Advertisement
फैक्टरी भले न खुली, पर एके 47 टांगे लोग भी अब नहीं घूमते
मोकामा में रहते हैं सरदार दलजीत सिंह. सौ साल पहले उनके पुरखे पाकिस्तान से यहां आ गये थे. मोकामा में पहले सौ से ज्यादा सिख परिवार थे. अब अकेले बचे हैं दलजीत. मोकामा के बारे में जानने के लिए उनसे बेहतर प्रत्यक्षदर्शी भला कौन हो सकता है? तो आइए, मिलते हैं सरदार दलजीत सिंह से. […]
मोकामा में रहते हैं सरदार दलजीत सिंह. सौ साल पहले उनके पुरखे पाकिस्तान से यहां आ गये थे. मोकामा में पहले सौ से ज्यादा सिख परिवार थे. अब अकेले बचे हैं दलजीत. मोकामा के बारे में जानने के लिए उनसे बेहतर प्रत्यक्षदर्शी भला कौन हो सकता है? तो आइए, मिलते हैं सरदार दलजीत सिंह से.
मोकामा में पहले दाल की कम से कम 15 बड़ी मिलें थीं. यहां से बांग्लादेश, नेपाल, चीन और अपने यहां पश्चिम बंगाल तथा पूर्वोत्तर के राज्यों तक दाल भेजी जाती थी. टाल इलाके में चना, मसूर और खेसारी की जबरदस्त पैदावार थी. लखीसराय के बड़हिया से पटना के फतुहा तक के इलाके को दाल का कटोरा कहा जाता था. पर अब कहां? नब्बे के उत्तरार्ध में हालात बिगड़ने लगे. अपराध और रंगदारी ने सब कुछ तहस-नहस कर दिया.
मोकामा का सामाजिक और आर्थिक जीवन बुरी तरह प्रभावित हुआ. दाल की मिलें बंद होने लगीं. उसे चलाने वाले मारवाड़ी परिवार यहां से चले गये. इसने दाल के कारोबार को पूरी तरह चौपट कर दिया. किसानों का बाजार के साथ जो एक रिश्ता था, वह भी बिखर गया. अब छोटी-छोटी पांच दाल मिलें हैं. किसी जमाने में मेरी दाल की बड़ी मिल थी. सिलीगुड़ी और कूचबिहार तक सप्लाई होती थी. एक बीघे में पहले चने की पैदावार 15-20 मन तक हो जाती थी. वह घट कर आधे से भी कम हो गयी है. चने में एक खास तरह का कीड़ा लग जाता है. वह बीज के मिट्टी से निकलने के साथ ही लग जाता है. किसान अब चने की जगह खेसारी अधिक उपजा रहे हैं.
सूत मिल, बाटा फैक्टरी भी बंद : यहां नेशनल टेक्सटाइल कॉरपोरेशन की सूत मिल थी. अब बंद हो चुकी है. उसकी मशीनें नीलाम हो गयीं. भारत वैगन की हालत भी ठीक नहीं है. पहले इसे भारी उद्योग मंत्रलय ने टेकओवर किया था. बाद में रेलवे ने. कर्मचारियों को तनख्वाह के लाले पड़े हैं. हथीदह में बाटा की फैक्टरी थी. इससे भी मोकामा को एक पहचान मिलती थी.वह भी बंद हो गयी. प्रतियोगिता में ये प्रतिष्ठान टिक न सके.
अब बदलाव : यहां कोई बड़ी मिल तो नहीं लगी है. पर बहुत कुछ बदला है. अपराध कम हुआ है. पहले कंधे पर एके 47 टांगे लोग दिख जाते थे. अब वैसा नहीं है. मोटरसाइकिल के चार-पांच शो रूम खुल गये हैं. लोगों की मानिसकता बदली है. वे आर्थिक तौर पर मजबूत होना चाहते हैं.
पर ये नहीं बदल रहा : सरदार आर्य कन्या उच्च विद्यालय के सेक्र ेटरी भी हैं. बताते हैं कि सात सौ लड़कियां हैं. पर रेगुलर क्लास के लिए दो-ढाई सौ से ज्यादा नहीं आतीं. पोशाक और साइकिल के लिए मारामारी है. समाज जागेगा तभी हालत ठीक होंगे.
अब शहर में सिर्फ एक सिख परिवार
1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद जब सिखों को निशाना बनाया गया, तो सरदार दलजीत सिंह ने अपने परिवार को पंजाब भेज दिया. यहां वे अकेले रह गये. दूसरे सिख परिवारों का पलायन होता रहा. पर दलजीत यहीं टिके रहे. लंबे समय के बाद अपने परिवार को बुलाया.
उनके बेटे और नाती-पोता यहां रहना नहीं चाहते. वे जालंधर में हैं. बड़ी मुश्किल से उन्होंने अपने बड़े बेटे को साथ रहने के लिए मनाया. बिहार में एलपीजी गैस सिलिंडर बनाने का एकमात्र कारखाना उनका ही है. भावुक दलजीत बताते हैं, दो साल पहले मां गुजरी, तो उसकी अर्थी को कंधा देने लोग उमड़ पड़े. मोकामा छोड़ मैं कहीं नहीं रह सकता.
Prabhat Khabar App :
देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए
Advertisement