जानकार याद करते हैं कि 1980 में जब सजल आइएएस बने तो रांची के लोगों में एक खास किस्म का उल्लास देखा गया था. तब आज की तरह राजधानी नहीं, बिहार प्रदेश की एक छोटी सी नगरी थी रांची. रिजल्ट निकला, तो खबर फैल गयी, रांची का बेटा आइएएस बन गया! और, जब सजल रांची के डिप्टी कमिश्नर (डीसी) बने तो डीसी निवास मानो रांची वासियों के लिए एक आम ठिकाना बन गया था. जरुरतमंदों, दुखियारों से लेकर सोशल वर्करों और स्थानीय नेताओं के लिए डीसी रेसिडेंस जैसे हर मर्ज की दवा बन गया, लेकिन, ग्रहदशा किसी के जीवन में एक सी नहीं होती. सजल चक्रवर्ती पशुपालन घोटाला में फंस गये. रिहा तो हुए, लेकिन दो दशक की कठोर मानसिक प्रताड़ना को वह टाल नहीं सके. एक आइएएस पर दाग के दो दशक! इस हाल में तो एक सामान्य आदमी भी टूट जाता है, लेकिन सजल ने एक बार फिर शुरुआत की. वही उत्साह, वही हौसला. बस, सालती हैं तो कुछ यादें.. सेना से सेवानिवृत्त पिता नहीं रहे. सेना में ही सीने पर दुश्मनों का वार ङोलने वाले लकवाग्रस्त हो गये बड़े भाई का साया छिन गया. सजल ने दो बार शादी की. लेकिन, दोनों ही बार तलाक के रूप में शादी का दुखद अंत हो गया. और फिर आखिरी सहारा, मां का आंचल भी सिर से छिन गया. अकेले रह गये सजल! लेकिन नहीं, वह कहते हैं कि आज मुङो जो भी मौका मिला है, जो भी जिंदगी बची है, इस माटी के नाम कर दिया है..
आप कड़क अधिकारी नहीं हैं. कई बार आपने खुद ही अपनी छवि मसखरे सी बना ली. ऐसा क्यों?
देखिए मैं ऐसा ही हूं. जो हूं सो हूं. मैंने कभी कुछ छुपाने की जरूरत नहीं समझी. मैं हमेशा कंफरटेबुल रहना चाहता हूं. ट्रैक सूट पहन कर ऑफिस आ जाता हूं. मैं क्या करूं. मैं ऐसे ही कंफरटेबुल हूं. लोगों के सामने इसी तरह से पेश आता हूं. आडंबर मुङो पसंद नहीं. अब जिसको जो समझना है, समझता रहे. मैं जरा भी केयर नहीं करता.
आपके पशुप्रेमी होने के बड़े किस्से हैं. सुना है आपके पास कुत्ताें, बंदरों और खरगोशों की फौज है?
मैं पशुप्रेमी नहीं हूं. बिल्कुल नहीं हूं. मैंने कभी पशुओं की भलाई के लिए कुछ नहीं किया. असल में मैं पशुओं पर निर्भर हूं. मुझमें, मेरे बड़े भाई और बड़ी दीदी में उम्र का बहुत अंतर है. बचपन से अकेले रहा. इस वजह से मैं आउट ऑफ कंट्रोल भी जल्दी ही हो गया था. खैर, घर में कुता, बंदर ही मेरे सोल ब्रदर्स बन गये. मुङो उनका अफेक्शन बहुत अच्छा लगता है. मैं जेल में भी रहा, तो वहां छोटे-छोटे चूहों से दोस्ती हो गयी थी. पशुओं का प्रेम बहुत पवित्र है. अब मुङो कुत्ते और खरगोश के बालों से एलर्जी होने लगी है. डॉक्टर ने उनके साथ रहने से मना किया है. मेरा एक क्वार्टर है. उसमें 20 कुत्ते हैं. सभी स्ट्रीट डॉग. स्वास्थ्य कारणों से उनके पास अभी नहीं जाता. पर उनका और मेरा खाना वहीं बनता है. एक साथ.
आप खुद को आउट ऑफ कंट्रोल बताते हैं, फिर आइएएस कैसे बन गये?
मैं संत जेवियर स्कूल डोरंडा में पढ़ता था. वहां से मिलिट्री कॉलेज देहरादून भेजा गया गया. वहां से भाग आया. फिर प्री मेडिकल पढ़ने पूना गया. वहां अखबारों में काम किया. पढ़ाई की, पर मन नहीं लगा. वहां किसी तरह से पास होता था. फिर भाग आया. फिर न्यू रिपब्लिक के संवाददाता के रूप में बांग्लादेश युद्ध की रिपोर्टिग की. लौट कर संत जेवियर कॉलेज में पढ़ा. फिर एनसीसी की तरफ से एयरफोर्स में सलेक्शन हुआ. लेकिन कैरियर अच्छा नहीं रहा. ट्रेनिंग में ही घुटना, अंगूठा टूट गया. मैं फेडअप हो गया. फिर करने को कुछ था ही नहीं. इसलिए यूपीएससी की तैयारी की. पढ़ा और पास होकर आइएएस हो गया.
मुख्य सचिव बनने के बाद दिमाग में क्या आया?
मुख्यमंत्री ने बहुत विश्वास करके मुङो यह पद दिया है. यह बहुत पॉवरफुल पद है. मैं इस पद का इस्तेमाल झारखंड के ऑलराउंड विकास के लिए करना चाहता हूं. मुङो याद है जब मैं न्यू रिपलिब्क के लिए रिपोर्टिग करता था, तब मेरी एक रिपोर्ट के बाद अलग राज्य झारखंड के लिए लड़ रहे एनइ होरो ने मुङो डांटते हुए कहा था कि मैं केवल आदिवासियों के लिए नहीं, बल्कि सभी झारखंडियों के लिए लड़ रहा हूं. उनकी बात मुङो अब तक याद है. जब मैं कहता हूं कि झारखंड मेरा परिवार है, तो ऐसे ही नहीं कहता. मुङो दुख है कि झारखंड का विकास बहुत अच्छा नहीं रहा है. झारखंड में तरह-तरह की समस्याएं हैं. तरह-तरह के गलत काम भी हो रहे हैं. मैं जब तक जगह पर रहूंगा, झारखंड के लिए कुछ तो अच्छा जरूर करूंगा.
आपकी प्राथमिकताएं?
वर्तमान परिस्थितियों में सबको मिला कर काम करना. उन परिस्थितियों को हटाना, जिससे अनावश्यक राजनीति होती है. सरकार के अंदर सभी लोगों को उनका अधिकार दिलाना चाहता हूं. उनको काम के लिए प्रेरित करना चाहता हूं. हमारे मंत्रियों को लगता है कि उनको ब्यूरोक्रेसी से प्रॉपर को-ऑपरेशन नहीं मिल रहा है. सामने चुनाव है. सभी मंत्रियों को दिखाना है कि उन्होंने कम समय में बेहतर काम किया है. मैं को-आर्डिनेशन स्थापित करना चाहता हूं. लोगों को खुशी देने के लिए काम करना चाहता हूं. जनता की जरूरत पूरी करने के लिए काम करना चाहता हूं. केंद्रीय समन्वय को और अच्छा बनाने के लिए काम करना चाहता हूं. राज्य के सामने केंद्र से प्राप्त होने वाली मदद ले पाना ही चुनौती है. हजारों करोड़ रुपये की केंद्रीय मदद राज्य सरकार नहीं ले पाती. इसके कई कारण हैं. समय पर प्रस्ताव नहीं जाना. केंद्रीय मापदंड पर प्रस्ताव का खड़ा नहीं होना. केंद्र के सवालों का जवाब समय पर नहीं देना. मुङो पता है कि थोड़े से को-आर्डिनेशन से सब ठीक हो जायेगा. यही सब करना प्राथमिकताएं हैं.
आप परंपरा की बात करते हैं? पुराने सचिव कंप्यूटराइजेशन की करते थे. आप उनके फैसले बदल रहे हैं?
मैं कंप्यूटराइजेशन नहीं चाहता, ऐसा बिल्कुल नहीं है. जो प्रोग्राम पूर्व मुख्य सचिव रामसेवक बाबू ने इस्तेमाल किया था उसका उद्देश्य बहुत नोबल था. लेकिन उससे काम नहीं हो रहा था. प्रोग्राम ठीक से चल नहीं रहा था. मैं ज्यादा नहीं जानता. परिवहन में सचिव रहा हूं, वहां की बात करता हूं. वहां सॉफ्टवेयर में बहुत दिक्कत थी. कोडर्निशन नहीं था. वाहन मालिकों को दिक्कत हो रही थी. असल में कंप्यूटराइजेशन लक्ष्य प्राप्त करने का जरिया है. मेरा प्रयास होगा कि रामसेवक बाबू का सब सिस्टम ठीक तरह से काम करें. जैसे बायोमिट्रिक सिस्टम से मदद मिल रही है. मैं चाहता हूं कि सिस्टम सभी प्रखंडों, अस्पतालों में लगे. इससे रात में किये जाने वाले मेरे पगले दौरों की जरूरत नहीं पड़ेगी. पर सिस्टम ठीक से काम तो करे.
हम सब सुनते आये हैं कि झारखंड में सिस्टम खराब है. सच में?
झारखंड में ज्यादातर दिक्कत मैनेमेड और आर्टिफिशियल है. चीजें सिंपलिफाई होनी चाहिए. चीजों को कांप्लीकेटेड करने की जरूरत नहीं है. 100-150 सालों से चला आ रहा प्रशासन दिशाहीन हो गया है. उसे वापस लाना पड़ेगा. सुधार करना पड़ेगा. अंगरेजों के समय बनाया गया प्रशासन का पुराना तरीका लागू करने की जरूरत है. यह नयी चीजों के बारे में सोचने का नहीं, बल्कि पुराने तरीकों को दुरुस्त करने का समय है. हम चाहते हैं कि पुराना कल्चर फिर बने. हर स्तर के पदाधिकारी और कर्मचारी अपने क्षेत्रों में घूमें. जनता से मिलें. अंगरेजों के समय से बहुत अच्छा नियम था. अफसरों को एडवांस टूर डायरी देनी होती थी. टूर करने के बाद रिपोर्ट लिखनी होती थी. टूर का कोटा बंधा होता था. नाइट हाल्ट का भी हुआ करता था. अभी शायद नाइट हॉल्ट जरूरी नहीं, लेकिन अफसर क्षेत्र में तो जायें. इंस्पेक्शन करें, रिपोर्ट दें. रूटीन एडमिनिस्ट्रेटिव फंक्शन और ट्रेनिंग वापस आये. पहले आयुक्त के अनुमोदन को सरकार का अनुमोदन माना जाता था. आयुक्त ने हां कह दी तो सब समझते थे कि सरकार में अब कोई इसे काट नहीं सकता. आज कल डीसी सीधे सरकार से बात कर रहे हैं. यह सही नहीं है. सबका अलग-अलग काम है. सचिव रांची में रहते हैं. दिल्ली में बैठक करते हैं. कभी समय मिला तो ही क्षेत्र जाते हैं. आयुक्त की गरिमा अलग है. क्षेत्र में तो आयुक्त रहता है. उसे ज्यादा जानकारी होती है. विकास के लिए जरूरी है कि आयुक्त की बात मानी जाये. आयुक्तों को ज्यादा जवाबदेह बनाया जाये.
रात में आपके औचक निरीक्षण से सिस्टम ठीक हो जायेगा? क्या लगातार औचक निरीक्षण मुख्य सचिव का काम है?
मैं बहुत दिनों बाद मेन स्ट्रीम में आया हूं. मैं 30-35 साल पहले बीडीओ रहा हूं. जिला छोड़े 20 साल हो गया. चीजें बदलती रहती हैं. मैं प्रखंडों में जाऊंगा तो सीखूंगा ना! देखिए, झारखंड में अब तक ज्यादा कुछ सही नहीं हुआ. सचिवालय हर तरह से सुधार खोज रहा है. सिस्टम सुधार मांग रहा है. परेशानी बहुत है. देखना होगा कि कैसे काम करें. चीजों को कैसे सुधारें. इसका एक ही तरीका है. महात्मा गांधी ने कहा था कि याद करो जो सबसे गरीब आदमी तुमने देखा हो, सोचो कि तुम्हारे काम से उसको कितना फायदा होगा. मैं वही करना और कराना चाहता हूं. निरीक्षण के जरिये मैं मुश्किल परिस्थितियों में काम करने वाले कर्मचारियों की हालत भी देखना चाहता हूं. उनको सुविधा दिलाना चाहता हूं. वह ठीक होंगे, तभी तो काम होगा.
इस कार्यशैली से बदलाव आयेगा? क्या कोई अफसर आपके निरीक्षणों से प्रेरित होकर क्षेत्र में निकला?
बदलाव एक दिन में नहीं आता है. किसी को प्रेरित करने के लिए यह बहुत जल्दी है. लेकिन मुङो लगता है कि सरकारी अफसरों और कर्मचारियों में मेरे दौरों से थोड़ी असुरक्षा की भावना बनी है. खास कर अस्पतालों और डॉक्टरों में. अभी मैं रांची और आस-पास ही भ्रमण कर रहा हूं. जरूरी है कि मैं दूर-दूर तक जाऊं. हमें यह सब करते रहना होगा. इतने दिनों की आदत एक दिन में खत्म नहीं होगी. बेहतरी के लिए हमें प्रशासनिक सुधार भी करना होगा. मैं जल्द ही निरीक्षणों का शिड्यूल बना दूंगा. आयुक्तों और उपायुक्तों के लिए भ्रमण और निरीक्षण का पूरा रूटीन बना कर दूूंगा. सबको रिपोर्ट देनी होगी. मैं खुद सबकी रिपोर्ट देखूंगा.
राज्य की ब्यूरोक्रेसी हावी होना चाहती है. बात नहीं मानती. आपस में लड़ती है. कैसे ठीक होगा?
ब्यूरोक्रेसी का काम बहुत महत्वपूर्ण है. पवित्र है. ब्यूरोक्रेट गलत करेंगे तो यह लोगों के जीवन से खिलवाड़ होगा. बुरी यादें बहुत छोटी होती हैं. हम जगह पर हैं तो बड़े उद्देश्यों के लिए काम करना चाहिए. मेरा विश्वास है कि दुनिया में ज्यादातर लोग अच्छा चाहते हैं. घर जाने के बाद लोगों को लगना चाहिए कि कुछ अच्छा उन्होंने किया. राज्य की ब्यूरोक्रेसी में मैं यही माहौल बनाना चाहता हूं. लोगों को मौका देना चाहता हूं. मैं समझता हूं कि सबको काम करने का मौका मिले, तो राजनीति करने की जरूरत ही नहीं है. रूटीन एडमिनिस्ट्रेशन में लगातार तबादले होते रहे, सचिवालय में टेबुल चेंज होते रहे, तो कोई दिक्कत नहीं है. अच्छा करने वाले की तारीफ न हो और बुरा करने वाले को पुरस्कार मिले, तो भी गलत संदेश जाता है. ब्यूरोक्रेसी में सुधार के लिए कुछ बातें बहुत जरूरी हैं. जहां सबसे ज्यादा जरूरत पारदर्शिता से तबादलों की है. राज्य के बीहड़ जंगलों में दो बीडीओ या सीओ के पोस्ट पर किसी एक सीधी-सादी महिला अफसर को पदस्थापित कर दिया जाता है. वहीं, शहर के आस-पास सभी पद भरे होते हैं. पूरा पोस्ट भरा रहता है. सुधार लाने के लिए इन सारी चीजों को बदलना ही होगा.
सुधार टॉप लेवल से क्यों नहीं होती. कार्मिक में कई फाइलें पड़ी हैं, बड़े अधिकारियों पर कार्रवाई क्यों नहीं होती?
बिल्कुल होगा. टॉप लेवल से भी सुधार होगा. काम हो रहा है, लेकिन हड़बड़ी में प्रोसेस को बदलना गलत है. प्रक्रिया पूरा नहीं करने पर वह न्यायालय से राहत का आदेश ले आयेंगे. मैं ग्रेटर गुड, फेयर वर्क की धारणा पर विश्वास करता हूं. धीरे-धीरे काम करूंगा. नियम से करूंगा. शार्टकर्ट नहीं लूंगा. विश्वास करें,राज्य में केवल टॉप या लोअर लेवल पर नहीं, बल्कि हर स्तर पर सुधार करने के लिए काम किया जा रहा है.
अधिकारी और राजनीतिज्ञ आपको सहयोग कर रहे हैं?
पूरा-पूरा सहयोग मिल रहा है. सभी अधिकारी मुङो सहयोग ही नहीं, प्यार भी दे रहे हैं. मेरे विचार से सभी लोग अच्छे हैं. मुङो राजनीतिक सहयोग बहुत ज्यादा मिल रहा है. राजनीतिज्ञ चाहते हैं कि उनका काम हो जाये. बोलने की परंपरा से सब दुखी हैं. सभी चाहते हैं कि मिल-बैठ कर जल्दी काम हो. देखिये, राजनीतिज्ञ हमेशा समाधान चाहता है. परेशानियां लाकर देना ही उनका काम है. लोग कहते हैं कि नेता हमेशा गलत कराना चाहते हैं. ऐसा बिल्कुल नहीं है. 90 फीसदी मामलों में नेता लोगों की भलाई के लिए काम कराना चाहते हैं. अफसर वह 90 फीसदी काम कर दें, तो ज्यादातर नेता 10 प्रतिशत गलत करने के लिए भी दबाव नहीं देते.
जब राज्य की ब्यूरोक्रेसी, नेता सब अच्छे हैं, तो झारखंड बदहाल क्यों है?
मेरे आगे वालों पर कोई जजमेंट नहीं करूंगा. मेरा एक ही लक्ष्य है कि राज्य को किसी तरह से विकास की दौड़ में आगे लायें. हम बहुत पीछे छूट गये हैं. जैसे कि बेटी की शादी के समय एक ही चीज नहीं, बल्कि सभी तरह की बातें सोची जाती हैं. उसी तरह मुङो भी सब कुछ सोचना पड़ रहा है. अभी 20 दिन ही हुए हैं मुङो इस पद पर काम करते हुए. झारखंड मेरा घर है. मुङो सुनहरा मौका मिला है. मैं दायें-बायें नहीं सोच रहा हूं. अभी पूरा दम लगाने दें. कैसे भी करके झारखंड में कुछ करना है. राज्य को खड़ा करने के लिए जो जरूरी हैं, सभी चीजें प्रायोरिटी के साथ की जा रही हैं.
नक्सल बड़ी समस्या है. कैसे दूर होगी?
मैं नक्सलियों से संपर्क में हूं, लेकिन मैं केवल उनसे बात करना चाहता हूं जिनका सिद्धांत हो. बाकी तो अपराधी हैं, जो नक्सल की आड़ में गुंडागर्दी मचा रहे हैं. उनसे किसी तरह की बातचीत संभव नहीं है. वह सजा के भागीदार हैं. उनको सजा मिलेगी. हालांकि यह भी सच है कि नक्सल संगठनों में शामिल सभी लोग खराब नहीं है. बहुत लोग सोच रहे हैं कि बीहड़ इलाकों में कोई सेवा भी नहीं मिल रही है. विकास छोड़िये मूलभूत सुविधाएं नहीं हैं. आंगनबाड़ी नहीं चलती. अस्पताल नहीं हैं. चोरों के लिए राज हो गया है. देखिए, नक्सल बहुत बड़ी समस्या नहीं है. सेना की मदद से नक्सल का सफाया बड़े आराम से किया जा सकता है. राज्य सरकार के पास नौ से 10 जहाज हैं. भारतीय वायुसेना अपना सबसे आधुनिक सी-130जे हरक्यूलिस विमान देने को तैयार है. लेकिन, जंगल वारफेयर बिल्कुल अलग तरह का युद्ध है. आदमी खुश हो, रोजगार मिले तो नक्सल की तरफ क्यों जायेगा? बड़ा सवाल है कि राज्य में नक्सलप्रभावित क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को सुरक्षा नहीं मुहैया करायी गयी. वह डरे हुए हैं. जब तक उनमें भय बना रहेगा वह आपकी ओर नहीं आयेंगे. चुनौती सबसे पहले डर खत्म करने की है. हमें विश्वास जगाने की जरूरत है कि नक्सल कुछ नहीं कर सकते. मैं मानता हूं कि मार्क्स, लेनिन और माओ की सोच हमेशा एक नहीं रही, उनका ऑब्जेक्टिव एक रहा है. काम करने का तरीका सब का अलग-अलग रहा है. मैं चाहता हूं कि जितने भी सिद्धांतवादी नक्सल हैं, वे बात करें. मैं वरवर राव जैसे लोगों को भी जानता हूं. मौजूदा हालात से वह भी चिंतित हैं. मैं चाहता हूं कि जेल में बंद नक्सलियों को एक जेल में रखा जाये. वे बुजुर्ग हैं. थिंक टैंक हैं. उनको आपस में बात करने का मौका मिले. आखिर वह भी सोच का एक एक स्तंभ हैं. वह समाज में साइंटिफिक चेंज चाहते हैं. उनकी विचारधारा में थोड़ा परिवर्तन हो जाये, तो हमारे लिए बहुत अच्छा होगा. लेकिन इसके लिए दूध का दूध और पानी का पानी की तरह से असली और नकली नक्सली को अलग करना होगा. सरकार इस पर काम कर रही है.