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मेले में न कुश्ती रही और न ही इसके कद्रदान
दिघवारा : हरिहर क्षेत्र मेला में वक्त के साथ बहुत कुछ बदल गया. कई चीजें अतीत की बातें बन गयी. न हाथियों की प्रदर्शनी रही और न ही इस बार चिड़िया बाजार ही सज सका. गाय व भैंस के बाजार में अंगुली पर गिनने लायक जानवर रह गये. इसके साथ ही दंगल के लिए मशहूर […]
दिघवारा : हरिहर क्षेत्र मेला में वक्त के साथ बहुत कुछ बदल गया. कई चीजें अतीत की बातें बन गयी. न हाथियों की प्रदर्शनी रही और न ही इस बार चिड़िया बाजार ही सज सका. गाय व भैंस के बाजार में अंगुली पर गिनने लायक जानवर रह गये. इसके साथ ही दंगल के लिए मशहूर इस मेला में न तो पहलवान आ रहे हैं और न ही दंगल का आयोजन ही हो रहा है.
प्रशासनिक सुस्ती व लोगों की उदासीनता से कुश्ती अब धीरे धीरे इतिहास बन गया है. इस बार अब तक नौका दौड़ भी नहीं हुई. कागजों में ही घुड़सवारी हो रही है.
राजाओं से पुरस्कृत होते थे पहलवान : एक जमाना वो भी था जब प्रत्येक गांवों में अखाड़े उस्ताद या खलीफा अपने शागिर्दों को वर्जिश व मल्ल कौशल का प्रायोगिक प्रशिक्षण देते थे. बाद में कई प्रतिस्पर्धाओं में चुने गये पहलवान हरिहर क्षेत्र मेले में बदानी जीतते थे. विजेता पहलवान राजाओं व महाराजाओं आदि साहबों से पुरस्कृत होते थे. मगर अब न तो कुश्ती रहा और न ही इसके पहलवान व कद्रदान.
लंगोट से अंजान है नयी पीढ़ी : क्रिकेट की दीवानगी में डूबी नयी पीढ़ी लंगोट से अंजान है. यदि जानते भी हैं तो बांधना भी नहीं जानते. अब तो टेलर मास्टर भी लंगोट नहीं बना पा रहे हैं. शायद ही किसी टेलर को लंगोट सिलने का आर्डर मिलता है.
अब भी होती है कुश्ती की चर्चा पर अखाड़े उपेक्षित : बाघ बच्चा का अहाता का अखाड़ा, चिरइया मठ का अखाड़ा सहित तमाम ग्रामीण अखाड़े घास फूस से भरे हैं. सावन में अखाड़े की पूजा खानापूर्ति मात्र है. बगहीं के मोदी राउत,सैदपुर के यमुना सिंह,बसंत के धर्मनाथ सिंह,विश्वनाथ सिंह, तेगली राय, केवलधारी राय, ईश्वरी भगत, अंबिका सिंह, मोथा तिवारी, आमी के यमुना सिंह, मीठा पहलवान, मीठेपुर के अंबिका राय, मांझी के अदालत खलीफा, मूलचंद मांझी राईपट्टी के रुदल हाजरा, शिवानंद सिंह आदि पहलवानों की कलाबाजियां शारीरिक बल अब इतिहास बनकर रह गये. अब तो कुश्ती नहीं होती है बस उस अतीत की कुश्ती की चर्चा होती है.
अंग्रेजी बाजार में होती थी कुश्ती, जुटते थे कुश्तीप्रेमी
इसी सोनपुर की धरती पर गामा गूंगा से लेकर कई नामी गिरामी पहलवानों ने सोनपुर की धूल चाटीं व अपने विरोधियों को परास्त भी किया. ब्रिटिश कालीन भारत में सोनपुर मेला का अंग्रेजी बाजार वायसराय लार्ड साहबान, राजा, महाराजा, नवाबों सुल्तानों जमींदारों व ताल्लुकेदारों से भरा पडा रहता था. इन राजाओं के दरबारी पहलवानों के बीच दंगल होता था. स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद दंगल संस्कृति को सोनपुर के बाघ बच्चा के नाम से मशहूर राय बहादुर ठाकुर अमरेंद्र नारायण सिंह ने कायम रखा. वे जब तक जिंदा रहे कुश्ती दंगल संस्कृति को कायम रखा.
कहा जाता है कि 1950 में रूस्तमे-हिंद गामा पहलवान चिरइया मठ में आए थे और गामा नगरा के अफौर निवासी महाबली सुचित सिंह से हाथ मिलाकर जोर अजमाइश करना चाहते थे, गामा सोनपुर से अफौर आए तबतक महाबली सुचित सिंह का स्वर्गवास हो गया. गामा अमनौर के केवानी निवासी बिहार टाइगर बाबू राजवशी सिंह से भी मिले थे.
बाघ बच्चा बाबू के अहाते में राजवंशी सिंह, सरदार पूरण सिंह, चांदगी राम, राजबीर, सतपाल, करतार सिंह,भारत भीम लाल बहादुर सिंह, बिहार केशरी दशरथ यादव आये और सोनपुर की धूल चाटा और चटायीं. कहते हैं कि अगस्त माह से सोनपुर मेला दंगल की तैयारी पहलवान शुरू कर देते थे और मेला में अपने कौशल चुस्ती-फुर्ती का परिचय देते थे .पर अब सब बातें अतीत बनकर रह गयी.अब तो खोजने से न अखाडा मिलता है और न पहलवान.
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