– हरिवंश –
झारखंड में सत्ता पलट गयी. एनडीए मार्च 2005 में जिन निर्दलियों की बदौलत सत्तारूढ़ हुआ, वहीं चार निर्दलीय पासा पलट कर यूपीए के साथ हो गये. इसलिए झारखंड के मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा को झारखंड विधानसभा में 14 सितंबर को इस्तीफे की घोषणा करनी पड़ी.
उसी दिन निर्दलीय मधु कोड़ा को यूपीए ने अपना नेता चुना. देश में शायद पहली बार ऐसा हो रहा है कि एक निर्दलीय मुख्यमंत्री के पीछे महत्वपूर्ण राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दल खड़े हैं. झारखंड में हुए इस सत्ता परिवर्तन के खेल ने लोकतंत्र की सीमाओं को गंभीर रूप से उजागर किया है. इस संदर्भ में झारखंड का यह राजनीतिक खेल, पूरे देश के लिए गंभीर चिंतन-बहस का विषय है.
क्या चार निर्दलीय जब चाहें, सत्ता पलट पर सत्ता के केंद्र में बने रहें? ये निर्दलीय पहले एनडीए के साथ थे. तब इनके पास सारे महत्वपूर्ण विभाग थे. अपने-अपने विभागों के यही मुख्यमंत्री थे. बिल्कुल स्वायत्त और अपनी इच्छा को कानून मान कर काम करनेवाले. राजसत्ता (स्टेट पावर) को निजी जागीर समझनेवाले. इन निर्दलीय मंत्रियों के कामकाज को लेकर अनेक गंभीर सवाल उठे. अनियमितताएं सामने आयीं. भ्रष्टाचार के स्पष्ट आरोप सामने आये.
पर पूर्व मुख्यमंत्री (एनडीए) इन पर कोई अंकुश नहीं लगा सके. उन्हें एनडीए को सत्ता में रखने की शायद मजबूरी थी या यह सत्ता की कीमत थी. पर अब ये मंत्री, उन अनियमितताओं को क्रियान्वित करने में लगे थे, जिनसे मुख्यमंत्री कानूनी घेरे में फंसते. इसलिए एनडीए के पूर्व मुख्यमंत्री ने वैसे कामों पर धीरे-धीरे अंकुश लगाने की कोशिश की.
इससे बिदक कर, इन्होंने पासा पलट दिया. ये न किसी सिद्धांत या वाद के तहत एनडीए के साथ आये, न किसी वैचारिक मतभेद के कारण गये. इनकी स्पष्ट मांग थी कि सत्ता हमारी शर्तों पर. एनडीए राजी नहीं हुआ, तो यूपीए ने इन्हें गले लगाया. सवाल यह उठता है कि क्या 3-4 निर्दलियों का एक समूह, किसी राज्य की सत्ता और राजनीति को बंधक बना सकता है? अपनी शर्तों पर डिक्टेट या ब्लैकमेल कर सकता है? क्यों भाजपा, जदयू, कांग्रेस या राजद (लालू प्रसाद), झामुमो (शिबू सोरेन) जैसे दल इन सौदागर निर्दलियों को इनकी शर्तों पर ढोने के लिए अभिशप्त हैं? अगर यही स्थिति रही, तो छोटे राज्यों में लोकतंत्र के प्रति लोक में गहरी अनास्था फैलेगी.
इस सत्ता परिवर्तन ने दूसरा गंभीर सवाल खड़ा किया है. अगर भाजपा-जदयू गंठबंधन (एनडीए) या कांग्रेस-झामुमो-राजद गंठबंधन (यूपीए) के प्रत्याशी मुख्यमंत्री बनते हैं, तो उनके गलत कामों की कीमत ये दल चुकाते हैं. जनता इन्हें हरा कर या जीता कर, सजा या पुरस्कार देती है. पर एक निर्दलीय के असंवैधानिक कामकाज की कीमत कौन चुकायेगा? उसके कुकर्मों की एकांटबिलिटी किस पर होगी? इस का उत्तर, राजनीतिक दलों को ढूंढ़ना होगा.
झारखंड के सत्ता खेल ने एक और यक्ष प्रश्न खड़ा किया है. वर्ष 2005 में जब एनडीए सरकार बना रहा था, तब भी एनडीए को अपने विधायकों को लेकर जयपुर में शरण लेनी पड़ी. इस बार भी पिछले 10 दिनों से यूपीए के विधायक देश भ्रमण पर थे. झारखंड से भागे हुए.
गोवा, केरल, दिल्ली, हरिद्वार की यात्रा पर. भेड़ों की तरह एक साथ रहने को विवश. क्या विधायक बिकाऊ चीज बन गये हैं कि उन्हें बड़े-बड़े नेताओं को एक साथ एकजुट रखना पड़ता है. राज्य से बाहर भगा कर? क्या विधायकों के विवेक, मानस और चरित्र विश्वसनीय नहीं रह गये हैं? इस यात्रा में यूपीए समर्थक विधायक पांच सितारा होटलों और महंगे रिसोटा में रहे थे. ये सभी लोग बार-बार चार्टर्ड जहाज से ही रांची आ-जा रहे थे.
सवाल यह उठता है कि झारखंड में चले इस सत्ता खेल में, हुए अपार खर्च किसने किया? सत्ता पलट पर हुए खर्च का स्रोत क्या है? क्या किसी ने यह निवेश किया है कि सत्ता बनने पर रिटर्न मिलेगा? उल्लेखनीय है कि झारखंड समृद्ध खनिज संपदा से भरपूर है. खनिज में रुचि रखने वाले कॉरपोरेट हाउसों और बड़ी पूंजी की दिलचस्पी इस राज्य में है. इस बड़ी पूंजी और निर्दल ताकतों का संबंध छानबीन और जांच का विषय है. लोकतंत्र के लिए गंभीर चुनौती भरा सवाल.
झारखंड में लोकतांत्रिक व्यवस्था के जो महत्वपूर्ण संवैधानिक पद हैं. वे अपनी साख खो रहे हैं. वर्ष 2005 मार्च में, झारखंड के राज्यपाल रजी अहमद ने शिबू सोरेन की अल्पमतवाली सरकार को सत्ता सौंप दी. उस दौरान झारखंड विधानसभा में जो कुछ हुआ, पूरे देश ने देखा. यूपीए बहुमत नहीं साबित कर सका. अंतत: उच्चतम न्यायालय के हस्तक्षेप से राजग को सत्ता मिली. तब पूरे देश में राज्यपाल पद को लेकर गंभीर बहसें हुईं, पर कोई समाधान नहीं हो सका.
इस विवाद में एक और संवैधानिक पद ‘ स्पीकर’ विवादों के घेरे में पड़ा. चार निर्दलियों के पाला बदलने पर राजग ने स्पीकर के पास, इनके खिलाफ शिकायत की. स्पीकर के पास इनसे जुड़े कुछ पुराने मामले भी थे.
स्पीकर ने तड़ातड़ सुनवाई शुरू कर दी. माहौल यह बना कि उत्तर प्रदेश के पूर्व स्पीकर केसरीनाथ त्रिपाठी के रास्ते झारखंड के स्पीकर भी इन निर्दलीयों की सदस्यता रद्द करेंगे. यूपीए तुरंत सर्वोच्च न्यायालय पहुंचा. यूपीए ने देश के धुरंधर वकील उतारे. पर सर्वोच्च न्यायालय ने कोई ‘ रिलीफ’ नहीं दिया. अंतत: स्पीकर ने यह कदम भी नहीं उठाया. पर स्पीकर का पद लगातार अविश्वसनीय बनना, लोकतंत्र को खतरे में डालेगा.
इस तरह झारखंड के राजनीतिक खेल में, निर्दलियों की निरंकुश व अनएकाउंटेबुल ताकत, बड़े दलों का पिछलग्गू बनना, पूंजी बल का प्रदर्शन, राज्यपाल और स्पीकर पदों का विवादास्पद बनना, पूरे लोकतंत्र पर नये सिरे से राष्ट्रीय बहस और विमर्श की जरूरत रेखांकित करते हैं.
दिनांक : 14-07-2008