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अतीत बन कर रह गया जिले का एक मात्र हस्तकरघा उद्योग

लौकहा : एक तरफ सरकार जहां रोजगार के नये अवसर पैदा करने के लिए विभिन्न तरह के हथकंडे अपना रही है. ताकि बिहार में भी अन्य राज्यों की भांति रोजगार के नये-नये अवसर पैदा किया जा सके. इस तरफ सरकार की गंभीरता उनके बोल बताते है. बावजूद यहां से मजदूरों का पलायन यहां की हकीकत […]

लौकहा : एक तरफ सरकार जहां रोजगार के नये अवसर पैदा करने के लिए विभिन्न तरह के हथकंडे अपना रही है. ताकि बिहार में भी अन्य राज्यों की भांति रोजगार के नये-नये अवसर पैदा किया जा सके. इस तरफ सरकार की गंभीरता उनके बोल बताते है. बावजूद यहां से मजदूरों का पलायन यहां की हकीकत बयां करने के लिए काफी है.

सरकार की कथनी और करनी में कितना फर्क है. इसका ताजा उदाहरण सदर प्रखंड के लौकहा पंचायत के कजहा गांव में देखने को मिल जायेगा. जहां निजी तौर पर स्थानीय निवासियों द्वारा वर्ष 2002 स्थापित मिनी जयपुर के नाम से विख्यात जिले का एक मात्र हस्तकरघा उद्योग अपने बदहाली पर आंसू बहा रहा है. जहां बनारसी साड़ी, चादर व भेड़ के रूई से बनने वाला कंबल समेत अन्य समान का बनाये जाते थे. ऐसा नहीं है कि यहां के कारीगरों पर सरकार की नजर नहीं पड़ी.

यहां पर कार्यरत कारीगरों की कुशलता व मेहनत का ही नतीजा था कि वर्ष 2007 में बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार व कुटीर उद्योग ग्रामीण विकास विभाग भारत सरकार के सचिव अनूप मुखर्जी द्वारा पटना में आयोजित सरस मेला में उन्हें सम्मानित किया गया था. बावजूद सरकारी उदासीनता के कारण यह कुटीर उद्योग अपने बदहाली पर आंसू बहा रहा है. हालात ये है कि आज इस धंधे से जुड़े लोग धीरे-धीरे इस व्यवसाय की तरफ से अपना मुख मोड़ रहे है और जिले का एक मात्र कुटीर उद्योग आज अपना अस्तित्व बचाने की जद्दोजेहद में है. जिसे देखने वाला कोई नहीं है.

प्रवीण ने की थी शुरुआत : निजी तौर पर किसी कुटीर उद्योग को इतना बड़ा रूप देना व्यक्ति के विशेष गुण को दर्शाता है. कजहा के प्रवीण पाल में शायद यहीं हुनर था कि उसने अपने परिवार की जीविका के लिए हस्तकरघा नगरी बनारस का रूख किया. जहां उसने अपने कौशल व लगन से इसमें इतनी महारत हासिल कर ली कि उसने इस धंधे को सीख कर इसकी शुरुआत अपने गांव में वर्ष 2002 में अपने निजी घर में इसकी शुरुआत की. धीरे-धीरे इस व्यवसाय से और लोग जुटने लगे और यह व्यवसाय बड़े उद्योग की तरह बढ़ने लगा.
लेकिन प्रवीण पाल की माली हालत इस उद्योग के बढ़ावा में रास्ते का रोड़ा बनने लगा. बावजूद उसने अपनी हिम्मत नहीं हारी और अपना प्रयास जारी रखते हुए इस उद्योग के विस्तार के लिए अपना प्रयास करते रहे.
वर्ष 2008 में आयी कुसहा त्रासदी से उत्तरी बिहार पूरी तरह प्रभावित रहा. जिसमें सबसे प्रभावित जिलों में सुपौल, अररिया, मधेपुरा, पूर्णिया, कटिहार व सहरसा था. उसी दौरान बाढ़ विस्थापित परिवार के लोगों के जीवीकोपार्जन के लिये हस्तकरघा उद्योग के गुर सिखाने जिला प्रशासन द्वारा निर्णय लिया गया. जिसमें तत्कालीन डीएम के आदेश पर जिले के पिपरा प्रखंड स्थित सत्यदेव उच्च विद्यालय में शरणार्थी शिविर में महिला प्रसार पदाधिकारी विमला तिवारी की अध्यक्षता में प्रशिक्षण शिविर लगाया गया.
जिसमें बाढ़ विस्थापित परिवारों को श्री पाल के नेतृत्व में एक माह माह की ट्रेनिंग देने का कार्य प्रारंभ हुआ. दर्जनों विस्थापित परिवारों को प्रशिक्षित किया गया. लेकिन प्रवीण पाल के साथ मौजूद प्रशिक्षकों में ट्रेनर राजेंद्र मंडल, अरविंद राम, बुलेन देवी, चंदन पाल, विंदा देवी, बलराम यादव आदि ट्रेनरों ने जब अपने अभिश्रव की मांग की तो महिला प्रसार पदाधिकारी श्रीमती तिवारी ने केवल पांच हजार रुपये देकर सभी ट्रेनरों को विदा कर दिया. अभिश्रव की राशि कम मिलने से नाराज प्रशिक्षकों को लगा कि प्रवीण पाल को मोटी रकम मिली और अन्य प्रशिक्षकों का अभिश्रव भी प्रवीण पाल ही हजम कर गया. जिससे प्रवीण पाल की टीम में दरार आ गयी.

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