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पदों के साथ–साथ पिछड़ों को चाहिए कल्याणकारी योजनाएं

सुरेंद्र किशोर राजनीतिक िवश्लेषक केंद्र सरकार अगले कुछ वर्षों में पिछड़ों के कल्याण के लिए कितने ठोस काम करने वाली है? यदि सचमुच कुछ चौंकाने वाले कल्याणकारी काम हुए तो उससे नवनियुक्त प्रदेश भाजपा अध्यक्ष नित्यानंद राय की पैठ पिछड़ों में बढ़ेगी. अन्यथा वह भी उसी तरह लालू प्रसाद के सामने प्रभावहीन रहेंगे जिस तरह […]

सुरेंद्र किशोर
राजनीतिक िवश्लेषक
केंद्र सरकार अगले कुछ वर्षों में पिछड़ों के कल्याण के लिए कितने ठोस काम करने वाली है? यदि सचमुच कुछ चौंकाने वाले कल्याणकारी काम हुए तो उससे नवनियुक्त प्रदेश भाजपा अध्यक्ष नित्यानंद राय की पैठ पिछड़ों में बढ़ेगी. अन्यथा वह भी उसी तरह लालू प्रसाद के सामने प्रभावहीन रहेंगे जिस तरह उनके समुदाय से आने वाले पहले के दो प्रदेश अध्यक्ष रहे. हां, नित्यानंद राय की नियुक्ति के साथ एक बात जरूर हुई है. वह यह कि संघ प्रमुख मोहन भागवत के आरक्षण पर गत साल दिये बयान के कारण पिछड़ों के एक हिस्से में जो गुस्सा पैदा हुआ था, वह संभवत: थोड़ा कुंद होगा.
नित्यानंद राय की नियुक्ति के साथ डॉ. प्रेम कुमार और सुशील कुमार मोदी की नियुक्तियों को जोड़ कर देखा जाये तो बिहार भाजपा की अब एक भिन्न छवि उभरती है. यह छवि भाजपा की परंपरागत सवर्ण बहुल छवि से भिन्न है.
छवि बनना एक बात है, पर पिछड़ों में पैठ बनाना दूसरी बात है. बिहार में भाजपा के लिए लालू-नीतीश की दमदार जोड़ी से मुकाबला करना आसान नहीं है. नीतीश कुमार की छवि तो समावेशी नेता की है. वह न्याय के साथ विकास के पक्षधर रहे हैं. नीतीश की धारणा है कि जिस समुदाय की जितनी मदद की जरूरत है, उतनी मदद उसे मिलनी चाहिए. वह सवर्णों का भी ध्यान रखते रहे हैं. पर 1990 के मंडल आरक्षण आंदोलन के दौरान लालू प्रसाद अपनी बेजोड़, साहसी और ऐतिहासिक भूमिका के कारण पिछड़ों खास यादवों के डार्लिंग बने हुए हैं.
लालू की ताकत को कमजोर करना टेढ़ी खीर है : हां, इन दिनों प्रधानमंत्री जिस तरह आक्रामक मुद्रा में हैं, जिस तरह वे भ्रष्टाचार व काला धन के दानव से लड़ रहे हैं, उससे यह उम्मीद बनती है कि वह देर सबेर एक दिन इस देश के उपेक्षित पिछड़ों के लिए भी कुछ ठोस काम कर देंगे.
पिछड़ों के विकास के बिना देश का सम्यक विकास कैसे होगा? भागवत के बयान की वास्तविक क्षतिपूर्ति तभी होगी. पिछड़ों के लिए पहला काम तो यह हो सकता है कि केंद्र सरकार पिछड़ा वर्ग आयोग की इस सिफारिश को मान ले कि 27 प्रतिशत आरक्षण को तीन भागों में बांट दिया जाये. उससे पिछड़ों के बीच के कमजोर तबकों को भी आरक्षण का लाभ मिलने लगेगा. आम पिछड़ों के व्यापक भले के लिए भी कई काम हो सकते हैं ताकि वे समाज में आगे बढ़ चुके लोगों के समकक्ष आ सकें. बिहार भाजपा के भीतर राज्य भाजपा के कई सवर्ण नेता प्रदेश अध्यक्ष पद के उम्मीदवार थे.
पर उन्हें नजरअंदाज करके नित्यानंद को यह सम्मान मिला. हाइकमान का यह फैसला गलत नहीं है. पर सवाल है कि वैसे नेतागण नित्यानंद राय को सहयोग करेंगे? ऐसी उम्मीद करना जल्दीबाजी होगी. पर राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार वैसे नेता नित्यानंद के साथ पार्टी के भीतर जितना असहयोग करेंगे, पिछड़ों में नित्यानंद की पैठ उतनी ही बढ़ेगी नित्यानंद संघ पृष्ठभूमि के हैं. इसलिए वह संघ के बड़े नेताओं को यह बताने की बेहतर स्थिति में हैं कि भविष्य में आरक्षण पर बयान देने से पहले सोच विचार कर लिया जाये.
बड़े कामों के लिए अधिक जन समर्थन जरूरी
नरेंद्र मोदी ने कुछ बड़े काम करने का बीड़ा उठाया है. ऐसे काम जिनके बारे में किसी पिछली सरकार ने सोचा तक नहीं. वैसे कामों को अंजाम देने के लिए सरकार को जनता की ताकत चाहिए.
पिछले लोकसभा चुनाव में देश के सिर्फ एक-तिहाई मतदाताओं का ही समर्थन राजग को मिला था. पिछड़ गये समुदायों के बीच अपनी पैठ बनाये बिना मोदी का समर्थन नहीं बढ़ सकता. कम समर्थन वाली किसी सरकार को निहित स्वार्थी तत्व ऐसे काम करने नहीं देंगे. काम क्या हैं? इस देश में आम तौर पर जो व्यापार होता हैं, उसके दो खाते होते हैं. एक सफेद खाता और दूसरा काला खाता. मोदी काले धन के, खाते को बंद करना चाहते हैं. क्या यह मामूली काम है? अधिकतर सरकारी दफतरों में अधिकतर सरकारी निर्णय बिकाऊ हैं. मोदी जी इसे बंद करना चाहते हैं. यह आसान काम है? चुनावों में खर्च के दो हिसाब होते हैं. चुनाव आयोग को देने वाला कागजी हिसाब और दूसरा काले धन का प्रयोग. क्या चुनाव में काले धन का प्रयोग बंद करना आसान काम है?
संपत्ति खरीद में कुछ पैसे चेक से दिये जाते हैं और अधिक पैसे नकद. क्या सारे पैसे चेक देने के लिए मजबूर किया जा सकता है? जानकार लोग बताते हैं कि इस तरह के कुछ और काम केंद्र सरकार की सूची में हैं. विमुद्रीकरण उसी सूची में था. इन सब कामों को करने के लिए सरकार को बड़ी ताकतों से टकराना होगा. इनमें से कुछ शक्तियां खुद मोदी सरकार के भीतर हैं. वे शक्तियां सरकार गिराने की भी कोशिश कर सकती हैं. उन काली शक्तियों का मुकाबला सरकार भारी जन समर्थन से ही कर सकती है. यह समर्थन मोदी सरकार को तभी मिलेगा जब वह सदियों से पिछड़ गये लोगों के भले के लिए कुछ चौंकाने वाले काम करके दिखाये. तभी नित्यानंद राय की नियुक्ति भी सार्थक मानी जाएगी.
ममता के गद्दार वाले बयान पर : पूर्व केंद्रीय मंत्री डॉ. रघुवंश प्रसाद सिंह ने ममता बनर्जी के साथ नोटबंदी के खिलाफ पटना में धरना दिया. ठीक किया. लोकतंत्र में इसकी अनुमति है. पर ममता जी ने नोटबंदी के समर्थकों को गद्दार कह दिया. क्या यह उचित है? क्या रघुवंश जी उस बयान से खुद को अलग करेंगे? राजग के बाहर के कुछ राजनेता भी नोटबंदी
का समर्थन कर रहे हैं. क्या उन्हें गद्दार कहा जाना चाहिए?
कब तक चलेगी लर्नर लाइसेंस पर गाड़ी! : दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने गत सितंबर में यह सही कहा था कि दिल्ली सरकार एक कलम खरीदने में भी सक्षम नहीं है. वह और उनके कैबिनेट सहयोगी अधिकारों से पूरी तरह वंचित हैं.
यह भी सही बात है कि दिल्ली की राजनीतिक कार्यपालिका को उतने अधिकार नहीं हैं जितने बिहार, पंजाब तथा इस तरह के पूर्ण दर्जा वाले राज्यों की राजनीतिक कार्यपालिकाओं को हैं. पर केंद्र की मोदी सरकार ने केजरीवाल सरकार को उतने अधिकारों का भी उपयोग नहीं करने दिया जितना शीला दीक्षित मुख्यमंत्री के रूप में करती थीं. दिल्ली के अगले विधानसभा चुनाव में केजरीवाल की पार्टी जनता से यह कह सकती है कि हमें तो अधिकार ही नहीं दिया तो हम काम कैसे कर पाते? पर पंजाब में आप को यदि मौका मिला तो शायद वहां उनके हाथ नहीं रुकेंगे.
पर सवाल है कि केजरीवाल साहब कब तक ‘लर्नर लाइसेंस’ के साथ गाड़ी चलाते रहेंगे? प्रौढ़ राजनीति करना कब सीखेंगे? ताजा उदाहरण नोटबंदी पर उनका विरोध है. वह शारदा-नारदा के दागियों और आय से अधिक संपत्ति जुटाने का आरोप झेल रहे नेताओं की कतार में खड़े नजर आयें.
बड़ा संकट आ गया तो क्या होगा? : साठ के दशक में अन्न संकट से उबरने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने रेडियो संदेश के जरिये देशवासियों से अपील की कि वे हर सोमवार को एक वक्त का भोजन त्याग दें. लोगों ने इसे ‘शास्त्री व्रत’ कह कर उसका पालन किया. यहां तक कि तब रेस्तारां और होटल भी सोमवार की शाम में बंद रहते थे. पर अर्थ संकट से उबरने के लिए लागू नोटबंदी पर अनेक लोग अड़ंगे लगा रहे हैं. खुदा न करे, पर यदि भारत को कोई युद्ध लड़ना पड़ गया तो वैसे लोग क्या करेंगे?
और अंत में : नरेंद्र मोदी सरकार ने नोटबंदी के साथ ही राष्ट्रीय विमर्श का मुद्दा ही बदल दिया है. एक तरफ साक्षी महाराज, साध्वी प्राची तो दूसरी ओर असदुददीन ओवैसी और दिग्विजय सिंह जैसे नेता अभी बेरोजगार से हो गये लगते हैं. यह देशहित में होगा कि दोनों पक्षों के ऐसे नेतागण कम से कम अगले कुछ समय के लिए ‘शांति’ बनाएं रखें.

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