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भगवान विश्वकर्मा की पूजा आज

रांची: शिल्पकार व वास्तुकला के जनक भगवान विश्वकर्मा की पूजा मंगलवार को है. मंगलवार को रात 8.07 बजे तक त्रयोदशी है, इसलिए भक्तों को पूजा अर्चना के लिए काफी समय मिल रहा है.आचार्य जयनारायण पांडे ने बताया कि प्रात: काल से ही भगवान की पूजा अर्चना की जा सकती है. इनकी पूजा कल कारखानों के […]

रांची: शिल्पकार व वास्तुकला के जनक भगवान विश्वकर्मा की पूजा मंगलवार को है. मंगलवार को रात 8.07 बजे तक त्रयोदशी है, इसलिए भक्तों को पूजा अर्चना के लिए काफी समय मिल रहा है.आचार्य जयनारायण पांडे ने बताया कि प्रात: काल से ही भगवान की पूजा अर्चना की जा सकती है. इनकी पूजा कल कारखानों के अलावा घरों व सार्वजनिक स्थानों पर भी की जाती है. भगवान विश्वकर्मा की पूजा अधिकतर 17 सितंबर को ही की जाती है. कई जगहों पर दुर्गापूजा के समय व दीपावली के दूसरे दिन भी उनकी पूजा की जाती है. उनकी पूजा अर्चना से धन धान्य, सौभाग्य व यश की वृद्धि होती है. इधर राजधानी रांची में रातू रोड, चुटिया, स्टेशन रोड, हटिया, हिनू, पिस्का मोड़, कांडे में कई जगहों पर पंडाल बना कर पूजा की तैयारी की गयी है.

कहां-कहां होती है पूजा
औद्योगिक क्षेत्र, फैक्ट्री, लोहे की दुकान, वाहन के शोरूम, सर्विस सेंटर, लकड़ी की दुकानों, छोटे-छोटे कल कारखानों ,बस स्टैंड, टेंपो स्टैंड, रेलवे के मेंटेनेंस सहित अन्य जगहों पर पूजा होती है. पूजा की तैयारी को लेकर मशीनों, औजारों की सफाई एवं रंगरोगन किया जाता है. पूरे विधि विधान से भगवान की पूजा की जाती है. इस दिन अधिकतर कल-कारखाने बंद रहते हैं. कामगार हर्षोल्लास के साथ भगवान विश्वकर्मा की पूजा में शामिल होते है. झारखंड,बिहार,उतर प्रदेश,पश्चिम बंगाल सहित अन्य राज्यों में भगवान विश्वकर्मा प्रतिमा स्थापित कर पूजा अर्चना की जाती है.

क्या है मान्यता
कहा जाता है कि प्राचीन काल में जितनी भी राजधानियां थी, प्राय: सभी का निर्माण विश्वकर्मा ने की थी. सतयुग का स्वर्ग लोक , त्रेता युग की लंका , द्वापर की द्वारिका और कलयुग का हस्तिनापुर सहित अन्य नगरों का निर्माण इन्होंने ही किया था. इसके अलावा जहां भी देवों को भवन आदि बनाने की जरूरत होती, वहां उन्हें याद किया जाता था. वे भवन तैयार कर देते थे. सुदामापुरी की तत्क्षण रचना के बारे में भी कहा गया है कि उसके निर्माता विश्वकर्मा ही थे.

कैसे हुई भगवान विश्वकर्मा की उत्पत्ति
एक कथा के अनुसार सृष्टि के प्रारंभ में सर्वप्रथम नारायण अर्थात साक्षात विष्णु भगवान सागर में शेषशय्या पर प्रकट हुए. उनके नाभि-कमल से चतुर्मुख ब्रह्मा दृष्टिगोचर हो रहे थे. ब्रह्मा के पुत्र धर्म तथा धर्म के पुत्र वास्तुदेव हुए. कहा जाता है कि धर्म की वस्तु नामक स्त्री से उत्पन्न वास्तु सातवें पुत्र थे, जो शिल्पशास्त्र के आदि प्रवर्तक थे. उन्हीं वास्तुदेव की अंगिरसी नामक पत्नी से विश्वकर्मा उत्पन्न हुए. पिता की भांति विश्वकर्मा भी वास्तुकला के अद्वितीय आचार्य बने. कहा जाता है कि भगवान विश्वकर्मा ने ही इन्द्रपुरी, यमपुरी, वरु णपुरी, कुबेरपुरी, पाण्डवपुरी, सुदामापुरी, शिवमण्डलपुरी आदि का निर्माण किया था. पुष्पक विमान का निर्माण तथा सभी देवों के भवन और उनके दैनिक उपयोग में आने वाली वस्तुएं भी भगवान विश्वकर्मा ने ही बनायी थी. कर्ण का कुण्डल, विष्णु भगवान का सुदर्शन चक्र , शंकर भगवान का त्रिशूल और यमराज का कालदण्ड जैसे अस्त्र-शस्त्र वस्तुओं का निर्माण भगवान विश्वकर्मा ने ही किया है.

कैसे करें भगवान विश्वकर्मा की पूजा
भगवान विश्वकर्मा की पूजा आप स्वयं कर सकते हैं या पुरोहित से करवा सकते है. पूजा के लिए आप चाहे तो भगवान की तसवीर रख लें अथवा उनकी प्रतिमा स्थापित कर पूजा करें. भगवान की प्रतिमा को पूजा स्थल वाले स्थान पर रख लें और सभी सामग्री एकत्रित कर लें. पूजन शुरू करने से पूर्व भगवान का ध्यान करें और इसके बाद भगवान विष्णु का ध्यान करे. हाथ में पुष्प, अक्षत,गंगा जल, द्रव्य सहित अन्य सामग्री लेकर मंत्र पढ़े और चारों ओर अक्षत का छिड़काव करें. इसके बाद अपने हाथ में मौलीसूत्र बांधे. यदि पत्नी साथ में बैठी है तो उन्हें भी यह बांधे. पुष्प जलपात्र में छोड़ें. इसके बाद भगवान विश्वकर्मा का ध्यान करें. दीप जलायें. पूजा स्थल पर अष्टदल कमल बनाए. उस पर जल डालें. इसके बाद पंचपल्लव, सप्त मृतिका, सुपारी, सहित अन्य सामग्री डालकर कलश में रखें. इसके बाद विधि विधान से उनकी पूजा व हवन आदि कर भगवान की आरती करें. उन्हें प्रसाद अर्पित कर इसका वितरण करें.

अनेक रूप हैं भगवान विश्वकर्मा के
भगवान विश्वकर्मा के अनेक रूप हैं-इसमें दो बाहु वाले, चार बाहु एवं दस बाहु वाले तथा एक मुख, चार मुख एवं पंचमुख वाले भगवान शामिल हैं. उनके मनु, मय, त्वष्टा, शिल्पी एवं दैवज्ञ नामक पांच पुत्र हैं. यह भी मान्यता है कि ये पांचों वास्तु शिल्प की अलग-अलग विधाओं में पारंगत हुए. उन्होंने कई वस्तुओं का आविष्कार किया. इस प्रसंग में मनु को लोहे से, तो मय को लकड़ी, त्वष्टा को कांसे एवं तांबे, शिल्पी ईंट और दैवज्ञ को सोने-चांदी से जोड़ा जाता है.

विश्वकर्मा की प्रचलित कथा
भगवान विश्वकर्मा की महत्ता स्थापित करने वाली एक कथा है. वाराणसी में एक रथकार अपनी पत्नी के साथ रहता था. वह धर्मप्रिय व अपने कार्य में निपुण था. विभिन्न जगहों पर घूम-घूम कर प्रयत्न करने पर भी भोजन से अधिक धन नहीं प्राप्त होता था. उनकी कोई संतान नहीं थी. पति-पत्नी भी पुत्र न होने के कारण चिंतित रहते थे. पुत्र प्राप्ति के लिए वे साधु-संतों के यहां गये, लेकिन उनकी इच्छा पूरी न हो सकी. एक पड़ोसी ब्राह्मण ने रथकार की पत्नी से कहा कि तुम भगवान विश्वकर्मा की शरण में जाओ, तुम्हारी इच्छा पूरी होगी. उनका व्रत कर भगवान विश्वकर्माकी पूजा करो. इसके बाद रथकार एवं उसकी पत्नी ने भगवान विश्वकर्मा की पूजा की. इससे उनको धन-धान्य और पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई और वे सुखी जीवन व्यतीत करने लगे.

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