जीरादेई : कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष को अक्षय नवमी का पर्व मनाया जाता है. इसे आंवला नवमी भी कहा जाता है. ऐसी मान्यता है कि इस दिन द्वापर युग की शुरुआत हुई थी. पौराणिक कथा के अनुसार कार्तिक मास शुक्ल पक्ष की नवमी को भगवान विष्णु ने कुष्मांडक दैत्य का वध किया था. आंवला नवमी के रूप में भी इस व्रत को मनाया जाता है.
इस पर्व के मूल में बदलती ऋतु, सेहत व पर्यावरण का विचार निहित है. दीपावली के बाद जहां शीत ऋतु का आगमन होता है, वहीं त्योहारों का समापन हो चुका होता है. बदलते मौसम में स्वास्थ्य को लेकर सजग रहने की आवश्यकता होती है. आंवला का फल इन्हीं दिनों में तैयार होता है. आयुर्वेद के अनुसार आंवला में सभी औषधीय गुण होते हैं.
इसलिए इसे अमृत फल कहा जाता है. हमारी परंपरा में वर्त व त्योहार का संबंध जीवन के हरेक पक्ष से होता है. अक्षय नवमी प्रकृति से मानव के तादात्म्य का पर्व है. यह पर्व हमें यह संदेश देता है कि हम अपने परिवेश में आंवला का पेड लगायें. परंपरा के अनुसार इस दिन आंवले के वृक्ष की पूजा की जाती है तथा आंवले के पेड़ के नीचे भोजन पकाया जाता है और ग्रहण किया जाता है.
पंडित उपेंद्र दत मिश्र के अनुसार अक्षय नवमी के दिन किया गया पुण्य अक्षय होता है. इस दिन जो भी शुभ कार्य किया जाता है, उसका पुण्य जन्म-जन्मांतर तक प्राप्त होता है. अखंड सौभाग्य, धन, पुत्र, आरोग्य, ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए इस दिन आंवले के वृक्ष की पूजा अक्षत, मौली, कच्चा धागा, मिष्ठान, धूप, दीप व नैवेद से करनी चाहिए. इस दिन कुष्मांड दान करना चाहिए. माना जाता है कि आंवले के वृक्ष की पूजन की शुरुआत माता लक्ष्मी द्वारा की गयी थी.