अंग्रेजों के सामने झूके नहीं नवाब बाबू शिवहर. आजादी की लड़ाई में शिवहर के स्वतंत्राता सेनानियों की अहम भूमिका रही. जिसने आजादी की लड़ाई में अपनी जान दे दी, लेकिन अंग्रेजों के सामने कभी झुके नहीं. इसमें अग्रणी भूमिका जिले के महुअरिया निवासी ठाकुर नवाब सिंह की थी. जिन्हें जिंदा या मुर्दा पकड़ने के लिए ब्रिटिश हुकुमत ने 10 हजार रुपये की घोषणा की थी, लेकिन नवाब बाबू को जिंदा या मुर्दा हासिल करने का सपना अंग्रेजों के सिपाही पूरी नहीं कर सके. स्वतंत्रता सेनानियों की मानें तो 1905 में बंगभंग आंदोलन के साथ पूरे भारत में राजनीतिक चेतना जगी. उस समय ठाकुर नवाब सिंह भी आजादी के सपने देखने लगे थे. 1911 के पूर्व बिहार का उच्च न्यायालय कलकत्ता में था. नवाब बाबू मुकदमें के सिलसिले में कलकत्ता आते-जाते रहते थे. इस दौरान बंगाल के क्रांतिकारियों के संपर्क में आ गये थे. साथ ही वे क्रांतिकारियों को आश्रय भी देने लगे थे. वे खुदीराम बोस की बहादूरी से काफी प्रभावित थे. 1914 में तत्कालीन मुजप्फरपुर जिला से चंदा एकत्रित कर बालकृष्ण गोखले के माध्यम से गांधी जी के पास दक्षिण अफ्रीका भेजा था. राजेंद्र प्रसाद आत्मकथा के अनुसार वे 1917 में चंपारण में गांधी जी से मिले उसके बाद 1920 के असहयोग आंदोलन में सपरिवार आजादी की लड़ाई में कूद पड़े. वही 1921 जनवरी में उन्हें असहयोग आंदोलन के दौरान गिरफ्तार कर लिया गया. किंतु कुछ दिन हाजत में रखने के बाद उन्हें छोड़ दिया गया. 12 मार्च 1930 के गांधी जी का नमक सत्याग्रह शुरू हुआ. 13 मार्च 1930 में शिवहर में नमक सत्याग्रह किया गया. शिवहर में नमक बनाने के दौरान स्वतंत्रता सेनानी जनकधारी प्रसाद, रामदयालू सिंह, ठाकुर रामनंदन सिंह के साथ इन्हे भी गिरफ्तार कर लिया गया. इन्हें 6 माह कैद की सजा सुनायी गयी. हजारीबाग जेल में इन्हें भेज दिया गया. वे वहा राजेंद्र प्रसाद के साथ सहबंदी रहे. सजा की अवधि पूरी होने पर उन्हें रिहा कर दिया गया. किंतु उनका उत्साह कम नही हुआ. 1942 में उन्होंने करीब एक लाख लोगों के साथ जाकर सीतामढ़ी कचहरी पर झंड़ा फहरा दी. जिससे बौखलाई अंग्रेजी हुकुमत ने दमनात्मक कारवाई शुरू किया. सीतामढ़ी स्थित इनके आवास, महुअरिया पुश्तैनी मकान व शिवहर स्थित इनके गोला पर अंग्रेजी सिपाही ने आग लगा दी, जिसमें लाखों की संपत्ति जलकर राख हो गया. उसके बाद नवाब बाबू को जिंदा या मुर्दा पकड़ने का अंग्रेजी फरमान जारी हुआ. तिरहुत क्षेत्र के कमीशनर टेनब्रुक की बेचैनी बढ़ गयी. उसने सीपाहियों को निर्देश दिया कि नवाब सिंह को पकड़ना आंदोलन रोकने के लिए जरूरी है. इधर नवाब बाबू भूमिगत हो गये. वे परोसी देश नेपाल के सिमरौनगढ़ में रहने लगे व वही से आंदोलन को संचालित करने लगे. किंतु गोरी पुलिस को पता चल गया कि वे नेपाल में हैं. फिर अंग्रेजों ने नेपाल सरकार पर इन्हें पकड़ने के लिए दबाव बनाना शुरू किया. बढ़ते दबाव को देखते हुए वे पूर्वी चंपारण के खोरी पाकड़ के लिए निकल पड़े. किंतु अस्वस्थ रहने के कारण 4 दिसंबर 1942 को उनका निंधन खोरी पाकड़ में हो गया. उन्होंने मरने के पूर्व सहयोगी को निर्देश दिया कि उनके शरीर को मरने के बाद जला दिया जाय. ताकि अंग्रेज को जिंदा या मुर्दा उनका शरीर नहीं मिले. उनके निधन के बाद स्वतंत्रता सेनानियों ने उन्हें बागमती-बकैया के संगम पर उनके पार्थिव शरीर को जलाकर पंचतत्व में विलीन कर दिया.
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अंग्रेजों के सामने झूके नहीं नवाब बाबू
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