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बाढ़ : नेता लोगों को हमारी फिक्र नहीं तो हम सब भी अपने में मगन

अजय कुमार जल गोविंद/दहौर गांव (बाढ़) : एनएच 31 के ये दो गांव हैं. बाढ़ से मोकामा की ओर जाने पर पहले मिलेगा दहौर. उसके बाद जल गोविंद. इन गांवों के उत्तर में गंगा है. दक्षिण में मोहाने नदी. एक ओर बलुआही मिट्टी, तो दूसरी ओर दोमट. सूखे की मार दोनों गांवों पर है. अब […]

अजय कुमार
जल गोविंद/दहौर गांव (बाढ़) : एनएच 31 के ये दो गांव हैं. बाढ़ से मोकामा की ओर जाने पर पहले मिलेगा दहौर. उसके बाद जल गोविंद. इन गांवों के उत्तर में गंगा है. दक्षिण में मोहाने नदी. एक ओर बलुआही मिट्टी, तो दूसरी ओर दोमट. सूखे की मार दोनों गांवों पर है. अब अगले फसल की चिंता है, पर चिंता करने से क्या मिलेगा? दुख तो कटना है नहीं. जो होगा, सो देखा जायेगा, अभी ताश के पत्ते फेंट लिये जाएं. जब सब अपने में मगन हैं, तो हम क्यों न रहें. आज बाढ़ और मोकामा के कई उम्मीदवारों ने नॉमिनेशन किया. उन्हें तो हमारी फिक्र नहीं?
हम सड़क किनारे दहौर गांव के लोगों से मिले. धनबाद कोलियरी से रिटायर होकर गांव आ गये तीर्थ नारायण झा. कहते हैं, खेत रूनाह (बाधित) हो गया है. धान का क्या होगा, पता नहीं. आगे का भी ठिकाना नहीं. बगल में ताश के पत्ते फेंटते मनींद्र बोले, एक बीघा खेत पटाने में आठ घंटे से कम नहीं लगता है. एक घंटे का एक सौ बीस रु पये का रेट है. टाल-दियारा में बिजली मिलती नहीं. हमारी यह विवशता कोई नहीं समझ रहा. मनींद्र पटना में प्राइवेट नौकरी करते हैं.
बात शिक्षा, अस्पताल, नौकरी-चाकरी, बिजली सब पर होती है. वे एक-एककर गिनाते हैं कि कैसे स्कूली व्यवस्था खराब हो गयी. मास्टर जी आते हैं और खाना बनाने में लग जाते हैं. बिजली आयी. पोल लगे. पर वह भी पूरा नहीं है. अस्पताल में डॉक्टर नहीं. रूपेंद्र सीधा सवाल दागते हैं, आप ही बताइए, ई बेओस्था बदलना चाहिए कि नहीं?
इस सवाल को वहीं छोड़ हम आगे निकले. जल गोविंद गांव में घुसने के पहले एक यात्री पड़ाव है. गांववाले इसका इस्तेमाल आराम करने और बैठका लगाने में करते हैं. हम जब पहुंचे, दो गोल में बंटकर लोग बादशाह-बीवी के खेल में मगन थे. हमने खेती की बात छेड़ी, तो नवीन कहने लगे, पिछले साल बाढ़ में धान बरबाद हो गया था. इस साल सूखे की मार है. कमलेश कहते हैं, ‘पतवन सब लाल हो गैलकौ. कीड़ा बरबाद करले हौलकऊ.’ ऐसा क्यो हुआ? नवल प्रसाद समझाते हैं, पानी होने से पत्ते पर कीड़े नहीं बैठते. हवा भी चलती है. धान बच जाता है.
यहां चुनाव और विकास की बात होती है, तो खुलकर बोलने लगते हैं. कहते हैं, ‘बिकास तो हमलोग देख रहे हैं, अब दिल्ली से कइसा बिकास होगा? देखिए, सड़क बन गयी. इसकूल का इंतजाम ठीक हो गया है. हर घर का बच्चा पढ़ने जाने लगा है.’ अजीत कहते हैं, ‘सभ गांव में सड़क बन गया है. ई तो हम देख रहे हैं. लेकिन उनकर? बैंक पास बुक खोलवा दिया. पर पइसा अब तकले नहीं आया.’ इस गांव के लोग आसपास और शहर में मर-मजदूरी करते हैं. उसी से चूल्हा जलता है, पर यहां के 75 फीसदी घरों में केबुल का कनेक्शन है. सिनेमा और न्यूज के लिए घर से बाहर नहीं जाना पड़ता है.
कोई नेता पहुंचा? कोई भरोसा, कोई आश्वासन मिला? नवीन कहते हैं, अभी कहां. इहां तो तीसरे फेज में 28 को इलेक्शन है. अब आयेंगे. दोनों गांवों के ज्यादातर नौजवान बाहर हैं. कोई पंजाब, तो कोई दिल्ली. दहौर गांव के जुगल सिंह अस्सी पार हैं. उनके पांच बेटे हैं. सभी बाहर रहते हैं. जैसे-तैसे चल रहा है. यही हाल ज्यादातर बुजुर्गो और घरों का है.
(साथ में जयमणि).

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