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कोची-कोची का इलाज करेगा डॉगडर.. पूरा बिहारे बीमार है..
विधानसभा चुनाव के दौरान तीखे आरोप-प्रत्यारोप के बीच क्या दूर-दराज से छोटे-मोटे रोगों के इलाज के लिए पटना आने वाले मरीजों की पीड़ा का अहसास किसी को है? पटना के आइजीआइएमएस में ऐसे सैकड़ों मरीज सुदूर गांव से पहुंचते हैं. कई तो ऐसे रोगी हैं, जिनका इलाज पीएचसी में ही हो सकता है. लेकिन, प्रखंड […]
विधानसभा चुनाव के दौरान तीखे आरोप-प्रत्यारोप के बीच क्या दूर-दराज से छोटे-मोटे रोगों के इलाज के लिए पटना आने वाले मरीजों की पीड़ा का अहसास किसी को है? पटना के आइजीआइएमएस में ऐसे सैकड़ों मरीज सुदूर गांव से पहुंचते हैं. कई तो ऐसे रोगी हैं, जिनका इलाज पीएचसी में ही हो सकता है.
लेकिन, प्रखंड व जिलों में स्वास्थ्य सुविधा की खस्ताहालत उन्हें पटना आने को मजबूर करती है. संस्थान के कैंपस में रात गुजारने वाले मरीज और उनके परिजनों के लिए कोई व्यवस्था नहीं है. चुनावी सरगरमी के बीच पुष्यमित्र ने आइजीआइएमएस का दौरा कर वहां की हकीकत जानने की कोशिश की.
आइजीआइएमएस, पटना
7 अक्तूबर, 2015. सुबह 7 से 8 बजे
इंदिरा गांधी आयुर्विज्ञान संस्थान (आइजीआइएमएस) के विशाल गलियारे के डिवाइडर पर बैठे मिले 83 वर्षीय जमील अहमद. जमील सुपौल जिले में कोसी तटबंध के भीतर के गांव पचगछिया के रहने वाले हैं. पूछने पर कहते हैं, हार्ट का इलाज कराने आये हैं. हार्ट में क्या हुआ, पूछने पर बताते हैं, घबराहट होती है. कभी-कभी धड़कन तेज हो जाती है और कमजोरी महसूस होती है. अस्पताल की परची देखने पर पता चलता है कि हृदय रोग है या नहीं, यह अभी स्पष्ट नहीं हुआ है. इन्हें इसीजी, इको-कार्डियोग्राम और दूसरे ब्लड टेस्ट लिखे गये हैं. इसीजी और ब्लड टेस्ट का नतीजा आ चुका है, जो सामान्य ही है. इको करवाना है. जमील यहां तीसरी बार आये हैं. गांव से उन्हें यहां आने में तकरीबन 24 घंटे लग जाते हैं.
दो नदी पार कर तकरीबन 10 किमी पैदल चलकर वे तटबंध तक पहुंचते हैं. वहां से किसी सवारी से सुपौल, अपने गृह जिले तक पहुंचने में शाम हो जाती है. फिर वहां से रात की बस पकड़ कर सुबह सवेरे पटना पहुंचते हैं. वे तीन दफा ऐसी यात्र कर चुके हैं, मगर अभी तक जाहिर नहीं हुआ है कि उन्हें हुआ क्या है? बात सिर्फ इतनी है कि सुपौल के डॉक्टर उनका रोग पकड़ नहीं पाये, और आइजीआइएमएस अस्पताल की खराब इको जांच मशीन हाल-फिलहाल ठीक हुई है.
अब यह चिकित्सा विशेषज्ञ ही बता सकते हैं कि क्या ये इतनी बड़ी बीमारियां हैं कि लोगों को 20-24 घंटे की यात्र करके पटना आना पड़े? क्या सुपौल के डॉक्टर या वहां के सदर अस्पताल में हृदय रोग की सामान्य जांच नहीं हो सकती? क्या उस पूर्णिया में डॉक्टर एक कैथेटर तक नहीं लगा सकते, जिसे पूर्वी बिहार का मेडिकल हब माना जाता है?
आखिर इस व्यवस्था में कौन-सी चूक है, जो मरीजों को इन छोटी-छोटी बीमारियों के लिए इस सरकारी अस्पताल के चक्कर लगाने पड़ते हैं? मरीजों से पूछता हूं, तो वे मुखर हो जाते हैं. कहते हैं, जिलों के सरकारी अस्पतालों की व्यवस्था कुछ साल पहले ठीक तो हुई थी, मगर अब डॉक्टर नहीं मिलता, तो इलाज किससे करवायें. चुनावी शोरगुल के बीच उनकी यह पीड़ा कहां सुनाई दे रही है?
सुबह के सात बजे हैं, ओपीडी के सामने सैकड़ों मरीज जमा हैं. वे गेट खुलने का इलाज कर रहे हैं, गेट खुले तो नंबर लगायेंगे. प्रकाश कुमार, जो खुद एक स्वास्थ्यकर्मी हैं, अपने 17 साल के बच्चे को लेकर आये हैं, क्योंकि सीतामढ़ी के डॉक्टर ने उसकी किडनी में बड़े पत्थर होने की आशंका जाहिर कर दी है.
18 साल के तनवीर आलम, जो सहरसा, महिषी के भेलाही गांव के रहने वाले हैं, डॉक्टरों ने कहा है उनकी किडनी सिकुड़ रही है. सिंघिया, समस्तीपुर के खेतिहर मजदूर राजाराम पासवान के बेटे आठ साल के गुड्डू कुमार को वहां के डॉक्टरों ने लीवर में शिकायत बता दी है. राजाराम 20 हजार रु पया पांच टका महीना सूद पर उठा कर आये हैं, अब इलाज में जो खर्च हो. दिहाड़ी मजदूर हैं, क्या करें.
लोग बताते हैं कि पहले 50 रु पये की परची कटेगी. फिर ढूंढ-ढांढ़ कर डॉक्टर के केबिन तक पहुंचना पड़ेगा. वहां दस बजे डॉक्टर बैठेंगे तो पता चलेगा कि अभी एडवांस नंबर चल रहा है. भारी-भीड़ के बीच डॉक्टर को दिखाते-दिखाते दो बज जायेंगे. डॉक्टर कुछ टेस्ट लिख देंगे जिनका अलग परचा कटता है. चूंकि पहले दिन इतनी देर हो जाती है कि टेस्ट अगले दिन ही करा सकते हैं. फिर दो-तीन दिन में नतीजे आते हैं. फिर वही प्रक्रि या. खैर, इसके बावजूद आइजीआइएमएस में अच्छा इलाज होता है. गलत इलाज नहीं होता, यह भरोसा उन्हें यहां खीच लाता है.
पानी की बेसिन के आगे भी अच्छी खासी भीड़ है. लोग दतवन कर रहे हैं और नहा लेने की कोशिश कर रहे हैं. कुछ लोग ओपीडी के सामने बने एक शौचालय में भी जा रहे हैं. मगर वहां चार्जेज काफी अधिक हैं. शौच के सात रु पये, नहाने के दस रु पये और मूत्र करने के दो रु पये. आप वहां मोबाइल भी चार्ज करवा सकते हैं. पांच रु पये में. ये सब जरूरी आवश्यकताएं हैं, मगर ये सुविधाएं यहां अस्पताल में आसानी से नहीं मिल सकती. जो लोग एडमिट हो गये हैं, वे तो वार्ड में शौचालय का उपयोग कर लेते हैं. बांकी लोगों का यह 20-25 रु पये का रोज काखर्च है.
बात इतनी ही नहीं. यहां दिखाने में कम से कम तीन-चार दिन लगते हैं और अगर मरीज भरती हो गया तो कम से कम 15 दिन तो रहना ही पड़ता है. ऐसे में मरीज के परजिनों को रहना, खाना-पीना सब कुछ इसी कैंपस में करना पड़ता है. रात कैंपस में ही गुजरती है, खुले आकाश के नीचे मच्छरदानी लगाये सैकड़ों लोग सोये नजर आते हैं.
सीवान के दरौली प्रखंड के दोन गांव के बालेश्वर प्रसाद एक बार 20 रोज तक इलाज करा कर अपनी दोनों किडनी से पथरी निकलवा कर लौट चुके थे. अब ऑपरेशन के वक्त बंधे तार को खुलवाने आये हैं. चार रोज से यहीं हैं, नंबर के इंतजार में. बालेश्वर अस्पताल के सामने छोटे वाले गैस सिलिंडर पर खुले आसमान के नीचे खाना पका रही अपनी पत्नी के साथ बैठे मिले. उन्हें मालूम है कि आइजीआइएमएस में इलाज कराना है, तो अपना गैस सिलिंडर, अपना बरतन और कच्चा समान होना चाहिए, नहीं तो बिक जायेंगे. उनके जैसे पचासों लोग सुबह-शाम अस्पताल परिसर में इसी तरह खाना पकाते हैं. खुले आसमान में. देख कर थोड़ा अजीब लगता है, मगर क्या करें.
हालांकि पिछवाड़े में एक बड़ा शानदार रेस्तरां खुल गया है. वहां हर तरह का लजीज व्यंजन मिल जाता है. मगर लोग चाहते हैं, इसके बदले एक छोटा-सा मेस खुले, जहां तीस रु पये में भरपेट खाना मिले.
परवल छील रहे एक सज्जन बताते हैं, पहले यहां एक सरकारी धर्मशाला हुआ करता था. जहां सौ रु पये में कमरा मिल जाता था. गैस चूल्हा और खाना पकाने के बरतन भी. मगर दो-तीन साल से वह बंद है. वहां नर्सिग कॉलेज खुल गया. यानी धर्मशाला की बलि ले ली गयी. बड़ा अच्छा इंतजाम होगा.. मेरे मुंह से निकलते ही चाय वाला भड़क गया. इंतजाम तो बढ़ियां था, मगर लोग ठीक रहने दें तब तो. घिना कर पैखाना घर बना दिये थे.
ई बिहार है भैया, लोग कोई चीज ठीक रहने दें तब न. उनके जवाब पर परवल छील रहे सज्जन कहते हैं, चलिए, ठीक हुआ. धर्मशाला बंद हो गया. अब आपका चाय बिक रहा है न.. जवाब सुन कर चाय वाला ङोंप जाता है. मुस्कुराते हुए कहता है, किडनी का इलाज कराने आये हैं मरदे.. वही करा लीजिए.. अब कोची-कोची का इलाज करेंगे डागडर बाबू.. कहने को तो पूरा बिहारे बीमार है. चुनाव में कहां किसको फुरसत है, सेहत का सवाल हल करने की.
ऐसे हो रहा इलाज : पूर्णिया जिले के बड़हरा प्रखंड के 16 साल के रु पेश यादव यहां कैथेटर डलवाने आये हैं. उनके पिता श्याम सुंदर यादव कहते हैं कि पूर्णिया के डॉक्टरों ने कहा कि कैथेटर यानी मूत्रशय में लगने वाली पाइप यहां नहीं लग सकती. पटना ही जाना पड़ेगा.
वे पिछले 12 दिनों से इलाज के लिए पूर्णिया, पटना और यहां-वहां भटक रहे हैं. कैथेटर लगा कर रूपेश अपने माता-पिता के साथ ओपीडी के बाहर खुले में प्लास्टिक बिछा कर बैठे मिले. यहां खुले में प्लास्टिक बिछा कर रहने के अलावा कोई क्या विकल्प नहीं है.
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