई बार यह सार्वजनिक खबर आयी कि फलां-फलां जिले के फलां-फलां वरिष्ठ अफसर, नक्सलियों को भय से नियमित पैसा, संरक्षण, और मदद दे रहे हैं.
पुलिस महकमा की यह स्थिति है कि चतरा जिला के इलाके में एक एसपी पर गंभीर आरोप लगा कि उनके पद संभालते ही, एक-एक कर पुलिस के इंफारमर मार दिये गये. स्पष्ट था कि पुलिस और नक्सलियों में भी कहीं कहीं सांठगांठ है. ऐसे अनेक तथ्य नक्सली इलाकों में हैं, जिनसे प्रमाणित होता है कि नक्सली प्रभाव के आगे स्टेट पावर लाचार हो चुका है.
दरअसल राजनीतिशास्त्र की बुनियादी बातों में यह बताया जाता है कि राज्य (स्टेट) नामक संस्था का गठन ही मनुष्य ने बुनियादी तौर पर सुरक्षा के लिए किया. अब नक्सल प्रभावित इलाकों में यही स्टेट पावर सुरक्षा के लिए नक्सली ताकतों के सामने लाचार दिखता है. उन्हें कमीशन और लेवी भुगतान करता है. इसलिए इन इलाकों में सरकार, प्रशासन, पुलिस के प्रति लोक आस्था नहीं, लोक-अविश्वास है.
नक्सलियों की ताकत
पिछले 39 वर्षों से लगातार नक्सली ताकत बढ़ती जा रही है. इसकी मूल वजह क्या है? एक कटु यथार्थ यह है कि समाज के बिल्कुल गरीब, असहाय, दलित, किसान, आदिवासी समूहों के सवाल नक्सली ही उठाते हैं. उनके बीच रहते हैं. इस आंदोलन से जुड़े नेताओं ने खुद को डी-क्लास कर अपने को उन गरीबों व वंचितों का हिस्सा बना लिया है, जिनकी रहनुमाई का वे दावा करते हैं.
नक्सल आंदोलन के पास अपने वरिष्ठ नेताओं के त्याग, संकल्प और प्रतिबद्धता की पूंजी है. उनके पास अपने कार्यकर्ताओं का समर्पण, प्रतिबद्धता और संकल्प अनूठा है. वे राजनीतिक दल के कार्यकर्ताओं की तरह कमीशन के चक्कर में नहीं रहते. जनता के बीच, साधारण जनता की तरह रहना, यानी खुद ‘ डी-क्लास’ कर, गरीबों के साथ ‘ आइडेंटिफिकेशन’. सुदूर जंगल के इलाकों में अनेक जगह तालाब बनवाने से लेकर सामूहिक जनकल्याण के अनेक काम भी नक्सलियों ने संपन्न कराये हैं.
बड़े पैमाने पर गांवों में पढ़-लिख कर बेरोजगार बैठे युवक आसानी से नक्सल संगठनों से जुड़ जाते हैं. महज झारखंड में सरकार प्रतिवर्ष उच्च शिक्षा पर सवा दो सौ करोड़ खर्च करती है.
लगभग 60 हजार ग्रेजुएट पढ़ कर निकलते हैं, पर इनमें से पांच हजार युवकों को भी नौकरी नहीं मिल पाती. यही लड़के जब गांवों में लौटते हैं और बेरोजगार हो जाते हैं, तो आसानी से नक्सली समूहों के साथ जुड़ते हैं. वहां से इन्हें प्रतिमाह 1500 से 2000 के बीच रुपये मिलते हैं.
साथ ही बंदूक, जिसकी नली से उनके हाथ में सत्ता मिलती है. माओ का प्रसिद्ध कथन कि ‘ पावर कम्स फ्राम द बैरल ऑफ द ‘ गन’ चरितार्थ होता है. वे खुद को उस इलाके का सवेसर्वा समझने लगते हैं. उन गांवों में चुनौती देनेवाला न कोई राजनीतिक दल है और न पुलिस, प्रशासन और अदालत से कोई खौफ है. उन पर संकट आता है, तो सशस्त्र नक्सली दस्ते उनकी मदद में पहुंच जाते हैं. एक 20 वर्ष के युवा के हाथ में इस तरह ‘ अनएकाउंटेबल पावर’ आ जाता है और उसका विवेक पीछे छूट जाता है.
अंतर्विरोध
नक्सली प्रभाव के इलाकों में गहरे अंतर्विरोध भी उजागर हो रहे हैं. मसलन जिन्हें अब छोटा किसान कह कर हत्या की जा रही है, डाइनामाइट लगा कर जिनके घरों को उड़ाया जा रहा है, वे अब किसी भी परिभाषा के तहत बुर्जुवा या संपन्न नहीं रहे. शहरी गरीबों जैसी उनकी स्थिति है. गांव का औसत किसान भी आज भयंकर गरीबी के दुष्चक्र से गुजर रहा है. अब वह वर्ग शत्रु नहीं रहा, सर्वहारा हो चुका है. पर नक्सली आज भी उनके पीछे हैं.
दंतेवाड़ा और बस्तर के इलाकों में नक्सलियों के खिलाफ राज्य सरकार की मदद से ‘ सलवा जुडूम’ आंदोलन चल रहा है. नक्सली अपने पर्चा के माध्यम से मानते हैं कि उनके खिलाफ इस आंदोलन में उनके अपने समर्थक यानी आदिवासी भी शामिल हैं. हाल में इस इलाके की यात्रा के दौरान मैंने देखा कि उस इलाके के कई गांवों के लोगों ने नक्सली संगठनों के कामकाज पर गंभीर सवाल उठाये.
कहा कि उनकी बैठकों में हम गांववालों को बोलने का अवसर नहीं मिलता. कोई विरोध करने का साहस करता है, तो उसकी पिटाई होती है या हत्या करने तक की सजा मिलती है. नक्सली उन गांवों में जबरन हर घर पर लेवी के रूप में खाद्यान्न देने या मवेशी देने या जमीन देने का जो आदेश देते हैं, उसके खिलाफ लोगों के मन में आक्रोश है.
हर घर से एक लड़का या लड़की उनके आंदोलन में शरीक हो, इस प्रावधान के खिलाफ भी लोगों में असंतोष है. हाल में झारखंड के जंगली क्षेत्रों में पुलिस छापेमारी के दौरान झारखंड के नक्सलियों के अड्डे से एक डायरी मिली, जिससे पता चलता है कि नक्सली समूहों में भी जातिगत गोलबंदी हो रही है. लड़कियों के साथ दुर्व्यवहार के कई मामले सामने आये हैं. यह सवाल भी उठने लगा है कि भ्रष्ट ठेकेदारों और अफसरों से नक्सली समूहों का सहअस्तित्व कैसे कायम रहता है.
निर्दोष लोगों की लगातार हत्याओं के खिलाफ भी नक्सलियों के प्रति सामान्य गांव के लोगों में अस्वीकार का भाव पनप रहा है. टीवी के असर के कारण अब दूर दंतेवाड़ा के आदिवासी भी सड़कों का जाल अपने इलाके में देखना चाहते हैं, आधुनिक जीवन चाहते हैं. खास कर युवाओं में यह चाहत ज्यादा देखी जा रही है. उधर, नक्सली सड़कें न बनने देने का अभियान चलाते हैं, क्योंकि नक्सली महसूस करते हैं कि सड़कों का जाल बिछ गया और पुलिस-प्रशासन का आवागमन बढ़ा, तो उनकी सुरक्षा खतरे में पड़ेगी. टीवी की पहुंच ने गांव के गरीब और निरक्षर लोगों में भी आधुनिक और संपन्न बनने का बोध पैदा किया है.
यह चेतना नक्सली व्याकरण के खिलाफ है. छत्तीसगढ़ में सरकार ने नक्सलियों के खिलाफ, आदिवासियों के एक समूह को प्रश्रय देकर सलवा जुडूम आंदोलन खड़ा किया है. उधर झारखंड में भाजपा छोड़ चुके झारखंड के पहले मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी ने भी नक्सलियों के खिलाफ आवाहन किया है. उन्होंने रांची में एक समारोह कर कुछ अत्यंत गरीब लोगों को मंच पर खड़ा किया, जिनके हाथ नक्सलियों द्वारा काट डाले गये थे. एक कुचू मरांडी का कान काट दिया गया था, पप्पू मरांडी और मंसूर अंसारी के हाथ काट दिये गये थे.
गिरिडीह जिले में उनके संसदीय क्षेत्र के भेलवाघाटी गांव में 11 सितंबर 2005 को नक्सलियों ने सोलह लोगों को हाथ पीछे बांध कर गोलियों से भून दिया गया था. ये सभी अत्यंत गरीब लोग थे. मई 2006 में भाजपा छोड़ चुके बाबूलाल मरांडी के मुद्दों में उग्रवाद के खिलाफ आंदोलन भी एक मुद्दा है. उन्होंने इस बात के लिए भाजपा में रहते हए अपनी सरकार को कठघरे में खड़ा किया कि गिरिडीह शहर से कैसे उग्रवादी 85 राइफल लूट ले गये. बाबूलाल मरांडी ने ‘ हाय रे! उग्रवाद’ पुस्तक लिखी है और इसमें अनेक तथ्यों के साथ उग्रवादियों के शिकार लोगों की तस्वीरें भी छापी है.
अपने इस अभियान में वह बार-बार यह बात उठा रहे हैं कि नक्सली लोगों के आतंक और हिंसा के शिकार इन लोगों का वर्ग चरित्र क्या है? ये समाज के सबसे गरीब, सर्वहारा लोग हैं, जिनके पास पर्याप्त खाने की हैसियत नहीं है. बाबूलाल मरांडी ने अपनी पुस्तिका में नक्सलवाद से प्रभावित इलाकों में सड़कें, पुल या विकास के काम न होने देने का ब्योरा दिया है. उन्होंने नक्सली समूहों के लिए सैद्धांतिक सवाल खड़ा किया है कि वे विकास के काम को क्यों रोक रहे हैं? झारखंड में नक्सलियों के खिलाफ बाबूलाल मरांडी का अभियान एक राजनीतिक पहल है, जिसका असर पड़ेगा.
मनी पावर
नक्सलियों की आर्थिक ताकत और स्रोत का पता अब तक सरकार को भी नहीं है. 28 मई को रांची से प्रकाशित हिंदुस्तान टाइम्स में छपी खबर के अनुसार झारखंड के सिर्फ एक सबडिविजन घाटशिला से नक्सलियों को एक करोड़ की लेवी मिलती है. झारखंड में कुल 35 सबडिविजन हैं. अनुमान है कि सिर्फ झारखंड में प्रतिवर्ष 300-400 करोड़ के बीच लेवी के रूप में नक्सली एकत्र करते हैं. नक्सली लेवी वसूलने की बात इस बात को अस्वीकार भी नहीं करते.
वे खुले तौर पर कहते हैं कि हम संगठन चलाने के लिए पैसा वसूलते हैं. बड़ी-बड़ी कंपनियां निर्बाध रूप से अपना काम करें, बड़े-बड़े ठेकेदार सहजता से अपना काम करायें, जंगल से ले कर सड़क निर्माण और विकास काया में बाधा न हो, इसके लिए नक्सल समूहों की अनुमति चाहिए. अनुमति का मूल आधार लेवी भुगतान है. नक्सल आंदोलन के आलोचक यह आरोप भी लगाते हैं कि अब यह आंदोलन भटक कर पैसा वसूलने के दुष्चक्र में फंस गया है. रायपुर से प्रकाशित नवभारत समाचारपत्र में छपी खबर के अनुसार (20.4.06) केंद्रीय खुफिया एजेंसियों का अनुमान है कि विभिन्न राज्य के व्यापारियों और सरकारी अधिकारियों से बीते वित्तीय वर्ष में (2005-06) नक्सली समूहों ने कुल मिला कर लगभग सात सौ करोड़ की वसूली की है.
हालांकि उत्तर बंगाल के जिस गांव नक्सलबाड़ी से यह आंदोलन शुरू हुआ, आज वह गांव तस्करी का अड्डा बन गया है. इस आंदोलन के एक बड़े नेता जंगल संथाल की विधवा आज भी जीवित हैं और अत्यंत गरीबी में जीवन जी रही हैं, आंदोलन की चर्चा करने पर अपनी गरीबी की बात करती हैं.
नक्सल आंदोलन के बड़े नेता, सैद्धांतिक भाष्यकार कानू सान्याल भी जीवित हैं, पर अब उनके स्वर में निरर्थक हिंसा की गूंज सुनाई देती है. इन सब उतार-चढ़ावों के बावजूद भारत सरकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती नक्सली ही हैं. वजह स्पष्ट है कि बहुसंख्यक गरीब भारतीय समाज के सवालों को नक्सली ही उठाते हैं. अन्य राजनीतिक दल या विचारधाराएं अब जाति, समुदाय या धर्म को केंद्रित कर अपनी रणनीति बनाती हैं.
मध्यमार्ग राजनीति की विफलता और हर दल के नेताओं की चरित्रगत समानता ने पूरे भारतीय समाज में पूरी राजनीति के प्रति अनास्था पैदा कर दी है. राजनीति के प्रति बढ़ती इस लोकघृणा को नक्सली पहचानते हैं. साथ ही, बढ़ते भ्रष्टाचार के प्रति भी वे आवाज उठाते हैं. जिस दिन इन दोनों मुद्दों (राजनीति व राजनेताओं के प्रति बढ़ती नफरत और बढ़ते भ्रष्टाचार) को अभियान के तौर पर पूरे देश में नक्सली उठायेंगे, उनका जनाधार, राजनीतिक दलों और भारत सरकार के लिए नया संकट खड़ा करेगा.
इस लेख में कई स्रोतों से महत्वपूर्ण जानकारियां एकत्र की गयी हैं, खासतौर से जनरल वीपी मल्लिक (रिटायर्ड) और डॉ पीवी रमन्ना के लेख ‘पालिसी टू फाइट नक्सलीज्म’ से.
दिनांक : 31-05

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