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झारखंड : सवाल और हालात
– हरिवंश – क्या झारखंड सुशासित हो सकता है? राज्य में सुधार संभव है? यहां बेहतर कल्पना का स्कोप है? यहां नागरिकों की मन:स्थिति क्या है? उसी तरह जैसे एक अभेद्य किले में कैद लोग, अंधेरे में विवश दिखते हैं? नाउम्मीद, हताश व लाचार. भविष्य के भय और चिंता से त्रस्त. जो देश का सबसे […]
– हरिवंश –
क्या झारखंड सुशासित हो सकता है? राज्य में सुधार संभव है? यहां बेहतर कल्पना का स्कोप है? यहां नागरिकों की मन:स्थिति क्या है? उसी तरह जैसे एक अभेद्य किले में कैद लोग, अंधेरे में विवश दिखते हैं? नाउम्मीद, हताश व लाचार. भविष्य के भय और चिंता से त्रस्त.
जो देश का सबसे गरीब राज्य हो, वहां की सरकारें गरीबों के विकास के लिए केंद्र से सात हजार करोड़ रुपये ले ही न पायें, तो इसे क्या कहेंगे? एक तरफ गरीबी के कारण, भूख के कारण गरीब आत्महत्या की अनुमति मांग रहे हैं, दूसरी ओर इन गरीबों को बेहतर बनाने के लिए सात हजार करोड़ रुपये उपलब्ध हों और खर्च न हो पाये? यह क्या है? अपराध से भी संगीन मामला. पहले सरकारों के पास (स्टेट के पास) खर्चने के लिए पैसे नहीं होते थे.
अब पैसे हैं, तो खर्चने का लुर, शऊर और कांपीटेंस नहीं. पिछले एक साल में केंद्र प्रायोजित योजनाओं के करीब सात हजार करोड़ रुपये लैप्स हुए हैं. झारखंड के हुक्मरान आंकड़ों में अपनी उपलब्धता बताते हैं. पिछले साल इतनी हत्याएं हुईं. इस साल इतनी हुईं. उस साल चोरी अधिक हुई. इस साल चोरी कम हुई. वगैरह-वगैरह. क्या विजन है, सरकारों के पास या इस तंत्र को चलानेवालों के पास?
एक दूसरी विचित्र स्थिति है. यहां दूसरी बार कैबिनेट सेक्रेटरी के नेतृत्व में सेंट्रल टीम आयी. यह परंपरा सही है या गलत? संवैधानिक या फेडरल स्ट्रर के अनुरूप है या नहीं? ऐसी अनेक चर्चाएं हैं, पर सेंट्रल टीम की मॉनिटरिग के बाद भी गर्वनेस में सुधार नहीं होता, तब किससे उम्मीद की जाये? दूसरी ओर, केंद्रीय मंत्री सुबोधकांत सहाय ने कहा है, झारखंड में सरकारी तंत्र फेल है. लॉ एंड आर्डर बिगड़ गया है. नक्सल समस्या जटिल है, चरम पर है.
आमलोग असुरक्षित महसूस कर रहे हैं. सारे आरोप सही हैं. पर यह टिप्पणी किस पर है? साफ-साफ राष्ट्रपति शासन पर. केंद्र की पूरी टीम यहां आकर चीजों को देख रही है. फिर भी चीजें सुधर नहीं रहीं? बीच-बीच में हालात खराब होते हैं, तो राज्यपाल की चिंता भी उभरती है. वह भी कई विभागों के कामों से निराश और परेशान दिखते हैं. इस तरह राज्यपाल भी असंतुष्ट दिखें. केंद्रीय मंत्री भी साफ-साफ अव्यवस्था की बात कहें.
देश की नौकरशाही की सर्वोच्च ईकाई दिल्ली से आकर बार-बार निगरानी करे, फिर भी हालात सुधरे नहीं? यह कैसी स्थिति है? व्यवस्था चलानेवाले ही व्यवस्था को दोष दे रहे हैं? आखिर दोषी कौन है? दायित्व किसका है? लोकतंत्र में इन चीजों को ठीक करने का जिम्मा किसे है?
यह वैसी ही बात है, जैसे थानेदार कहे कि कानून-व्यवस्था खराब हो गयी है. ये बातें-कथन बहत खतरनाक हैं. लोग नहीं जानते, इससे लोकतंत्र से विश्वास उठ रहा है. कहावत है, लीडर्स तत्काल तक ही सोचते हैं, स्टेट्समैन दूर तक की सोचते हैं. आज झारखंड में जरूरत है कि कोई स्टेट्समैन की भूमिका में आये, कहे कि इस व्यवस्था में सबकुछ ठीक हो सकता है.
अन्य राज्यों में हो रहा है. पड़ोस में बिहार देख लीजिए. इसलिए लोकतंत्र या व्यवस्था में खामी नहीं है. खामियां हम चलानेवालों में है. बड़े-बड़े पदों पर आसीन हैं, ये लोग-संस्थाएं. झारखंड का भविष्य इन्हीं के हाथ में है. जरूर इन्हें अपनी इस ताकत और सत्ता का एहसास होगा. इनसे अपेक्षा है कि या तो व्यवस्था को ठीक करें या खुलेआम कहें कि हम नहीं संभाल पा रहे हैं? दोनों ही बातें कैसे? इन सबकी चिंता की एक ही मुख्य वजह है.
पुअर गर्वनेस और भ्रष्टाचार. केंद्र सरकार की जितनी भी योजनाओं में झारखंड विफल है, वह राज्य के पुअर गर्वनेस और पुअर कांपीटेंस की देन है. दूसरी महामारी है, भ्रष्टाचार. शीर्ष पर बैठे लोग, जब तक इन दो चीजों के खिलाफ कदम नहीं उठायेंगे, झारखंड बद से बदतर होगा. करप्ट, इनकांपीटेंट, इनइफीसिएंट, तिकड़मबाज और षडयंत्रकारी तत्वों के खिलाफ सख्त अभियान चलाये बिना, झारखंड का पुनर्जीवन मुश्किल है. राष्ट्रपति शासन में यह काम कौन कर सकता है? राज्यपाल, उनके सलाहकार और केंद्र सरकार. अगर अब भी ये संवैधानिक संस्थाएं इस रास्ते पर पहल करती हैं, तो कुछ संभव है.
राजनीतिक दल, वे बड़ी भूमिका निभा सकते हैं. पर जो इतिहास बना सकते हैं, वे निजी लाभ के अभियान में लगे हैं. मसलन 8-9 महीने के लिए सरकार बनाने के लिए कौन लोग बेचैन हैं, जिन्होंने सरकारों में रहते हए अव्यवस्था, अराजकता और भ्रष्टाचार के बड़े-बड़े मजबूत किले बना दिये. आज झारखंड इन्हीं किलों के नीचे सिसक रहा है, फिर भी इन्हें सरकार बनाने की बेचैनी है. यह भी स्पष्ट है कि बदले माहौल में कांग्रेस पुन: सरकार बनाने का जोखिम नहीं लेनेवाली. क्यों?
कांग्रेस के लिए अवसर : झारखंड के हालात कांग्रेस के लिए एक मौका है. सुनहरा. संगठन को मजबूत करने का. अपनी जड़ को सुदृढ़ करने का. अपनी खोयी प्रतिष्ठा को पाने का. पर इसके लिए कुर्बानी देनी होगी. यह तो साफ है कि कांग्रेस सरकार बनवाने नहीं जा रही.
अगर यूपीए की सरकार बन गयी (जिसकी 0.1 फीसदी आसार नहीं है), तो झारखंड विधानसभा चुनाव में अगली सरकार भाजपा की होगी. अपने दम होगी. इसकी कीमत बाबूलाल मरांडी भी चुकायेंगे, क्योंकि बाबूलालजी केंद्र में यूपीए को समर्थन दे चुके हैं. पर यह होनेवाला नहीं है. कांग्रेस यह रिस्क नहीं लेगी. पर सिर्फ भावी सरकार की बलि से बात नहीं बनेगी.
उसे झारखंड में गर्वनेस स्थापित करना होगा. वह कर सकती है, क्योंकि केंद्र में उसकी सरकार है. उसे टॉप से परिवर्तन करने होंगे. शासन में बैठे जो टॉप लोग हैं, अगर वे रिजल्ट नहीं दे सकते, तो बड़े-बड़े पदों पर बैठने के क्या लाभ? क्यों स्टेट अपने कोष से करोड़ों-करोड़ का बोझ उठाये? इसलिए टॉप पर जहां-जहां जरूरी हो, कांग्रेस को बदलाव करना ही होगा.
इस बदलाव के साथ उसे एजेंडा तय करने होंगे. पहला, क्राइम पर कंट्रोल. दूसरा और सबसे महत्वपूर्ण, भ्रष्टाचार के खिलाफ ठोस कार्रवाई. झारखंड में नेताओं और अफसरों ने लूट के जो रिकार्ड बनाये हैं, वह जान कर देश हतप्रभ और सदमे में होगा. अनेक मामले हैं. कुछेक पर समयबद्ध सीबीआइ जांच हो. तीसरा, ट्रांसफर-पोस्टिग उद्योग को खत्म करने की ठोस पहल. बिजली विभाग में हुई लूट की जांच.
विधानसभा में या अन्य संवैधानिक संस्थाओं में हुई नियुक्ति घोटालों की जांच. साथ-साथ कांग्रेस के टिकट बंटवारे में इनकांपीटेंट और खराब परफारमर लोगों से मुक्ति. अगर कांग्रेस ये ठोस कदम उठाये, तो वह झारखंड में मजबूत आधार बना सकती है, क्योंकि पारंपरिक रूप से यह इलाका कांग्रेस का बेस रहा है.
लोकसभा चुनाव में मिली सफलता ने कांग्रेस का गुडविल बढ़ाया है. अब यह उस पर निर्भर है कि वह इस गुडविल को, झारखंड विधानसभा चुनाव में अपने पक्ष में इनकैश कराये या नहीं. बगैर कोशिश के कांग्रेस को यह अवसर मिला है. कांग्रेस चाहे, तो अपनी तकदीर झारखंड में बना और बदल सकती है.
भाजपा-लोकसभा चुनावों में झारखंड में भाजपा को सफलता मिली, पर यह सफलता, भाजपा के कारण नहीं है. इसके लिए उसे यूपीए समर्थित निर्दलीयों की सरकार का ऋणी होना चाहिए. निर्दलीयों के कुकृत्य = भाजपा की जीत. अगर यूपीए समर्थित राज्य सरकारें सक्षम होतीं, तो भाजपा की अंदरूनी लड़ाई, कलह भाजपा का सूपड़ा साफ कर देते. भाजपाई आत्ममुग्ध हैं कि वे यही सफलता विधानसभा में दोहरायेंगे. यह कामयाबी उनके गुणों के कारण नहीं, अन्य के अवगुणों के कारण है. पर भाजपाई मुगालते में हैं. इसका प्रमाण उनका अकर्म है.
जिस राज्य में फिर सरकार बनाने की कोशिश हो, वहां भाजपाई चुप? रणनीतिविहीन? एक दूसरे को काटने में लगे? दल के अंदर में गुटबंदी. उस गुटबंदी में जातिगत गुटबंदी! अवसर का लाभ, दृष्टिवान उठाते हैं, दृष्टिहीन नहीं. अब इस विधानसभा में क्या बचा है? कल्पना करिए, अगर सभी भाजपाई विधायक अपने इस्तीफे देकर मार्च करते और कहते कि अब चुनाव चाहिए. भाजपाइयों ने बड़ी घोषणाएं की थी कि वे लोकसभा चुनाव के बाद विधानसभा भंग का आंदोलन करेंगे. कहां गया वह आंदोलन?
क्या 8-10 महीने के लिए विधायक फंड का मोह है? वह भी सही मान लिया जाये, तब भी चतुर लोग पांच वर्ष राज करने के लिए 8-10 महीने की कुर्बानी आराम से करते हैं. इसमें न नीति है, न सिद्धांत. यह शुद्ध व्यवसाय का गणित है. भाजपाइयों का दावा है कि वे व्यवसाय समझते हैं. पर राजनीति का यह मामूली व्यवसाय उन्हें समझ में नहीं आ रहा है.
यह तो रही विधायकी छोड़ने की बात. जिस राज्य में अपराध बढ़ा हो. भ्रष्टाचार अनियंत्रित हो, वहां एक मुख्य विरोधी दल का फर्ज और कर्म क्या है? भाजपा एक राजनीतिक पार्टी है. पार्टी होने के कारण उसके तय धर्म हैं. समाज की पीड़ा को आवाज देना. झारखंड में अगर मधु कोड़ा और शिबू सोरेन की सरकारें विफल रहीं, तो विपक्ष के रूप में भाजपा भी कैसे सफल मानी जायेगी? हां, विधानसभा के अंदर उसके दो-तीन विधायकों ने जोरदार तरीके से मुद्दे उठाये. पर कोई पाट मुद्दों के आगे कर्म पर भी उतरती है. भाजपा के कर्म क्या हैं?
बड़े भाजपाई नेताओं की मानें, तो इन्हें बाहर के विरोधियों की जरूरत नहीं है. अंदर में ही ये एक-दूसरे को कमजोर करने, काटने में लगे हैं. विनाशकाले विपरीत बुद्धि. भाजपा में जाति-उपजाति और समूह की किलेबंदी हो रही है. फिर भी पार्टी में कुछ लोग आत्ममुग्ध हैं कि अगली सरकार उनकी है. 2009 के लोकसभा चुनावों में भी वह मान चुके थे कि अब सिर्फ शपथ शेष है.
2004 में भी यही हुआ था. फिर भी भाजपाई समझने को तैयार नहीं. यही कांग्रेस के लिए मौका है. जिस तरह निर्दलीयों की सरकार के प्रति भाजपाइयों को ऋणी होना चाहिए, उसी तरह भाजपाई अपनी अंदरूनी राजनीति से कांग्रेस को भाजपा का ऋणी होने का मौका देनेवाले हैं. घर फूटे, जवार लूटे तर्ज पर. भाजपा अब भी अपना घर ठीक कर ले और सशक्त विपक्ष की भूमिका में उतरे, तो वह भविष्य संवार सकती है. पर यह होता नहीं दिख रहा है.
जेएमएम-सरकार में होने की कीमत जेएमएम को चुकाना पड़ा है. अपनी सरकार का और उससे अधिक कोड़ा सरकार को ढोने का लोक पुरस्कार भी जेएमएम ने पाया है. जेएमएम शायद यह सच समझ गया है.
इसलिए इस बार जेएमएम ने सरकार बनाने की पहल नहीं की. पर जब देखा कि कांग्रेसी हमारे बल फिर उड़ रहे हैं, तो गुरुजी ने फिर दावा ठोंक दिया है. जेएमएम को नये सिरे से खुद को पुनर्गठित करना होगा. कांग्रेस के दिल्ली में बैठे नेता इसी पेंच पर झारखंड में सरकार नहीं बनने देंगे.
आरजेडी-आरजेडी बाहर से झारखंड की यूपीए सरकारों को ऑक्सीजन दे रहा था. पर लोकसभा चुनाव में जनता ने राजद को जनता से मिल रहा ऑक्सीजन ही छीन लिया है. परिणाम सामने हैं.
न माया मिली, न राम. अब क्या फिर आरजेडी के लोग ऐसी सरकार बनवायेंगे, जिसके कुकर्म के तले अपनी कब्र तैयार करेंगे? नामुमकिन है. लालू प्रसाद का दल अब यह समझता है कि आनेवाली झारखंड विधानसभा में आरजेडी की अधिक सीटें रहेंगी, तो वह राजनीति में असरदार रहेगा. विधानसभा में अधिक सीटें होंगी, तभी आरजेडी का अस्तित्व रहेगा. इसलिए आरजेडी नयी सरकार की पाप की गठरी नहीं ढोनेवाला. वैसे राजद ने इस लोकसभा चुनाव में झारखंड की यूपीए सरकारों के कुकर्मों की कीमत चुकायी ही है.
इस तरह झारखंड के राजनीतिक दलों की स्थिति और उनका अंदरूनी खेल साफ है. पर यह स्थिति किसी भी दल के लिए एक मौका है. कहावत है कि हर संकट में एक मौका छुपा होता है. मौका है कि जो भी राजनीतिक दल झारखंड को बेहतर बनाने का राजनीतिक एजेंडा लेकर काम करे, अभी से जनता के बीच जाये, तो वह कामयाब हो सकता है. पर इसके लिए कोई तैयार है?
जिनमें सैद्धांतिक प्रतिबद्धता, ईमानदारी है, वे लेफ्ट के लोग इतने कमजोर, बिखरे और सीमित हैं कि उनसे कोई उम्मीद दिखाई नहीं देती.
दिनांक : 01.07.2009
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