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नये सामाजिक समीकरण की दस्तक का दशक

बिहार में पिछली सदी की राजनीति 21 वीं सदी के आरंभिक वर्षो में बदलने की ओर बढ़ चली थी. समय ने सामाजिक जड़ता को तोड़ते हुए एक अवसर दिया, जिससे लालू प्रसाद और राबड़ी देवी की सरकार डेढ़ दशक तक सत्ता में रही. वर्ष 2005 में विधानसभा के दो चुनाव हुए. उस साल फरवरी में […]

बिहार में पिछली सदी की राजनीति 21 वीं सदी के आरंभिक वर्षो में बदलने की ओर बढ़ चली थी. समय ने सामाजिक जड़ता को तोड़ते हुए एक अवसर दिया, जिससे लालू प्रसाद और राबड़ी देवी की सरकार डेढ़ दशक तक सत्ता में रही. वर्ष 2005 में विधानसभा के दो चुनाव हुए. उस साल फरवरी में हुए चुनाव में किसी दल या गंठबंधन को बहुमत नहीं मिला और राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करना पड़ा. उसी साल सरकार बनाने के लिए नये सिरे से अक्टूबर महीने में चुनाव हुए और उससे निकली एनडीए की सरकार. बिहार विभाजन के बाद विधानसभा की 243 सीटों में से जदयू को 88 और भाजपा को 55 सीटें मिली थी जबकि 15 वर्षो तक शासन में रहे राजद की सीटें घटकर 54 हो गयी थीं.

जदयू-भाजपा ने मिलकर एक नये किस्म का सामाजिक समीकरण तैयार करने में कामयाबी हासिल की थी. जदयू निर्णायक हद तक उन सामाजिक समूहों को अपने पक्ष में करने में सफल रहा, जो इसके पहले तक लालू प्रसाद के प्रभामंडल में सिमटा हुआ था. जदयू-भाजपा के पास नीतीश कुमार जैसा एक विश्वसनीय चेहरा था. उन्होंने न्याय के साथ विकास को अपनी राजनीति का केंद्रीय एजेंडा बनाया.

आर्थिक पैमाने पर अत्यंत कमजोर जातियों को यह एजेंडा अपील कर गया. सत्ता में आने के बाद नीतीश ने पंचायतों में महिलाओं के लिए 50 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था कर दी. इसके चलते निचले स्तर पर राजकाज के केंद्र बदल गये. पिछड़ों-अति पिछड़ों को सत्ता में हिस्सेदारी का प्रत्यक्ष अनुभव हुआ. इससे उनकी राजनैतिक महत्वाकांक्षा बढ़ गयी. गांवों में सत्ता का केंद्र बदल जाने से अगड़ी जातियों में कुनमुनाहट महसूस की गयी, पर सरकार-सत्ता में उनकी भागीदारी के चलते यह मामला किसी सामाजिक टकराव के रूप में सामने नहीं आया. लेकिन गांव के स्तर पर अति पिछड़ी जातियों को बड़ा अधिकार तब तक मिल गया था.

नीतीश कुमार की सरकार ने अलग-अलग जाति-समूहों के लिए कई योजनाएं चलायी. अल्पसंख्यकों को केंद्र में रखकर विकास के साथ उन्हें जोड़ने की कोशिश की गयी. भागलपुर दंगे की बंद पड़ी फाइलें दोबारा खुलीं और आरोपितयों को सजा हुई. ओबीसी, महादलितों के लिए अलग से कार्यक्रम लांच हुए, तो सवर्ण जाति के गरीब छात्र-छात्रओं के लिए छात्रवृति लागू की गयी. हालांकि सवर्ण गरीब छात्रों की छात्रवृति वाली योजना 2015 में लागू की गयी. जाहिर है कि इन सब कार्यक्रमों-योजनाओं का लक्ष्य का लक्ष्य था और वह था सामाजिक आधार को अपने राजनैतिक आधार में बदलना. कानून-व्यवस्था की जो लचर स्थिति थी, उसे सख्त किया गया. अपराधियों के खिलाफ स्पीडी ट्रायल चलाकर बड़ी संख्या में उन्हें जेल में डाला गया. गली-मोहल्ले के स्तर पर उभरे लंपट तत्व निष्क्रिय हुए, तो लोगों को अहसास हुआ कि पहले की तुलना में माहौल बदला है. सरकार में आने के फौरन बाद सड़कों की सूरत बदलने का अभियान चला. इन चौतरफा कोशिशों से यह छवि उभरी की सरकार काम कर रही है.

2010 का चुनाव: कामयाबी की नयी कहानी

2005 से 10 की अवधि में सरकार अपनी सत्ता के प्रति लोगों का सकारात्मक भाव अजिर्त करने में कामयाब रही. सामाजिक स्तर पर पिछड़ों, अति पिछड़ों, महादलितों और अगड़ी जातियों का एक संश्रय कायम हुआ.इसका परिणाम 2010 के विधानसभा चुनाव में देखने को मिला. उस चुनाव में राजद का जनाधार और सीटें भी. उसे महज 22 सीटें ही प्राप्त हो सकीं जबकि उसका वोट प्रतिशत गिरकर 18.84 पर पहुंच गया. इसकी तुलना में जदयू को ऐतिहासिक कायमाबी मिली. उसकी सीटें बढ़कर 115 हो गयीं. उसे कुल पड़े वोटों में हिस्सेदारी 22.58 फीसदी पर पहुंच गयी.

उसकी सहयोगी भाजपा को बिहार में पहली बार 16.49 फीसदी वोट मिले और सीटें मिलीं 91. जदयू-भाजपा को मिले वोटों के प्रतिशत से स्पष्ट था कि दोनों दलों के आधारों ने एक-दूसरे को

सपोर्ट किया.

नये समीकरण की आहट

इस बीच 16 जून 2013 को नीतीश कुमार ने भाजपा से खुद को अलग कर लिया. जदयू और भाजपा के बीच करीब 17 वर्षो के राजनैतिक रिश्ते खत्म होने की वजह केंद्रीय भाजपा की राजनीति में आये बदलाव को बताया गया. कहा गया कि अटल-आडवाणी के काल की तरह एनडीए के घटक दलों के बीच किसी मुद्दे पर सर्वानुमति कायम नहीं की जाती. जदयू और भाजपा की राह अलग-अलग होने के बाद नये राजनैतिक समीकरण बनने के रास्ते खुल गये.

2014 में संसदीय चुनाव के ठीक पहले रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी तथा नीतीश कुमार के करीबी रहे उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी भी एनडीए का हिस्सा बनने में देर नहीं की. संसदीय चुनाव में एनडीए को भारी कामयाबी मिली.

भाजपा, लोजपा और रालोसपा के खाते में 40 सीटों में से 31 पर कब्जा हो गया. जदयू, राजद, कांग्रेस और एनसीपी को नौ सीटें मिलीं. अब तय हो गया था कि गैर एनडीए दलों को नजदीक आये बिना काम नहीं चलेगा.

एक दशक में ऐसे बदल गया समीकरण

2005 से 15 आते-आते राजनैतिक-सामाजिक समीकरण बदल गये. एनडीए से अलग होने के बाद जदयू ने राजद के साथ दोस्ती का हाथ बढ़ाया और दोनों ने गठबंधन कायम कर लिया. एक बदलाव यह भी आया कि लोकसभा चुनाव के बाद मुख्यमंत्री का पद छोड़कर नीतीश कुमार ने जिस महादलित सुमदाय से आने वाले जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री बनाया था, वह भी अपनी पार्टी, हिन्दुस्तानी अवाम मोरचा बनाकर एनडीए के नये दोस्त बन गये. 2015 का विधानसभा चुनाव नये सामाजिक आधार पर लड़ने की पृष्ठभूमि तैयार हो गयी है. सामाजिक आधारों को अपने पाले में करने के लिए हर गंठबंधन अपनी रणनीति तैयार कर

रहा है.

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