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बिहार विधानसभा चुनाव : असली लड़ाई तो विकास के लिए
शैबाल गुप्ता सदस्य, सचिव आद्रीचुनाव के दौरान पिछले 25 वर्षो में, बिहार में हमेशा आमने-सामने की लड़ाई हुई है, लेकिन इस चुनाव में दोनों गंठबंधनों के समीकरणों में व्यापक बदलाव हुए हैं. महागंठबंधन में लालू-नीतीश की जोड़ी के साथ कांग्रेस भी है. लालू-नीतीश के तीन पुराने समर्थक – राम विलास पासवान, जीतन राम मांझी और […]
शैबाल गुप्ता
सदस्य, सचिव
आद्रीचुनाव के दौरान पिछले 25 वर्षो में, बिहार में हमेशा आमने-सामने की लड़ाई हुई है, लेकिन इस चुनाव में दोनों गंठबंधनों के समीकरणों में व्यापक बदलाव हुए हैं. महागंठबंधन में लालू-नीतीश की जोड़ी के साथ कांग्रेस भी है. लालू-नीतीश के तीन पुराने समर्थक – राम विलास पासवान, जीतन राम मांझी और पप्पू यादव- विपक्षी गंठबंधन का हिस्सा हैं. दोनों ओर की सामाजिक न्याय की शक्तियों को आरक्षण के फायदों की भी समझ है.
बिहार में वृहद बाजार या कॉरपोरेट सेक्टर की गैरमौजूदगी की वजह से युवा सरकारी नौकरियों में ही अपना भविष्य तलाशते हैं. हालांकि भारत के ज्यादातर विकसित राज्यों में राजनीति और विकास पर चरचा बाजार के इर्द-गिर्द ही रहती है. इन राज्यों की कार्यप्रणाली और सिद्धांत बाजार को बढ़ावा देने वाले रहे हैं.
इसका परिणाम यह हुआ कि इन राज्यों में उद्योगों, वित्तीय संस्थाओं और कॉरपोरेट सेक्टर के बड़े-बड़े स्ट्रर खड़े हो गये, और इनका वर्चस्व सिर्फ राष्ट्रीय बाजार पर ही नहीं था, बल्कि वह अंतरराष्ट्रीय बाजार से भी बिना बहुत मेहनत किये जुड़ गये. और बाजार ही इन राज्यों में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से राजनीति को नियंत्रित करता है. 1921 के बाद से ही पश्चिम भारत बाजार के चारों ओर घूमने वाली राजनीति का केंद्र रहा है.
देश के बाजार के 29} हिस्से पर महाराष्ट्र का कब्जा है जबकि उसकी आबादी देश की कुल आबादी का मात्र 9} है. वहीं बिहार का देश के बाजार के 4} हिस्से पर नियंत्रण है और इसकी जनसंख्या भी देश की आबादी का 9} ही है. यहां का बाजार अभी बहुत छोटा है और इससे जुड़े लोगों की संख्या भी बहुत कम है.
बिहार में राजनेताओं या युवाओं के राजनीतिक चरचा के केंद्र स्टेट स्ट्रर में शामिल होना ही रहता है. यह बाजार के चारो ओर घूमने वाले राज्यों (जैसे-महाराष्ट्र और गुजरात) में होने वाली चरचा के विपरीत है. यहां, हमें उस बात को याद करने की जरूरत है कि बंबई में किस तरह एक ही पंडाल में हर्षद मेहता और गणोश की मूíत की पूजा की गयी थी. बिहार में शादी के बाजार में वैसे लड़कों को ज्यादा दहेज मिलता है जो सरकारी नौकरी में होते हैं. आइएएस और आइपीएस के मामले में दहेज की कोई सीमा नहीं रहती है. सही कहा जाये तो विवाह के बाजार में आइएएस और आइपीएस की बोली लगती है.
इस पृष्ठभूमि में जब संघ प्रमुख मोहन भागवत ने भारत में आरक्षण पर फिर से चरचा करने की बात कही, तब सामाजिक न्याय को लेकर संवेदनशील रहे बिहार में सनसनी फैल गयी. यह मुद्दा लोगों की भावनाओं को उद्वेलित करेगा. जब मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू किया गया था, तब 1990 में दिल्ली विश्वविद्यालय का एक छात्र राजीव गोस्वामी ने आत्मदाह कर लिया था.
हाल में बिहार में चुनाव प्रचार के दौरान लालू प्रसाद ने आरक्षण वापस लेने पर आत्महत्या करने की धमकी दी. गुजरात में हार्दकि पटेल का पट्टीदारों (जिससे वह आते हैं) के लिए आरक्षण का आंदोलन पिछड़े वर्गो को उसका लाभ दिलाने से ज्यादा उसे खत्म करने पर है. उनके आंदोलन के पीछे सकारात्मक भेदभाव की नीति जो बैक बेंचरों को आगे लाती है, के प्रति कम है.
मोहन भागवत का बयान और हार्दकि के आंदोलन का बिहार चुनाव पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है, जहां बाजार अब भी अपने शैशवास्था में है.
बिहार में बाजार का प्रभाव चुनाव पर दिखना अभी दूर की कौड़ी है, इसलिए वर्तमान में चल रही चुनाव प्रक्रिया के परिणाम के प्रति अनिश्चय कायम है. चुनाव के दौरान पिछले 25 वर्षो में, बिहार में हमेशा आमने-सामने की लड़ाई हुई है, लेकिन इस चुनाव में दोनों गंठबंधनों के समीकरणों में व्यापक बदलाव हुए हैं. महागंठबंधन में लालू-नीतीश की जोड़ी के साथ कांग्रेस भी है.
लालू-नीतीश के तीन पुराने समर्थक -राम विलास पासवान, जीतन राम मांझी और पप्पू यादव- विपक्षी गंठबंधन का हिस्सा हैं. दोनों ओर की सामाजिक न्याय की शक्तियों को आरक्षण के फायदों की भी समझ है. मंडल आयोग की सिफारिशों को आत्मसात करने से पहले मुंगेरी लाल आयोग की रिपोर्ट लागू होने की वजह से अति पिछड़ा वर्ग (एनेर 1) के लोग निचले स्तर पर सरकारी नौकरियों में आने लगे थे.
समय के साथ इसने पिछड़ी जातियों में भी एक कुलीन वर्ग की स्थापना की. बाद में नीतीश कुमार ने पंचायती राज संस्थाओं में आरक्षण देकर उन्हें शासन के केंद्र में ला दिया.
उन्होंने पंचायती राज संस्थाओं में 50 } सीट महिलाओं के लिए, 20 } अति पिछड़ा वर्ग और 10} दलितों के लिए आरक्षण देकर सत्ता के निचले स्तर पर सामंतों के वर्चस्व को तोड़ दिया. यह एक ऐसा काम था जिसे लालू-राबड़ी भी अपने शासनकाल में नहीं कर पाये थे. बिहार में नये और पुराने कुलीन लोग (मंडल और मुंगेरी लाल आयोग की सिफारिशों के लागू होने के बाद के) वास्तव में बाजार के बारे में कुछ नहीं जानते हैं.
स्टॉक ऐंज की अनुपस्थिति ने इक्वीटी और मार्केट के बारे में अज्ञानता को और बढ़ाया है. भाजपा में भी, कुछ लोगों को छोड़कर, बहुतों के लिए बाजार किसी दूसरे ग्रह की वस्तु के समान है. इसलिए, आरक्षण पर भागवत के बयान का निहितार्थ ‘गेम चेंजर’ साबित हो रहा है. पहले चरण के चुनाव में नीतीश कुमार के नेतृत्व में महागंठबंधन को बढ़त का अनुमान है.
यह संयोग ही है कि लालू से गंठबंधन के बाद भी नीतीश कुमार पर सत्ता विरोधी लहर का कोई प्रभाव नहीं है. उनका करीब एक दशक का कार्यकाल आजादी के बाद बिहार में एक मानदंड है. इससे पहले, 1991 में लालू के साथ मिलकर उन्होंने चुनावी लोकतंत्र की पटकथा लिखी थी.
वर्ष 2005 के बाद नीतीश कुमार ने न सिर्फ राज्य को खड़ा किया, बल्कि कानून का राज स्थापित किया. उन्होंने सड़कें बनवायी, पुल बनवाये, नये संस्थानों को बनवाया और कई सामाजिक स्तर पर परिवर्तन भी किये. उन्होंने ‘देने वाले’ का रोल बखूबी निभाया.
अनजाने में ही सही, लेकिन वह दूसरों को सक्षम नहीं बना सके, जो राज्य में उत्पादन की गतिविधियों को बढ़ावा दे सके और जिससे बाजार का विस्तार हो सके. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि बाजार के विस्तार की कथा भूमि सुधार से जुड़ी हुई है. इस आधारभूत सुधार को पक्का किये बिना राज्य विकास नहीं कर सकता है.
जिस किसी भी गंठबंधन को इस चुनाव में सफलता मिलेगी, वह सिर्फ अपनी ‘देनेवाले’ की छवि बनाकर काम नहीं चला सकता है. समाज में उत्पादकता को बढ़ावा देने वाली शक्तियों के आगे आने से न सिर्फ संकीर्णता खत्म होती है, बल्कि राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय बाजार से जुड़ने का मौका भी मिलता है.
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