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12 वर्ष व 42 सौ चिट्ठियों के बाद भी नहीं मिल सका राष्ट्रपति से मिलने का समय

पुष्यमित्र पटना pushyamitra@prabhatkhabar.in ये पंक्तियां सीतामढ़ी जिले के तेम्हुआ गांव के निवासी दो युवक दिलीप और अरुण द्वारा देश के राष्ट्रपति को लिखे गये 42 सौवें पत्र की हैं. छह दिसंबर, 2004 से ये दोनों भाई राष्ट्रपति महोदय को रोज पत्र लिख कर उनसे मिलने का वक्त मांग रहे हैं. वे उन्हें अपने गांव तेम्हुआ […]

पुष्यमित्र पटना
pushyamitra@prabhatkhabar.in
ये पंक्तियां सीतामढ़ी जिले के तेम्हुआ गांव के निवासी दो युवक दिलीप और अरुण द्वारा देश के राष्ट्रपति को लिखे गये 42 सौवें पत्र की हैं. छह दिसंबर, 2004 से ये दोनों भाई राष्ट्रपति महोदय को रोज पत्र लिख कर उनसे मिलने का वक्त मांग रहे हैं. वे उन्हें अपने गांव तेम्हुआ में पसरे कालाजार के कहर की जानकारी देना चाहते हैं, जिसकी वजह से अब तक 48 लोगों की मौत हो गयी है. वे उनसे इस समस्या का निदान चाहते हैं.

मगर आज लगभग 12 साल बीत जाने के बावजूद उन्हें मिलने का वक्त नहीं मिला है. ऐसे में उन्होंने राष्ट्रपति से मिलने को ही अपने जीवन का मकसद बना लिया है. वे अपने इस अभियान को तब तक जारी रखना चाहते हैं, जब तक राष्ट्रपति उनसे मिलने के लिए राजी न हो जायें. आजाद भारत के 70वें समारोह के मौके पर दिलीप और अरुण की यह दास्तां आपको परेशान कर सकती है. भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था पर से आपका भरोसा डिगा सकती है, जो कहती है कि इस देश का शासन आमलोग खुद चलाते हैं. अगर दो आम लोगों को राष्ट्रपति से मिलने का वक्त पाने में 4272 पत्र और 12 सालों का इंतजार भी कम पड़ जाये तो इसका अर्थ यही समझा जाना चाहिए कि आजादी के बाद जो व्यवस्था बनी है उसमें आम लोगों के लिए बहुत अधिक स्पेस नहीं बचा है. दिलीप और अरुण का यह दीर्घकालीन अभियान संभवतः इन्हीं सीमाओं को उजागर करने की एक कोशिश है.

दिलीप और अरुण अब 40 के लपेटे में आ चुके हैं. वे बताते हैं, 27-28 साल की उम्र रही होगी, जब उन्हें पहली बार विचार आया कि अपने गांव की समस्या के बारे में देश के राष्ट्रपति को पत्र लिखा जाये और उन्हें बताया जाये कि गरीबों की बस्ती में हर साल कई लोग कालाजार की वजह से मर जाते हैं. इन्हें बचाने की कोशिश शुरू हो. वह 24 सितंबर, 2004 का दिन था, जब उन्होंने दस पृष्ठों का एक टाइप किया हुआ पत्र राष्ट्रपति भवन के कार्यालय में इस उम्मीद से जमा कराया कि राष्ट्रपति महोदय उनके गांव की समस्या को समझेंगे और उन्हें मिलने का वक्त देंगे. उन्होंने दिल्ली जाकर खुद यह पत्र जमा कराया था. वह दो-चार रोज रुकने के बाद भी जब कोई जवाब नहीं आया तो एक बार फिर वे राष्ट्रपति भवन के कार्यालय पहुंचे. वहां अधिकारियों ने बताया कि आप आराम से घर जायें, महामहिम का वक्त इतनी आसानी से नहीं मिलता. जब वक्त होगा आपको सूचित कर दिया जायेगा.
वे लौट कर घर आ गये. ढाई महीने के इंतजार के बाद भी उन्हें कोई जवाब नहीं मिला तो 6 दिसंबर, 2004 को उन्होंने तय कर लिया कि वे तब तक रोज राष्ट्रपति को पत्र लिखते रहेंगे, जब तक उन्हें मिलने का वक्त न मिल जाये. तब से आज तक वे रोज राष्ट्रपति को पत्र लिखते रहे हैं. तीन जून 2016 को उन्होंने राष्ट्रपति को 42 सौवां पत्र लिखा है और यह प्रकरण आज भी जारी है. विडंबना यह है कि 11 साल 8 महीने गुजर जाने के बावजूद उन्हें आज तक उधर से ऐसा पत्र नहीं मिला है, जिसमें यह जिक्र हो कि आप फलां तारीख को फलां वक्त पर राष्ट्रपति से मिल सकते हैं.
दिलीप बताते हैं कि इस दौरान राष्ट्रपति भवन से उन्हें 13-14 जवाबी पत्र मिले हैं. उन सभी पत्रों में यही कहा जाता रहा है कि अपने व्यस्त कार्यक्रम की वजह से राष्ट्रपति महोदय उनसे नहीं मिल सकते. इसके बावजूद दोनों भाई हिम्मत नहीं हार रहे. उन्होंने राष्ट्रपति से मिलने और उन्हें अपने गांव की समस्या बताने को अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया है. वे सोते-जागते हर वक्त इसी बारे में सोचते हैं और बातें करते हैं. राष्ट्रपति के अलावा वे इन पत्रों को औऱ इन समस्याओं को कई दूसरे महत्वपूर्ण व्यक्तियों को भी भेजते हैं. इतना ही नहीं 2009 में उन्होंने राष्ट्रपति महोदय को एक लंबा पत्र भी लिखा जो वाणी प्रकाशन द्वारा पुस्तक के रूप में छापा गया. 300 पन्नों की इस किताब में उन्होंने तेम्हुआ गांव की समस्या का जिक्र करते हुए राष्ट्रपति महोदय को संबोधित किया है कि वे उन्हें मिलने का वक्त दें.
यह केवल हमारे चिंतित होने या न होने का प्रश्न नहीं है. यह केवल रोटी, कपड़ा और मकान का प्रश्न नहीं है. यह केवल भूखो-नंगों का प्रश्न नहीं है. यह केवल भूखे कब्रगाह के खामोश आलम का प्रश्न नहीं है. यह केवल भूख और बीमारी से मरे हुए इंसान के चिताओं की बुझी हुई राख का प्रश्न नहीं है. यह केवल हमारे मिलने या न मिलने का प्रश्न नहीं है, बल्कि यह हिंदुस्तान के होने या न होने का प्रश्न है. यह हमारी सभ्यता एवम संस्कृति का प्रश्न है. यह हमारे शहीदों द्वारा बहाये गये खून का प्रश्न है. यह हमारे पुरखों के सपनों का प्रश्न है. यह राष्ट्र की राष्ट्रीयता का प्रश्न है. यह आजादी की पहली सुबह का प्रश्न है. यह लाल किले की मुंडेर पर लहराते तिरंगे का प्रश्न है. यह दुनिया के सबसे बड़े लोकतान्त्रिक सरकार की संवैधानिक जिम्मेदारी का प्रश्न है. यह इस लोकतान्त्रिक मुल्क के नागरिक के संवैधानिक अधिकार का प्रश्न है. यह हमारे द्वारा भेजे गये उन हजारों चिट्ठियों का प्रश्न है जिसमे हमने आपसे मिलने के लिए थोड़ा- सा वक्त माँगा था और आज भी मांग रहें हैं.
तीन मांगें : जिनका उल्लेख आजकल उनके हर पत्र में होता है
1बारह वर्ष, 42 सौ से अधिक दिन और रातें, 42 सौ से अधिक पत्रों के माध्यम से मैंने यह मांग की है कि प्लीज हमें मिलने का समय दिया जाये. अपने लिए, अपने गांव में बीमारी से मरे गरीब भाई बहनों के लिए और भारत वर्ष के लिए.
2 आखिर क्या कारण है कि इस छोटी सी बस्ती खलही और बिरती में बीमारी से चंद वर्षों में तकरीबन 48 लोगों की मौत हो गयी तथा सैकड़ों लोग पीड़ित हो गये. इसकी जांच करायी जाये और फिर उस जांच में निकले कारणों के समाधान के लिए समुचित कार्रवाई की जाये. ताकि भविष्य में यहां के लोग फिर से कालाजार बीमारी का शिकार न बनें.
3 कालाजार बीमारी से मरे हुए लोगों तथा पीड़ित परिवारों का हक उन्हें दिया जाये.

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