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जंगल में नहीं, बिहार के इस गांव में नाचते हैं मोर, पढ़ें…

pushyamitra@prabhatkhabar.in सहरसा : किसी नोटिफाइड जंगल में आपको इतने मोर एक साथ नहीं दिखेंगे, जितने सहरसा जिले के आरण गांव में दिख जायेंगे. कोई किसी दरवाजे पर दाना चुगता नजर आ सकता है तो कोई किसी घर में घुस कर अनाज की बोरी पर हाथ साफ करता. कोई किसी ग्रामीण महिला के हाथ से रोटी […]

pushyamitra@prabhatkhabar.in
सहरसा : किसी नोटिफाइड जंगल में आपको इतने मोर एक साथ नहीं दिखेंगे, जितने सहरसा जिले के आरण गांव में दिख जायेंगे. कोई किसी दरवाजे पर दाना चुगता नजर आ सकता है तो कोई किसी घर में घुस कर अनाज की बोरी पर हाथ साफ करता. कोई किसी ग्रामीण महिला के हाथ से रोटी सब्जी खाता नजर आ सकता है तो कोई बीच सड़क पर पंख फैलाये नाचता. आरण गांव के लोगोंको यह नजारा सहज ही उपलब्ध है जिसकी एक झलक पाने के लिए लोग तरसते रहते हैं. ग्रामीणों के हिसाब से यहाँ पांच सौ से अधिक मोर बास करते हैं. रोचक जानकारी यह है कि महज 25 साल पहले पंजाब से लाये गये एक जोड़ी मोर-मोरनी से उनका कुनबा फ़ैल कर इतना बड़ा हो गया है.
पूरे गांव के हो गये मोर
मोर जब से कारी झा का घर छोड़ कर जंगल में बसे, वे तो आजाद हो गये मगर पूरे गांव से उनका नाता जुड़ गया. वे हर किसी के दरवाजे पर नजर आने लगे, हर गांव वालों के घर में घुसने लगे और खेतों में फ़सल को नुकसान पहुंचाने लगे. मगर कभी किसी ने मोरों के उत्पात का बुरा नहीं माना. ज्यादा से ज्यादा इतना किया कि आवाज़ लगा कर भगा दिया. सामाजिक कार्यकर्ता कृष्ण कुमार कुंदन कहते हैं, उनका गांव यदुवंशियों का गांव है. यहां लोग पशुपालक हैं, इसलिए पक्षियों से भी स्नेह करते हैं. और मोर के पंख तो हमारे भगवान कृष्ण के श्रृंगार का हिस्सा हैं. वे कहते हैं, इन मोरों की वजह से गांव में कोई व्यक्ति गोभी की खेती नहीं कर पाता क्योंकि गोभी के फूल इन्हें अति प्रिय हैं और उन्हें उगने से पहले चबा कर खा जाते हैं.
रोचक तथ्य यह है कि सात-आठ सौ घरों की इस बस्ती और इनके जंगलों की सीमा से बाहर ये मोर नहीं जाते. ये इनकी चौहद्दी में ही खुद को सुरक्षित महसूस करते हैं. कई बार इलाके के नामी-गिरामी नेता और उच्च पदाधिकारी यहां से मोर का बच्चा पालने ले गये मगर कहीं और ये सर्वाइव नहीं कर पाये. अब तो गांव वाले किसी को मोर का बच्चा लेने देते ही नहीं हैं. गांव के एक किसान मिलिंद कुमार बताते हैं कि कई दफा तो बहेलिया लोग भी मोर पकड़ने गांव आ गये. मगर लोगों ने इन्हें गांव घुसने नहीं दिया.
सालों से साथ रहते-रहते गांव के लोग इन मोरों की जीवन चर्या से भी परिचित हो गये हैं. कृष्ण कुमार कुंदन बताते हैं कि इन दिनों मोरनियां अपने बच्चों की परवरिश में व्यस्त हैं इसलिए सिर्फ मोर नजर आ रहे हैं. फरवरी-मार्च में मोरों के शरीर में नये पंख आने लगते हैं. उसके बाद अप्रैल, मई महीना उनके पाल खाने (ब्रीडिंग का) होता है. अंडों से एक से डेढ़ महीने में बच्चे निकल आते हैं. छोटे बच्चों को दूसरे जानवरों से बचाना मुश्किल काम होता है. माताएं उन्हें बड़ा करती हैं. फिर दशहरा का वक़्त आते-आते बच्चे मादा के साथ टहलते हुए नजर आने लगे हैं.
सरकार संभाले सुरक्षा की जिम्मेदारी
कारी झा बताते हैं कि यहां मोरों की बड़ी संख्या के बारे में जिला प्रशासन से लेकर वन विभाग तक को खबर है. वन विभाग के अधिकारी कई बार लंबी पूछ-ताछ करके गये. हमलोगों को लगा कि वे लोग मोरों के लिए कुछ करेंगे, मगर कुछ नहीं हुआ. यहां मोरों का वृन्दावन तो बस गया है, मगर इसको आगे बढ़ाने के लिए सरकार को आगे आना चाहिए. कृष्ण कहते हैं, अब तक मोरों की सुरक्षा गांव के लोग ही करते रहे हैं अगर वन विभाग के लोग यह काम ले लें तो काफी सुविधा होगी. कई लोग सिर्फ मोरों को देखने इस गांव आते हैं, पर्यटन विभाग चाहे तो इसे पर्यटन केंद्र के रूप में भी विकसित कर सकता है. इससे सरकार का भी फायदा है और हमारा भी.
मोर नाचते हैं, तो ठहर जाता है ट्रैफिक
मिलिंद बताते हैं कि मोर साल में एक बार अपने सारे पंख खुद नोच कर गिरा देते हैं. उस वक़्त गांव के सारे बच्चे पंख जमा करने इनके पीछे-पीछे घूमते रहते हैं. आप इनके द्वारा नीचे गिराये गये पंख तो चुन सकते हैं, मगर आप चाहेंगे कि इनके शरीर से पंख नोच लें यह मुमकिन नहीं. ऐसा कोशिश करने वाले तीन-चार लोग घायल हो चुके हैं. फरवरी मार्च महीने में इनके नये पंख आने लगते हैं. जब इनके सारे पंख आ जाते हैं तो मोरनी को रिझाने के लिए यह नाचता है. उस वक़्त गांव का माहौल ही बदल जाता है. कई वक़्त ये नाचते-नाचते रोड पर आ जाते हैं. उस वक़्त लोग गाड़ी रोक कर इनका नाचना देखने लगते हैं. उस वक़्त नाचते हुए मोर के चारों तरफ मोरनियां चक्कर काटने लगती हैं. फिर नाचते-नाचते दोनों एकांत में चले जाते हैं.
कारी झा, जिन्होंने मोरों को बसाया
मोरों को आरण गांव में बसाने वाले अभिनन्दन यादव उर्फ़ कारी झा अब बुजुर्ग हो गये हैं. अपने जमाने में पिछड़ों की राजनीति करने वाले कारी झा बताते हैं कि 1991 में गांव के प्रवासी मजदूरों ने नर और मादा मोर का छोटा सा बच्चा उन्हें लाकर दिया था. ये मजदूर जिस गांव में रहते थे वहां कुछ मोर नजर आते थे. उनकी फरमाईश पर ये बच्चे यहां लाये गये थे. उन्होंने बड़े जतन से इस जोड़े को पाला. फिर जब दोनों बड़े हुए तो पहली दफा मोरनी ने छह अंडे दिये. इनसे छह बच्चे हुए. फिर इन छह मोरों से कई और मोर हुए. महज तीन चार साल में इनका आंगन मोरों से भर गया और इन्हें विवश होकर मोरों को पालने का शौक छोड़ना पड़ा.

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